उस डेढ़ होशियार शख्स की कहानी याद आ गयी। कहीं से काफी महंगा भोजन उसके हाथ लग गया। उसने तय किया कि वह आहार उस दिन खाएगा, जब उसकी सबसे अधिक जरूरत महसूस होगी। तो वह उस दिन की प्रतीक्षा में इधर-उधर से मिलने वाला खाना ही खाने लगा। रूखा-सूखा और बासी झूठा भोजन ही करने लगा। फिर जब एक दिन जब उसे महंगा भोजन खाने की इच्छा हुई तो उसने पाया कि बचाकर रखा गया खाना सड़ चुका था। यह भी पता चला कि दूसरों का दिया असुरक्षित खाना खा-खाकर वह अंदर से बीमार भी हो चुका था।
अक्सर यह प्रतीत होता है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी बुद्धि के उपयोगी हिस्से को भी भविष्य की ऐसी ही किसी योजना के लिए इस्तेमाल से बचाकर रखा है। कांग्रेस और खुद के लिए एक महत्वपूर्ण अभियान पर निकले हुए राहुल गांधी अपने ट्रेक रिकार्ड के अनुसार दूसरों की उधार की बुद्धि पर ही चल रहे हैं। वरना यह संभव ही नहीं है कि इतने साल के राजनीतिक अनुभव, जिम्मेदारी और इस क्षेत्र की विराट विरासत के बाद भी वह एक के बाद एक आत्मघाती कदम उठाते चले जाएं। वीर सावरकर को लेकर उनकी टिप्पणी इसी बात की ताजा मिसाल है। महाराष्ट्र में राहुल ने सावरकर को लेकर जो आरोप लगाए, उनका असर तुरंत सामने आ गया।
दो दिन पहले तक राहुल के साथ कदमताल कर रहे आदित्य ठाकरे के पिता उद्धव ने ही राहुल के बयान की आलोचना कर दी। उलटा उन्होंने सावरकर को भारत रत्न देने की मांग दोहरा दी। यहां तक कि उद्धव के कट्टर विरोधी लेकिन महाराष्ट्र को लेकर वैसी ही भावना रखने वाले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट ने भी इस विषय पर उनके साथ सुर में सुर मिला दिए। यानी राहुल ने महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के सहयोगी को नाराज किया और अपने विरोधियों की संख्या में कम से कम तात्कालिक रूप से एक और वृद्धि कर दी। गांधी ने थोड़ा भी निजी समझ का प्रयोग किया होता तो उन्हें याद आ जाता कि महाराष्ट्र में एक और सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार तक सावरकर की प्रशंसा कर चुके हैं। उनका वह वीडियो आज भी सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है ।कांग्रेस मूलत: कभी भी सावरकर की विरोधी नहीं रही। खुद राहुल की दिवंगत दादी इंदिरा गांधी ने सावरकर के देश हेतु त्याग को सराहा है।
सावरकर का विरोध हमेशा ही वामपंथियों ने किया और आज की कांग्रेस जिस तरह वामपंथी विचारधारा में सन चुकी है, उससे साफ है कि राहुल के यह विचार भी ‘आयातित’ ही हैं। जवाहर लाल नेहरू के समय से कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा में कभी अछूता नहीं रहा लेकिन कांग्रेस की अपनी सोच हमेशा स्पष्ट रही। इंदिरा गांधी तक भी और उसके बाद राजीव गांधी तक भी। राजीव के सलाहकार काफी प्रोफेशनल और कांग्रेस के इर्दगिर्द थे। सोनिया और राहुल के दौर में वामपंथी कांग्रेस पर बुरी तरह हावी होते गए। निश्चित ही उनके सलाहकारों में कोई ऐसा है, जो उन्हें इस तरह के बयान और कामों के जरिए एक्सपोज करके उनकी रही-सही राजनीतिक संभावनाओं को भी खत्म करना चाहता है। राहुल भले ही जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी सी सियासी परिपक्वता न हासिल कर सके हों, लेकिन उन्होंने अपने दिवंगत पिता राजीव गांधी से यह फितरत जरूर हासिल की है कि दूसरों के कहे पर चलते हुए अपने किए-कराए को किस तरह खुद ही मटियामेट किया जा सकता है।
सावरकर ने जिन हालात में काले पानी की सजा झेली, वह मिथक नहीं है। नेहरू को मिली राजनीतिक सजाओं से इतर सावरकर ने सजा के नाम पर नरक भुगता। यदि नेहरू अपनी किताब भारत एक खोज में 1857 की क्रांति को ‘सैनिक विद्रोह’ वाले लांछन से युक्त करते रहे तो यह सावरकर थे, जिन्होंने अपने लेखन में अंग्रेजों के विरुद्ध आग उगली और राष्ट्र के हित का पुरजोर समर्थन किया। नेहरू को मिली कैद के समय उन्हें अंग्रेजों की तरफ से एक सहायक तक की सुविधा दी गयी। उनके सचिव एमओ मथाई के लेख बताते हैं कि देश पर संकट काल के समय नेहरू अवकाश लेकर लार्ड माउंटबैटन और उनकी अर्द्धांगिनी के साथ तफरीह कर रहे थे। तो फिर अंग्रेजों का दोस्त कौन हुआ?
वह जो जहाज से कूदकर अपनी जान पर खेलते हुए आजादी की अलख को बढ़ा रहा था या फिर वे जो अंग्रेजों की निगहबानी में रहने को ही सच्चा सुख मानकर देश की हालत से आंख मूंदे बैठे थे? ‘चौकीदार चोर है’ वाले मामले में बिना शर्त माफी मांगकर अपना गला बचाने वाले राहुल यदि अब भी सावरकर प्रकरण में अपने लिए मुसीबतें और अपनी पार्टी के लिए शर्मनाक स्थिति आमंत्रित कर रहे हैं तो यह मान लेना चाहिए कि उन्होंने वाकई अपनी अकल के उपयोगी हिस्सों को भविष्य की किसी योजना के लिए बचाकर रखा है। सवाल यही है कि क्या कभी उस हिस्से के इस्तेमाल की स्थिति बन सकेगी या फिर वह समय आने तक उस समझ का हश्र भी महंगे लेकिन सड़े हुए भोजन की तरह हो जाएगा?