कांग्रेस की मध्यप्रदेश इकाई (Madhya Pradesh unit of Congress) में दहाई को इकाई में परिवर्तित करने की कोशिश एक बार फिर जोर पकड़ रही है। यानी अलग-अलग गुटों में बंटकर अपना-अपना दस का दम दिखा रहे दिग्गज नेताओं को एक करने का प्रयास किया जा रहा है। यह काम जितना कठिन है, पार्टी के हित में यह उतना ही अधिक जरूरी भी है। जाहिर है यह सारी कवायद राज्य विधानसभा (state assembly) के अगले वर्ष संभावित चुनाव को लेकर है। सवाल पार्टी और नेताओं के अस्तित्व का है। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस के शीर्ष में जो चेहरे हैं, जनता के बीच उनका अभामंडल कितना बचा है? हालांकि एकजुटता के प्रयासों में सफलता मिले तो कांग्रेस फिर भी दम लगाकर लड़ तो सकती है। 2018 में दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) के ‘पंगत पे संगत’ वाले अभियान से कांग्रेस को भले ही बहुमत नहीं मिला हो लेकिन सत्ता की दहलीज तक तो वो फिर भी पहुंच ही गई थी।
कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसमें एकता की बात के शुरू होने से लेकर उसके अंत तक किन्तु-परन्तु वाले भाव राहु-केतु की तरह उसकी कुंडली में डट जाते हैं। इसकी वजह यह कि प्रदेश में इस पार्टी में बीते बहुत लंबे समय से गुटबाजी का न सिर्फ बोलबाला, बल्कि दबदबा स्थापित है। मामला ‘आइना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं’ वाला है। मध्यप्रदेश में तो आईना भी वहीं है और चेहरे भी वहीं हैं। इतिहास को टटोलने की जहमत उठाये बगैर वर्तमान के हालात से भी इस फैक्टर को किसी फैक्ट-चेक में रखा जा सकता है। दिग्विजय सिंह से लेकर कमलनाथ (Kamalnath), सुरेश पचौरी (Suresh Pachauri), अरुण यादव (Arun Yadav), कांतिलाल भूरिया (Kantilal Bhuriya), अजय सिंह (Ajay Singh) के अपने-अपने स्तर पर सक्रिय गुट आज भी देखे जा सकते हैं।
ये समूह तो खैर पहले भी रहे। वह जमकर आपस में लड़े-भिड़े भी। अर्जुन सिंह (Arjun Singh) और शुक्ल बंधुओं (Shukla brothers) की खींचतान को भला कौन भूल सकता है? यदि मोतीलाल वोरा (Motilal Vora) और माधव राव सिंधिया (Madhav Rao Scindia) की युति वाली मोती-माधव एक्सप्रेस (Moti-Madhav Express) यहां पटरी पर आयी तो उसका उद्देश्य भी शेष प्रभावशाली नेताओं को कमजोर करना ही था। फिर भी यह वह दौर रहा, जब इन गुटों से मचे गृह-युद्ध के बावजूद कांग्रेस के ग्रह राज्य में बलवान रहे। पार्टी ने लंबे समय तक शासन किया और केंद्र में पीवी नरसिंह राव (PV Narasimha Rao) से लेकर अर्जुन सिंह तक से सतत संघर्ष के बीच दिग्विजय सिंह दस साल तक शासन करने में सफल रहे। ऐसा इसलिए भी संभव हुआ सदी के आखिरी दशक में कांग्रेस आलाकमान (Congress high command) अपनी ताकत खो चुका था। लेकिन दस साल मुख्यमंत्री रहने का दिग्विजय सिंह को लाभ मिला। प्रदेश कांग्रेस में आज उनकी जो पकड़ हैं, उसके आगे कोई नेता नहीं टिकता। कांग्रेस में तो आज भी दिग्विजय का खासा जनाधार है, बस जनता के बीच जनाधार पर उनके लिए भी संदेह किया जा सकता है। दिग्विजय के बाद नाथ से लेकर अन्य सभी दिग्गज नेताओं के पास इस क्षमता का घोर अभाव है। परिस्थितियों के इस दलदल में फंसकर यह दल लगातार और कमजोर होता जा रहा है।
आप बेशक खुश हो सकते हैं कि दो धुर विरोधी अजय सिंह राहुल (Ajay Singh Rahul) और चौधरी राकेश सिंह (Chaudhary Rakesh Singh) ने एक-दूसरे का मुंह मीठा कर अपने बीच की कड़वाहट को खत्म करने का परिचय दिया है, किन्तु सवाल यह कि इससे क्या होगा? सिंह लगातार चुनाव हारकर कांग्रेस, समूचे प्रदेश या विंध्य अंचल (Vindhya region) में किसी बड़ी शक्ति के पर्याय नहीं रह गए हैं। आखिर 2003 के बाद से ही विंध्य में कांग्रेस दुर्गति की शिकार है। राकेश सिंह की ऐसी खराब स्थिति तो चुनाव हारे बगैर ही हो चुकी है। दलबदल वाली भीषण भूल उन्हें जहां ले आयी है, उसकी विवेचना के लिए कहा जा सकता है कि ‘सिर्फ इक कदम उठा था गलत राहे-शौक में, मंजिल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही।’
भूरिया बेशक एक बड़े आदिवासी नेता कहलाते हैं, किन्तु अपनी इस क्षमता का प्रयोग वह झाबुआ-रतलाम (Jhabua-Ratlam) की अपनी लोकसभा सीट (Lok Sabha seat) के बाहर शायद ही कहीं इसे दर्शा सके हों। यहां भी उन्होंने पार्टी की अपेक्षा स्वयं के हित में अधिक किया। अरुण यादव को तो जैसे पार्टी प्रदेश अध्यक्ष पद से हटने के बाद कोई ग्रहण लग गया है। बुधनी में वह अपने ही पार्टीजनों की बदौलत सफलतापूर्वक बलि का बकरा साबित हुए और अब हालत यह कि राज्यसभा में जाने के लिए भी उन्हें जमकर पसीना बहाना पड़ रहा है। लोगों के बीच पकड़ बनाने के लिहाज से यादव अपने दिवंगत पिता सुभाष यादव (Subhash Yadav) से आज भी कोसों पीछे हैं। इसलिए क्षमताओं तथा जनाधार के इसी फ्रेम में अनफिट होने के बाद भी कांग्रेस अगला चुनाव कमलनाथ के नेतृत्व में ही लड़ने जा रही है।
यह अपने आप में चौंका देने वाली बात है। नाथ की आम जनता सहित पार्टी के भीतर भी वह पकड़ नहीं है, जैसी चुनाव का नेतृत्व करने के लिए आवश्यक होती है। याद रखना होगा कि बीते विधानसभा चुनाव में भी कमलनाथ मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं थे। तब उनके बराबर ही ताकत के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) ने पार्टी को बहुमत के मुहाने पर लाने में सफलता दिलाई थी। बावजूद इस सत्य के यदि कमलनाथ पर ही भरोसा जताया जा रहा है तो फिर पार्टी में एकता के प्रयासों को भला किस तरह सफल किया जा सकेगा? नाथ का मुख्यमंत्री वाला कार्यकाल जिस तरह ‘चलो-चलो, आगे बढ़ो’ से उपजे अंदरूनी असंतोष का कारक बना, उसने राज्य की सरकार सहित समूचे पार्टी संगठन में वह अनगिनत दरारें पैदा की थीं, जिनकी भरपाई अब तक नहीं हो सकी है। ऐसी दरारों को भरने के लिए पहले आवश्यक था कि नाथ के कार्यकाल में पार्टी के लोगों को मिले जख्मों को भरा जाता। अब तो ऐसा लग रहा है कि उन कष्टों को हरने की बजाय जख्मों को हरा करने की गलती की जा रही है। ऐसे में क्या सचमुच दहाई को इकाई में बदला जा सकता है? Congress में एकता के वृंद गान की तान तभी छिड़ सकेगी, जब ‘मेरा नेता महान’ की बजाय ‘मेरी कांग्रेस महान’ वाले आरोह में यह दल निपुणता हासिल कर सकेगा। कांग्रेस को महान बनाने के लिए एक लंबा संघर्ष फिर सामने है। और संघर्ष की अब कांग्रेसियों को आदत नहीं रही।