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पीके के तरकश के तीर चलाएगा कौन….. 

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गौर से देखें तो प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) की राजनीतिक सफलता (political success)ओं में ‘हासिल करने’ से अधिक ‘मिल जाने’ वाला फैक्टर प्रभावी रहा है। 2014 में नरेन्द्र मोदी (Narendra modi) और भाजपा (BJP) को मिली शानदार सफलता वो पहला मौका था, जब प्रशांत किशोर की पहचान एक प्रभावी चुनावी रणनीतिकार (effective election strategist) के तौर पर बनी। भाजपा को स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की सरकार बनी तो इसका श्रेय मोदी के अलावा प्रशांत किशोर (PK) को भी मिला। लेकिन गौर करेंगे तो प्रशांत किशोर इस सफलता के एक निमित्त-मात्र थे। बाकी असली काम तो नरेंद्र मोदी की अपराजेय छवि ने किया।

PK के दिमाग की उपज ‘चाय पर चर्चा’ यदि सफल रही तो यह अकेले प्रशांत किशोर या उनकी टीम का करिश्मा नहीं था। इसके पीछे भाजपा का मजबूत संगठन (Strong organization of BJP) और उसके समर्पित कार्यकर्ताओं की मेहनत भी थी। आखिर तो उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) में 2017 में राहुल के लिए बनी रणनीति ‘खाट पे चर्चा’ ने भी कांग्रेस को ऐसा कोई फायदा तो नहीं दिला दिया। वजह यह कि BJP में चाय पे चर्चा को सफल बनाने के लिए लाखों समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज जुटी रही। पार्टी का वह कैडर सक्रिय रहा, जो मोदी की संभावनाओं को पुष्ट स्वरुप प्रदान करने के लिए किसी भी हद तक पीछे नहीं रहा। कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में ऐसा कुछ नहीं है। और भाजपा की संगठन शक्ति किसी एक रणनीतिकार की रणनीति से नहीं उपजी, यह वर्षों के संघर्ष और हजारों पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की देन है। कांग्रेस (Congress) एक जनआंदोलन से उपजी और एक परिवार की विरासत बन कर रह गई। इस फर्क को कौन सा PK पाट सकेगा?

2014 के चुनाव के बाद भाजपा ने पीके को खास तवज्जो नहीं दी। जाहिर है भाजपा ने उनकी प्रोफेशनल सेवाओं की कीमत अदा की ही होगी। लेकिन शायद प्रशांत किशोर की महत्वाकांक्षाएं कुछ और है। इसलिए 2014 के बाद से ही इस चुनावी रणनीतिकार के भीतर भाजपा से मिले व्यवहार की टीस साफ देखी जा सकती है। स्वयं को साबित करने का एक मौका उन्हें सन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव (bihar assembly election) में मिला। तब किशोर ने नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की जनता दल यूनाइटेड (JDU), लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) की राष्ट्रीय जनता दल (RJD)  और गांधी-नेहरू परिवार की कांग्रेस के गठबंधन (Congress alliance of Gandhi-Nehru family) के लिए काम किया। निश्चित ही यह महागठबंधन (grand alliance) सफल रहा। लेकिन इस महागठबंधन की जीत में बिहार के जातिगत समीकरणों से लेकर लालू और नीतिश की संयुक्त ताकत ज्यादा थी। लालू और नीतिश के अलग होने के बाद और भाजपा नीतिश के साथ आने के बाद बिहार में सबसे बड़ा दल बनने से भाजपा को कौन रोक पाया। तो एक यह तथ्य साफ है कि बिहार में 2015 में महागठबंधन की जीत नीतीश कुमार की सुशासन बाबू वाले छवि और लालू प्रसाद यादव के जातिगत गणित की वजह से संभव हुई थी।

इसी तरह यदि पश्चिम बंगाल (West Bengal) के बीते विधानसभा चुनाव को देखें तो वहां तृणमूल कांग्रेस (TMC) की विजय में भी प्रशांत किशोर (PK) ने ‘खेला होबे’ का उल्लेखनीय नारा रचा होगा। उनका ‘खेला होबे’ एक चर्चित नारा अवश्य साबित हुआ, किन्तु करीब ढाई करोड़ मुस्लिम मतों के तृणमूल के पक्ष में थोकबंद जाने और कांग्रेस सहित वामपंथी दलों (Left parties) के चुनावी परिदृश्य से लगभग नदारद रहने से ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को सत्ता में शानदार तरीके से बने रहने में अधिक मदद मिली। यदि पीके इतने ही सक्षम रहते तो फिर यह मुमकिन नहीं था कि BJP इस राज्य की विधानसभा में तीन सीटों से सत्तर से अधिक सीटों तक के आंकड़े को हासिल कर लेती। इन उदाहरणों की रोशनी में कांग्रेस में यह चिंतन जरूरी हो जाता है कि प्रशांत किशोर के हाथों पार्टी की रणनीतिक कमान  सौंपने के पीछे क्या पार्टी के सोच यह है कि इससे कोई ऐसा चमत्कार हो जाएगा, जिससे रसातल पर पहुंच चुकी कांग्रेस को फिर से नए जोश और जवानी की खुराक मिल जाएगी?

फिलहाल जो नजर आया है, उसमें यह अहम फैक्टर है कि PK की नजर में भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता की बहुत अधिक अहमियत नहीं है। वह कांग्रेस को राष्ट्रवाद (Nationalism to Congress) के विषय पर भी भाजपा से चिंतित न होने की सलाह दे रहे हैं। पता नहीं इस तरह की सोच के पीछे प्रशांत किशोर की सोच के आधार क्या हैं? वरना तो कमजोर विपक्ष और राष्ट्रवाद को लेकर भाजपा के शोर तथा जोर, दोनों से ही काफी पीछे जा चुकी कांग्रेस को भाजपा की शक्ति की बड़ी वजहों में गिना जाता है। संभव है कि कांग्रेस के नेतृत्व ने यह सोचकर ही प्रशांत पर दांव लगा दिया हो कि अब दल के पास खोने के लिए और कुछ खास बचा भी नहीं है। लेकिन क्या भाजपा के खिलाफ किशोर के तरकश में कोई असरकारी तीर अब भी बचा है? निश्चित तौर पर मोदी या भाजपा सरकार (Modi or BJP government) कोई अमृतपान कर सत्ता में नहीं बैठी है। सरकार को पटकनी देने के लिए ढेरों तीर विपक्ष के तरकश में हो सकते हैं, लेकिन उन्हें सरकार के खिलाफ दागने में सक्षम हाथ कहां हैं?

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