हुकूमत की तरफ से शहर में सबसे बड़ा जलेबी महोत्सव मनाने का ऐलान किया गया। घोषणाओं की झड़ी लग गयी। इतने अधिक प्रकार की जलेबी बनाने की बात कही गयी, कि उन्हें सुन-सुनकर ही लोगों ने मुंह में आये पानी से पेट भर लिया। जलेबी बनाने और बांटने के अलग-अलग ठिकानों का जिम्मा वहां के प्रभावी लोगों को दे दिया गया। जलेबी विभाग ने अखबारों में विज्ञापन दिए। लोगों से आग्रह किया कि जलेबी जरूर खाएं। प्रभावी लोगों ने आयोजन वाले दिन हेतु कार्यकर्ताओं को पाबन्द कर दिया। हिदायत दी कि कोई गलती न होने पाए। लेकिन आयोजन असफल रहा। क्योंकि कार्यक्रम से जुड़े किसी भी अंग ने इस बात पर गौर नहीं किया कि उस जलेबी की चाशनी (jalebei kee chashani) के लिए शकर तो थी ही नहीं। फीकी जलेबी फेंके जाने लायक ही रह गयी। जलेबी विभाग ने पल्ला झाड़ने के अंदाज में कह दिया कि जिन्हें मीठा खाना था, उन्हें खुद ही शकर के होने या न होने की फिक्र करना चाहिए थी।
यही सब मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में बुधवार को हुए निकाय चुनाव में हुआ। भाजपा संगठन (BJP organization) ने मतदान केंद्रों (polling booths) तक अधिक से अधिक मतदाताओं को लाने और रिकॉर्ड वोटिंग कराने के लिए कई कार्यक्रमों का ऐलान कर दिया। लेकिन अगली कड़ी में ‘हथकड़ी’ लिए हुए जो प्रभावी हाथ आगे आए, उन्होंने सब चौपट कर दिया। उन्होंने कार्यकर्ताओं के हाथ बांधने के अलावा और कुछ नहीं किया। BJP में यह एक तरह से चुनाव की पूरी प्रक्रिया को ठेके पर दे देने जैसा मामला रहा। विधायकों और सांसदों (MLAs and MPs) के आगे संगठन ने कार्यकर्ताओं की पसंद नापसंद सबको नेपथ्य में धकेल दिया। हर जिले या शहर में कुछ ‘ठेकेदारों’ ने अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्र की पूरी व्यवस्था को हाईजैक कर लिया। भाजपा में ठेका प्रथा के ये प्रतीक इतने शक्तिशाली हो गए कि इनके क्षेत्र में उनकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता। विधायक अपने क्षेत्र में पार्टी के पदाधिकारियों या दूसरे नेताओं को अपनी मर्जी के बिना घुसने नहीं देता। नतीजा यह कि जब बुधवार को नगरीय निकाय चुनाव (urban body elections) का मतदान पूरा हुआ तो सभी यह देखकर सनाका खा गए कि हजारों लोग वोट नहीं कर पाए, मतदाता सूचियों में गड़बड़ थी, चुनाव आयोग के भरोसे पार्टी ने मतदाताओं को पर्चियां पहुंचाने की चिंता तक नहीं की। जाहिर सी बात है कि भाजपा ने बूथ पर जिन्हें त्रिदेव का संबोधन दिया, वे अपनी जेब से तो मतदाता पर्ची छपवाने से रहे। वोटिंग परसेंटेज कम हुआ या पहले भी ऐसा हुआ और भाजपा जीती भी या हारी, यहां इस तर्क का कोई मतलब नहीं है। बात यह है कि जितना शोर किया गया था, नतीजा वैसा नहीं निकला। जीतने को तो चुनाव शायद BJP अब भी जीत जाएगी, लेकिन जिस तरह की तैयारी का शोर था, वो हवा हवाई निकली। अकेले भोपाल (Bhopal) में ही डेढ़ लाख लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब थे, प्रदेश भर में तो यह संख्या बहुत बड़ी है।
यहीं से फीकी जलेबी वाली स्थिति बनती है। भाजपा के जिन जनप्रतिनिधियों या अपने-अपने क्षेत्र के रसूखदार लोगों ने संगठन तथा पार्टी की परंपराओं को दरकिनार करते हुए चुनाव का संचालन किया, मूल रूप से वही कम मतदान के सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं। जनसंघ के जमाने से लेकर भाजपा तक यह परिपाटी रही है कि घर-घर मतदाता पर्ची के वितरण का काम पार्टी अपने कार्यकर्ताओं से करवाती रही है। चुनाव आयोग (election Commission) के BLO तो अब पांच सात साल से मतदाता पर्ची पहुंचा रहे हैं लेकिन इस दौरान हुए चुनावों में भाजपा ने कभी इससे किनारा नहीं किया। इस बहाने पार्टी कार्यकर्ताओं का घर घर संपर्क तो होता ही था। कांग्रेस में तो बरसों हो गए, वहां संगठन नाम का है बाकी तो उम्मीदवार खुद ही चुनाव लड़ता है, लिहाजा, वहां मतदाता पर्ची का काम लंबे समय से ठेके पर ही है। लिखना, बांटना सब काम पैसे से। लेकिन भाजपा में तो कैडर है, देवतुल्य कार्यकर्ता है। लेकिन अब लगता है कि करीब दो दशक की सत्ता ने भाजपा को भी कांग्रेस की राह पर आगे बढ़ा दिया है।
पहले भाजपा बाकायदा मतदाता सूची की तैयारी से लेकर आपत्ति, नाम जुड़वाना, कटवाना तक में बराबर कार्यकर्तााओं को झोंक कर रखती थी। इसकी जिम्मेदारी तय करती थी। पर्ची खुद संगठन उन्हें बकायदा वोटर्स लिस्ट (voters list) के साथ मुहैया कराता था। लिखने से लेकर बांटने तक का सब काम कार्यकर्ता खुद कर लेता था। लेकिन इस बार ऐसा लगभग हुआ ही नहीं। ठेकेदारों ने अपने आदमकद चित्रों से सजे भारी मतदान वाली जलेबी के बड़े-बड़े स्टॉल खोल दिए। उन पर हजारों बूथ विस्तारकों सहित कार्यकर्ताओं को तैनात कर दिया। लेकिन मतदान के मीठेपन को सुनिश्चित करने वाली मतदाता सूची (voter’s list) और पर्ची की तरफ किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। नतीजा यह कि ठेकेदारों के बोझ तले पार्टी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम ‘पन्ना प्रमुख’, ‘बूथ विस्तार योजना’ और ‘मेरा बूथ-सबसे मजबूत’ जैसे स्टॉल ‘ऊंची दुकान, फीके पकवान’ वाले फ्लॉप शो में तब्दील होकर रह गए।
यदि बूथ विस्तारक को पर्ची ही नहीं दी जाएगी, तो वह अपने स्तर पर हाथ पर हाथ धरकर बैठने की बजाय और क्या कर लेगा? यही स्थिति कार्यकर्ताओं की भी कर दी गयी थी। ये ठेकेदार यदि अब आरोप लगा रहे हैं कि बीएलओ ने पर्ची बांटने में गड़बड़ी की, तो वे इस बात का जवाब क्यों नहीं दे रहे कि पर्ची बांटने की समानांतर व्यवस्था को क्यों ध्वस्त हो जाने दिया गया? यह भाजपा के इतिहास का शायद पहला ऐसा चुनाव रहा, जिसमें संगठन का कोई अस्तित्व कमोबेश नजर ही नहीं आया। तो यह भी देखना होगा कि इस अराजकता वाली स्थिति का जिम्मेदार कौन है? पार्टी का आम कार्यकर्ता, सत्ता के भागीदार जनप्रतिनिधि या संगठन में जिम्मेदारी संभाल रहे नेता-पदाधिकारी।
किसी न किसी स्तर पर तो पूरे कुएं में भांग घोलने वाली ‘हरकत’ की गयी है। वरना क्या यह संभव था कि चुनाव से पहले ही मतदाता सूची से डेढ़ लाख नाम कटने की बात सामने आने के बाद ही सब सोये पड़े रहें? हां, भाजपा के एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्य निर्वाचन आयोग में इसकी शिकायत की थी, लेकिन फिर क्यों नहीं इसका फॉलोअप किया गया? फिर भी ऐसा कैसे हो गया कि आयोग को इतनी बड़ी गलती सुधारने के लिए चेताया नहीं जा सका? और आयोग तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने जैसा आचरण कर ही रहा है। आयोग का कहना है कि मतदाताओं को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि उनका नाम सूची में है या नहीं। वही जलेबी के लिए शकर की चिंता खुद करने जैसी बात। यदि ऐसा ही है तो फिर क्या जरूरत रह जाती है कि आयोग करोड़ों रुपये के लुभावने विज्ञापन जारी कर अधिक से अधिक मतदान का आग्रह करे? क्योंकि इस चुनाव में तो आयोग का काम ऐसा दिखा, जैसे कि वह खुद ही कम मतदान करवाना चाह रहा हो।
सीधी सी बात है कि शासन के स्तर पर राज्य निर्वाचन आयोग और भाजपा संगठन के तौर पर ‘ठेकेदार’ बुधवार को मतदान में अराजक स्थिति के लिए सीधे दोषी हैं। बगैर शकर वाली इस जलेबी की भूलभुलैया में सरकार और भाजपा संगठन की शक्ति कहां जाकर छिप गयी? क्या इसका जवाब मिल सकेगा? मिल तो सकता है यदि वाकई भाजपा नेतृत्व आईना देखना चाहे तो अपने आम कार्यकर्ता से बात भर कर लें।