इस अधूरेपन को भी दूर करने का रास्ता भी खोलिए माई लॉर्ड

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देख/पढ़ और समझकर एक अधूरेपन का अहसास हो रहा है, बल्कि कचोट रहा है। वह यह कि चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक बताने वाली न्यायिक व्यवस्था की तरफ से यह संकेत बिलकुल नहीं मिला कि आखिर इस सब के प्रत्युत्तर में सुधार कैसे किया जाए? निश्चित ही यह माननीय अदालत का काम नहीं है। लेकिन, जब आप मणिपुर सहित उस तरह के अनेक मामलों को लेकर स्वत: संज्ञान लेते हुए ‘क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए’ जैसी टिप्पणी करते हैं, तो फिर यह क्यों नहीं होता कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ‘काला धन’ वाली ‘विवशता’ से लेकर चुनावी बॉन्ड वाली जटिलता के जवाब में आपका भी कोई सुझाव हो?

बेशक आप सुप्रीम हैं और अपने अधिकार से संविधान प्रदत्त सम्मान के अधिकारी हैं। किंतु क्या शक्ति संपन्न होना केवल इस बात तक सीमित रह जाए कि किसी बैंक को ‘हम अभी जिन्दा हैं’ वाली शैली में डांट-डपटकर यह दिखा जाए कि ‘केवल हम ही जिंदा हैं।’ क्यों नहीं ये पूछा जाता कि नाम मात्र के अस्तित्व वाले दलों को भी उनकी क्षमता के हिसाब से बहुत अधिक चंदा कैसे मिल गया? फिर, आप उद्योगपति या पूंजीपति के नाम उजागर करने तक ही सीमित हैं तो एक बात से आप भी इनकार नहीं कर सकते। व्यापार जगत वह है, जहां छोटे से छोटा व्यक्ति ‘मुनाफे में चार पैसा मिल जाए’ से लेकर इसी स्थान का शीर्ष पर बैठा संस्थान ‘वह चार पैसा और उससे जुड़े यार भी मिलते चले जाएं’ वाली मानसिकता से ग्रस्त रहता है।

राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद सब जायज हैं । क्या इस मोदी सरकार से पहले सत्ता के दुरूपयोग के उदाहरण नहीं हैं । अभी भी राजनीतिक दलों को जो चंदा मिला हैं, उसमें सत्तारूढ़ दल को पांच साल में जितना चंदा मिला है, उससे ज्यादा तो विपक्षी दलों के खाते में जमा हुआ है। आखिर विपक्षी दल भले ही केन्द्र की सत्ता से बाहर हैं , लेकिन राज्यों में तो उनकी सरकारें हैं । तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस को भी तो दूसरे और तीसरे क्रम पर ये चंदा इसलिए ही मिला है क्योंकि राज्यों की सरकार में इनकी भी हिस्सेदारी है। हमाम के सब नंगों के बीच धुर दो विरोधियों की तारीफ की जा सकती है। एक कम्युनिस्ट पार्टियां, जिन्होंने नैतिकता के नाम पर चंदा नहीं बांड के माध्यम से चंदा नहीं लिया। दूसरा सत्तारूढ़ दल भाजपा, क्योंकि जो भी चंदा मिला है वो सीधे पार्टी के खाते में गया ना कि मोदी या शाह के परिवार से जुड़े किसी फाउंडेशन में। समझने के लिए इशारा काफी है। नैतिकता के आधार पर चंदा नहीं लेने वाले कम्युनिस्ट भी अपने बचे खुचे सीमित जनाधार को बचाने के लिए चुनाव में खर्चा नहीं करते होंगे, यह कहना तो मुश्किल है। इसलिए जाहिर है उनका तरीका दूसरा होगा।

तो इस सबके बीच क्या यह तय करने का कोई पैमाना है जिससे ‘चार पैसा ‘ वाले से लेकर ‘चार पैसा और यार’ वाले द्वारा किसी राजनीतिक दल के लिए मन या धन से दिए गए समर्थन के बीच एक स्पष्ट अंतर रेखा खींची जा सके? क्या साहेबान अपने-अपने रसूख वाली रेखा से नीचे जाकर उस मलिन बस्ती में जाने का दम दिखा सकेंगे, जहां आज भी मतदान के ठीक पहले-पहले मताधिकार लाल-गुलाबी कलर के द्रव्य से भरी बोतल या यह ऐसे ही रंग-बिरंगे स्त्री परिधानों के लालच के आगे अपना दम तोड़ देता है? या फिर नगद हजार पांच सौ में अपने वोट का सौदा कर लेता है। दरअसल समस्या वह नहीं है, जो दिखाई जा रही है। समस्या यह कि हम मस्सा काट रहे हैं और यह देखने से आंख मूंद ले रहे हैं कि उस मस्से के फिर न उठ आने के लिए खत्म की जाने वाले जड़ कहां है। आज आपने चुनावी बॉन्ड पर रोक लगा दी। स्वागत योग्य कदम है। आपको साधुवाद। कोटिश: धन्यवाद। लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि आप लोकतंत्र की दुश्मन उस इमारत के केवल एक हिस्से को कमजोर कर रहे हैं, जिस इमारत के कर्ताधर्ता उन रोशनदान को खोलने का रास्ता बहुत अच्छे से जानते हैं, जहा से आपकी इन कोशिशों की हवा एक झटके में निर्गम की तरफ जाने में मजबूर हो जाती है।

एक छोटा, लेकिन सच्चा उदाहरण है। एक उच्च शिक्षण संस्थान में एक बहुत ही कड़क अफसर आ गए। उन्होंने हर गलत काम पर रोक लगाने का दावा किया। मामला काफी हद तक सच भी था। फिर एक दिन एक कॉलेज संचालक उन अफसर से मिलने आया। अफसर ने उससे पूछा, ‘अब सब ठीक है?’ जवाब आया, ‘सब ठीक है, दिक्कत केवल यह है कि आपके पहले तक जिस गलत काम को करवाने के हम सौ रुपए देते थे, आज उसी के दो सौ रुपए देते हैं, लेकिन काम हो रहा है। ‘ ऐसा इसलिए कि उन कड़क अफसर के पास भी सुधार का कोई विचार नहीं था। निसंदेह, सर्वोच्च न्यायालय बहुत जागरूक और जानकार हैं। उम्मीद करना चाहिए कि वह बीमारी का सिर्फ तात्कालिक इलाज ना करें बल्कि देश के राजनीतिक दलों को एक पारदर्शी और कम खर्चीली चुनाव व्यवस्था का रास्ता चुनने के लिए विवश करें। तभी सही मायने में वास्तविक चुनावी सुधार सामने आ सकेंगे। अभी तो हजारो करोड़ों रूपए खर्च करके जो चुनाव हो रहे हैं , उसमें राजनीतिक दलों के पास धन उगाने के ऐसे ही तरीके रहेंगे जिसमें एक हाथ से लें और दूसरे हाथ से दें वाली व्यवस्था कायम रहेगी।