कांग्रेस (Congress) ने किसी समय दूरदर्शन (Doordarhan) के लोगो से ‘सत्यम, शिवम्, सुंदरम’ (‘Satyam Shivam Sundaram’) को बदलकर ‘सत्यम, प्रियम, सुंदरम’ (‘Satyam, Priyam, Sundaram’) कर दिया था। अब उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) में इस पार्टी की प्रियम यानी प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) जिस तरह से कांग्रेस के हालात को सुंदरम बनाने की कोशिश कर रही हैं, वह कई तरीके से रोचक बन पड़ा है। प्रियंका वाड्रा ने घोषणा की है कि कांग्रेस उत्तरप्रदेश में 40 फीसदी यानी 162 सीटों पर महिला प्रत्याशी (Women candidates for 162 seats) उतारेगी। इस आत्मविश्वास की दाद देना होगी। क्योंकि इस राज्य के बीते विधानसभा चुनाव (Assembly elections) में कांग्रेस ने 403 में से केवल 105 सीटों पर प्रत्याशी उतारने की हिम्मत दिखाई थी। इनमें से भी 98 प्रत्याशी हार गए थे। समाजवादी पार्टी (SP) से हाथ मिलाने के फेर में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के इस निर्णय के चलते पार्टी के हाथ से 28 में से वह 21 सीट भी फिसल गयीं, जो उसने 2012 के चुनाव में अपनी दम पर जीती थीं।
यूं देखा जाए तो प्रियंका वाड्रा ने धमाकेदार शुरूआत की है। महिलाओं को टिकट। उन्हें दोपहियां वाहन (two wheeler)। उनके कल्याण की तमाम योजनाएं। लेकिन एक सवाल यह उठता है कि जिस दल को इस राज्य में जीतने के लायक सौ उम्मीदवार भी नहीं मिल पाते हैं, वह दल किस तरह 162 ऐसी महिलाओं को खोज निकालेगा, जो उसकी जीत सुनिश्चित कर दें? चलिए देर से ही सही, कांग्रेस को महिलाओं की शक्ति पर विश्वास हो गया। मध्यप्रदेश में जो काम दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) दस साल में नहीं कर सके, उसे शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) की सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से अब तक के 17 साल के कार्यकाल में कर दिखाया। यह किसी भी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता कि शिवराज ने मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में महिलाओं के लिए जो योजनाएं तथा कार्यक्रम संचालित किये हैं, वह और कोई इससे पहले इतनी मात्रा में नहीं कर सका। इधर, कांग्रेस (Congress) की हालत यह रही कि पंद्रह साल की एंटी इंकम्बेंसी (anti incumbency) के बाद भी वह सरकार बनाने लायक सीटें अपनी दम पर हासिल नहीं कर सकी थी। देश के अधिकांश राज्यों में कांग्रेस की यही स्थिति है। फिर उत्तरप्रदेश में तो उसके पास खोने के लिए कुछ ख़ास नहीं बचा है। तो प्रियंका वाड्रा ने यह महिला दांव जिस भी रणनीति के तहत खेला है, उसे तर्कसंगत रूप से समझना या समझाना कम से कम आज की तारीख में तो असंभव ही दिखता है।
फिर भी एक फैक्टर तो कायम है। उत्तरप्रदेश में बीते विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिलाओं (muslim women) को तीन तलाक की कुप्रथा से मुक्ति दिलाने की बात कह दी थी। माना जाता है कि इस कदम के बाद मुस्लिमों की भारी आबादी वाले इस राज्य में इस वर्ग की महिलाओं ने भाजपा के पक्ष में थोकबंद मतदान (bulk voting) किया था। इसलिए संभव है कि प्रियंका वाड्रा ने भी महिला मतों को आकृष्ट करने के लिए उन्हें चालीस फीसदी टिकट देने का फार्मूला तय किया हो। लेकिन यदि ऐसा होता है, तब भी कांग्रेस के वोट प्रतिशत में होने वाला इजाफा भाजपा (BJP) का ही फायदा करेगा। उलटे यह होगा कि यहां जो समाजवादी पार्टी (SP) या बहुजन समाज पार्टी (BSP) आज भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में दिख रही हैं, कांग्रेस उनके ही वोट काट ले। क्योंकि भाजपा का वोटर कमिटेड की शक्ल में एकजुट हो जाता है। आप देखेंगे कि पेट्रोल और डीजल सहित खाने-पीने की चीजों के दाम में बेतहाशा वृद्धि के बाद भी कम से कम वह वोटर बड़ी संख्या में नाराज नहीं दिख रहा, जो नरेंद्र मोदी के चलते भाजपा को पसंद करता है। फिर उत्तरप्रदेश में महिलाओं के विकास से अधिक कानून-व्यवस्था (Law and order) और विकास का मुद्दा हावी है। चुनावों को जातिगत गणित सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। लखीमपुर खीरी या कुछ अन्य जघन्य घटनाओं के बाद भी एक के बाद एक बदमाशों के एनकाउंटर (gangsters encounter) तथा दंगों की संख्या में अद्भुत कमी से योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) इस फ्रंट पर जनता का विश्वास जीत चुके नजर आते हैं। जहां तक जातिगत गणित की बात है तो यह साफ़ है कि किसी समय यहां कांग्रेस को आंख मूंदकर वोट करने वाले दलित, पिछड़े तथा मुस्लिम अब सपा तथा बसपा में आस्था रखने लगे हैं। ऐसे में यदि प्रियंका वाड्रा की यह महिला सेना इन तीन वर्गों के वोट को इस पार्टी की तरफ ले आएगी, तो यह भाजपा के फायदे का ही काम साबित होना तय है।
कांग्रेस के उन पुरुष नेताओं की धड़कनें बढ़ गयी होंगी, जो आगामी विधानसभा चुनाव में लड़ने के लिए लंबे समय से प्रयासरत हैं। वे यह सोचकर परेशान होंगे कि कहीं उनकी सीट पर नारी उद्घोष वाली स्थिति न बन जाए। यह स्थिति बगावती सुरों को जन्म दे सकती है। ऐसे में एक ही सूरत बचेगी। जो नेता नाराज हो, उसे उस सीट के लिए महिला प्रत्याशी का नाम सुझाने की स्वतंत्रता दे दी जाए। यदि ऐसा होता है तो फिर किस तरह से श्रीमती वाड्रा का यह फार्मूला सफल हो पाएगा। क्योंकि तब तो बात घुटनों के पेट की तरफ ही मुड़ने वाली हो जाएगी। वही लोग प्रत्याशी चयन में हावी हो जाएंगे, जो इस राज्य में पार्टी पर हावी होकर उसकी दुर्गति के प्रमुख कारणों में गिने जाते हैं।
अब सत्यम, प्रियम सुंदरम’ वाली इस जुगत में प्रियम यानी प्रियंका द्वारा पार्टी को दिखाए जा रहे ‘सुंदरम’ का ‘सत्य’ कैसा होगा, यह चुनाव के नतीजों के बाद ही पता चल सकेगा।