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बेकाबू देश के हालात, बेबस मोदी सरकार

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स्कूल के दिनों में यह हर कक्षा में अघोषित नियम (Undeclared rule) के रूप में देखा था। एक न एक सहपाठी साल भर बहुउपयोगी बना रहता था। मास्टरों को गुस्सा (Masters angry) उतारना होता तो वह उपलब्ध रहता। वजह यह कि रोजाना वह कोई न कोई ऐसा काण्ड करता ही था कि उस से गुस्सा हुआ जा सके। यार-दोस्तों को किसी की खिंचाई करने का मन हो तो वही लड़का उनका सबसे उपयुक्त साधन साबित होता था। यहां तक कि स्कूल के चपरासी को भी और कोई न मिले तो उस लड़के पर ही रौब गांठकर वह अपने चपरासी होने की हीनभावना (inferiority complex) से कुछ देर के लिए निजात पा लेता था।

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में केंद्र सरकार (central government) आजकल कोई ऐसा दिन बमुश्किल बीत रहा है जब नियम से डांट खाती ना दिखाई दे रही हो क्योंकि वह खुद ही हर फटकार के लिए मसाला तैयार किए दे रही है। तमाम विपक्षी दल (opposition party) नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) तथा उनके मंत्रियों की खिंचाई करने के सुनहरे मौके को जमकर भुना रहे हैं। ऐसा करना निश्चित रूप से उनकी राजनीति का हिस्सा (Part of politics) है, किन्तु इस सियासत के ईंधन का प्रबंध भी तो खुद मोदी सरकार ने ही कर दिया है। लोकतंत्र में अलग-अलग तत्वों का अलग-अलग समय पर ही महत्व दिखता है। मतदाता (Voter) केवल चुनाव के समय ‘देश का भाग्यविधाता’ और ‘प्रजातंत्र का प्रहरी’ कहकर गौरवान्वित किया जाता है। एक बार चुनाव संपन्न हुआ तो उसी वोटर की हैसियत किसी चपरासी (Peon) से ज्यादा नहीं रह जाती है। तो यही चपरासी भी मौजूदा परिस्थितियों के लिए केंद्र सरकार को नियम से गरियाकर अपने भीतर उमड़ रहे गुस्से को कुछ कम करने की कोशिश कर ले रहा है।





ये सारे गुस्से या विरोध पूरी तरह जायज हैं। कोरोना (Corona) फिर चरम पर है। लेकिन मोदी सरकार उससे निपटने में नाकाम साबित हुई है। और फिर टीकाकारण अभियान (Vaccination campaign) तो ऐसा असफल होता जा रहा है कि इस वायरस से लड़ने की सारी उम्मीदें ही फीकी पड़ने लगी हैं। मध्यप्रदेश (Madhya pradesh) की ही बात करें। वैक्सीन का अता-पता ही नहीं है। सरकारी केंद्रों (Government centers) पर इसकी राशनिंग (Rationing) करना पड़ रही है। लोग पैसे देकर वैक्सीन (vaccine) लगवाने को तैयार हैं, मगर जेब की यह हरियाली भी उनके लिए सेहत की खुशहाली का पैगाम नहीं ला पा रही है। प्राइवेट संस्थानों (Private institutions) के पास भी वैक्सीन नहीं मिल रही है। वजह यह कि इस टीके की खुराक का जबरदस्त रूप से टोटा हो गया है। तो फिर उन जयकारों के पीछे का सच क्या है, जिनमें देश में वैक्सीन की बम्पर उपलब्धता, विदेशों की मदद के लिए उठाये गए भामाशाह शैली (Bhamashah Style) के कदम या किसी समय के दूध-घी की नदी वाले देश का वर्तमान इस वैक्सीन की नदी बहने के सदृश दिखाया जा रहा है। यदि इस टीके की इतनी प्रचुर मात्रा देश में मौजूद है तो फिर उसकी कमी से हाहाकार मचने वाले हालात क्यों बन गए हैं? क्यों देश टीकाकरण में पिछड़ता जा रहा है।

 

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दरअसल यदि आप को हर कदम पर खुद को किसी अवतार पुरुष के तौर पर प्रदर्शित करने का नशा हो जाए तो फिर ऐसा ही होता है, जैसा फिलहाल नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) के साथ और उनके चलते बाकी देश के साथ हो रहा है। कोरोना की पहली लहर का असर कम होते ही मोदी के भीतर का दानवीर कर्ण (Danveer karna) जाग उठा। वो पिल पड़े खुद को मसीहा साबित करने में। वेक्सीन सहित कोरोना से जुड़े बाकी साजोसामान से अन्य देशों को उपकृत करने का उन पर जैसे जूनून सवार हो गया था। जबकि देश में दूसरी लहर की आशंका सभी स्तर पर जताई जा रही थी।

आशंका सही साबित हुई और जब कोरोना के रूप में देश भर में मौत नाचने लगी तो उससे निपटने के जरूरी साधनों का अभाव देश झेल रहा है। कोढ़ में खाज इस बात का भी कि मोदी सरकार दवाओं और वैक्सीन की जमाखोरी (Hoarding) तथा कालाबाजारी (Black marketing) पर भी पूरी तरह से रोक नहीं लगा पा रही है। अब यही सब वजह है कि अदालत केन्द्र को बुरी तरह लताड़ लगा रही है। विपक्ष को तो जैसे इस शासन के विरुद्ध मोर्चा खोलने के लिए अनगिनत संसाधन मिल गए हैं। आम जनता भी मोदी-विरोधियों (Anti-Modi) से सुर में सुर मिलाकर मौजूदा हालात के लिए व्यवस्था को कोस रही है। कुल मिलाकर हालात बेकाबू हैं और उनके आगे मोदी सरकार की बेबसी बेहद शोचनीय हालात की पुष्टि कर रहे हैं।

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