दिल्ली सहित देश के कुछ हिस्सों में कल जो दिखा, उसे देखकर कई तरह की मिश्रित यादें ताजा हो गई हैं। सन 1984 में अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे। प्रचार के दौरान ऐसा भी हुआ कि छात्राओं के एक समूह ने अमिताभ की राह में अपने दुपट्टे बिछा दिए थे। फिर एक समय वह आया जब भोपाल की कुछ सड़कों पर यूं जश्न मना, गोया कि कोई बहुत प्रसिद्ध शख्सियत का भोपाल आगमन हो गया हो। यह स्वागत था अशोक वीर विक्रम सिंह का। वह बसपा के टिकट पर चुनाव जीतकर विधानसभा की कार्यवाही में हिस्सा लेने आये थे। सिंह एक हाथी पर सवार थे और उनके समर्थक ‘भैया राजा जय गोपाल! हाथी पहुंच गया भोपाल’ के नारे बुलंद कर रहे थे। ऐसे ही जश्न का फूटा सोता एक रात दिल्ली वालों की नींद उड़ा गया था। उस देर शाम राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि वह सक्रिय राजनीति में आ रहे हैं। यह ऐलान होने भर की देर थी कि कांग्रेस मुख्यालय तथा सोनिया गांधी का आवास जश्न के केंद्र बन गए।
सोमवार को राहुल गांधी की प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) में हुई पूछताछ को उनके समर्थकों द्वारा जिस तरह सेलिब्रेट किया गया, वह चकित नहीं करता। क्योंकि कांग्रेस में गांधी परिवार के हर स्थिति में अंध-समर्थन को ही अस्तित्व बचाए रखने का विकल्प स्वीकार लिया गया है। निश्चित ही यह राहुल गांधी के प्रति समर्थन था। लेकिन समर्थन का यह भाव उस मामले में दिखाया गया, जो आपराधिक प्रवृत्ति का है। जिसमे राहुल आरोपी बनाये गए हैं। जिसमे स्वयं राहुल और उनकी माता सोनिया गांधी जमानत पर चल रहे हैं।
ऐसे किसी मामले के लिए सफाई देने जाने को जश्न का स्वरूप प्रदान कर आखिर कांग्रेस क्या जताना चाह रही है? यदि इसे राहुल का शक्ति प्रदर्शन माना जा रहा है तो फिर यह तय मानिए कि राहुल कल शक्ति के तौर पर बुरी तरह एक्सपोज हो गए। ध्यान दीजिए कि शेष विपक्ष तो दूर, कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार चला रहे दलों ने तक राहुल के पक्ष में आवाज नहीं उठाई। ममता बनर्जी से लेकर तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, मायावती आदि ने राहुल के पक्ष में एक ट्वीट तक नहीं किया। शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी इस सब से जैसे मुंह मोड़ रखा है। तो फिर इस ताकत का क्या मोल रह जाता है, जो अपनों के ही बीच, अपने उपनाम के चलते ही अर्जित की जा सकी है? वह शक्ति, जिसकी दम पर राहुल अपने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नेतृत्व में अब तक पार्टी को करीब तीस चुनाव हरवा चुके हैं।
यदि आपको ईडी की कार्यवाही से ऐतराज़ है तो अदालत का दरवाजा आपके लिए खुला हुआ है। सड़क पर इस तरह के प्रदर्शन का, इस प्रवृत्ति वाले मामले के समर्थन का भला क्या औचित्य है? मामले में सही-गलत का अंतिम फैसला न्यायालय करेगा, लेकिन एक सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि यदि गांधी दोषी करार दिए गए तो क्या कांग्रेस कल से भी और अधिक बड़े प्रदर्शन करने से भी नहीं चूकेगी? सच तो यह है कि कांग्रेस आज भी ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ वाली मानसिकता से उबर नहीं सकी है और यही वजह है कि कालांतर में यह दल चमचत्व के उस दलदल में बुरी तरह धंस गया, जहां से उसका उबरना नामुमकिन-सा दिखने लगा है।
सभी को याद होगा कि जिस इलाहाबाद में अमिताभ की लोकप्रियता के चलते उनके लिए दुपट्टे बिछाए गये थे, उसी शहर ने बाद में इस सितारे से ऐसा मुंह मोड़ा कि अमिताभ को घबराकर राजनीति से तौबा करना पड़ गयी थी। अशोक वीर विक्रम सिंह के हाथी वाले दंभ का जो हश्र हुआ, वह अंततः जेल में किसी आम कैदी की तरह उनकी अंतिम सांसों के रूप में सामने आया। बाकी राहुल के राजनीति में आने के जश्न की जिस तरह तीस के लगभग नाकामियों वाली परिणति अब तक हो चुकी है, उस बारे में अलग से कुछ लिखने की जरूरत नहीं रह जाती है।
निःसंदेह कल का प्रदर्शन सांकेतिक हो सकता था। बापू की प्रतिमा के नीचे मौन रखकर अपनी बात को मीडिया तक पहुंचाना एक सफल प्रयोग साबित हो चुका है। कांग्रेस भी ऐसा कर सकती थी। मगर इससे पर जो कुछ हुआ, वह बहुत विचित्र था। यह खेल बहुत खलने वाला भी रहा।