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बदला चाहने वाले जानते हैं… मोदी हैं तो मुमकिन है….

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प्रकाश भटनागर।

बात भोपाल गैस कांड के समय की है। ‘मरने वालों के साथ सब नहीं मर जाते।’ हद दर्जे के पत्थर दिल अंदाज में यह टिप्पणी हजारों लोगों की असमय मौत को लेकर की गई थी। कंट्रास्ट यह कि जिसने ऐसा कहा, वो साहित्यकार हैं और इस वर्ग के लोगों को आमतौर पर बेहद भावुक माना जाता है।

वो ‘दीवाने-खास’ वाली शैली के साहित्यकार थे। पद से रसूखदार और कद से तत्कालीन सत्ता के घनघोर वफादार। इसलिए गैस त्रासदी से बिलख रहे भोपाल में इस घटना के आसपास ही उन्होंने विश्व कविता सम्मेलन जैसा भव्य ‘सेलिब्रेशन’ कर दिखाया था। जब किसी ने इतनी अफसोसजनक घड़ी में ऐसा आयोजन करने पर उनसे सवाल पूछा तो जो जवाब आया, वो यही था कि….. सब नहीं मर जाते।

वो तो अब भी मरे नहीं हैं। लेकिन उनका वह रसूख अब मर चुका है। राज्याश्रय देने वाले भी नहीं रहे। वरना उनकी फितरत देखकर मुझे पूरा यकीन है कि वो कुछ कर सकते तो आज पहलगाम को लेकर भी वैसा ही कुछ कहने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। उन जैसे हिन्दुस्तान में और भी बहुत हैं।

मगर एक बात तय है, वो ये कि अबकी बार किसी का ऐसा कहा हिन्दुस्तानी खून का घूंट पीकर चुपचाप नहीं सुनेंगे। ऐसे लोगों के खिलाफ प्रतिक्रियाओं का वो सैलाब उठता कि वो खुद भी कांप उठते।

इस उदाहरण का आरंभ एकदम सत्य है। उदाहरण यह बताने की गरज से दिया कि पहलगाम नरसंहार के खिलाफ उठी आवाजें इस देश में पहली बार मुखर होकर उभर रहे गुस्से का प्रतीक हैं। जनसामान्य में जो रोष दिख रहा है, वो ‘पानी सिर के ऊपर जाने’ से भी अधिक वाला मामला है।

अब तो आंखों से लहू बहने वाले गुस्से की स्थिति है। ‘आंख के बदले आंख’ वाली मांग की ऐसी सामूहिक प्रतिक्रिया इससे पहले कभी भी नहीं देखी गई। जो आततायी यह सोचकर आत्ममुग्ध थे कि ‘धर्म बताओ’ वाले खूनी जिहाद के बाद वो इस देश के बहुसंख्यकों को खौफ से भर देंगे, वो अब यह देखकर खुद भी सिहर उठे होंगे कि बहुसंख्यक एक सुर में एक ही बात कह रहा है, ‘छोड़ो मत। न उन्हें। न उनके समर्थकों को। न ही उनके आकाओं को। फिर भले ही इसके लिए एक पूरे देश को खत्म ही क्यों न कर देना पड़े, हमें खून का बदला खून चाहिए।’

और प्रतिक्रियाओं का यह ज्वार इसलिए उठ रहा है कि पहलगाम से आहत देश को इस बात का पूरा भरोसा है कि आज के सत्तासीन लोग और राजनीतिक दल ही उनकी इस इच्छा को पूरा करने का दम और जज्बा रखता है।

यही वह नरेंद्र मोदी की सरकार है, जिसने चीन से लेकर पाकिस्तान जैसे दुश्मनों के जिस्म में लोहा उतारने का काम किया, उन्हें घर में घुसकर मारा। साल 1947 के कबायली हमले और 1962 के चीन के धोखे वाले कलंक से देश को मुक्ति दिलाई।

यही वह शासन है, जिसके साहस के चलते आज देश ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ वाली वैचारिक नपुंसकता से उबर कर ‘वो कश्मीर हमारा है’ वाली इच्छा भी खुलकर जाहिर कर रहा है। तो यह तय है कि मोदी चुप नहीं बैठेंगे। यदि सिंधु नदी के पानी को लेकर पहली सख्ती की गई है तो मामला पाकिस्तान का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुक्का-पानी बंद करने तक भी जा सकता है।

मोदी के पास सर्जिकल स्ट्राइक का तजुर्बा और हुनर तो है ही, लेकिन इस बार जिस तरह देश पूरी उम्मीदों के साथ उनके पीछे आ खड़ा हुआ है, उसे देखते हुए उनसे यह स्ट्राइक कुछ ऐसी सर्जरी करने की भी उम्मीद है, जो देश के खिलाफ आतंकवाद पैदा करने वालों की नसबंदी कर देने वाला मामला साबित हो जाना चाहिए।

नब्बे के दशक के हिन्दुस्तान और आज के हिन्दुस्तान का फर्क साफ दिख रहा है। विभाजन की त्रासदी से उभरी कटुता को तत्कालीन सत्ताधीशों ने इतिहास से लेकर फिल्मों की पटकथा तक पूरा बदल दिया था। लोगों को अपने को हिन्दू कहने में भी शर्मिदंगी होती थी। खदु को हिन्दू कहा तो साम्प्रदायिक और मुसलमान तो ईमान का पक्का था ही। लेकिन नब्बे का दशक खत्म होते जो हवा बदली तो वो फिर, गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं से आगे बढ़कर अब अपने खून का बदला मांगने पर उतारू है।

ये बदलाव इसलिए है कि अब पन्द्रहवें साल तक के लिए केन्द्र की सत्ता पर जो लोग काबिज हैं उन्हें इस धर्मनिरपेक्ष देश की बहुसंख्यक जनता ने चुना है। अल्पसंख्यकों के एक तबके में शामिल मुसलमान तो इस सरकार को अपना मानते नहीं और ना ही वोट देते हैं। इसलिए देश की हवा तेजी से बदल रही है। उग्र विचारों के सोशल मीडिया पर प्रस्फुटन से लेकर फिल्मों की पटकथा तक। ‘द केरला स्टोरी’ से लेकर ‘कश्मीर फाईल्स’ तक सब परदे पर आ रहा है।

इतिहास के नए किस्से कहानी और बहस सामने आ रही हैं। यह सब इसलिए क्योंकि 2014 ने इस देश को विश्वास दिला दिया कि दिल्ली की सरकार को पूरा बहुमत तो देश का बहुसंख्यक मतदाता भी दिला सकता है। इसलिए देश का विपक्ष अब जातिगत जनगणना और संविधान बचाने की आड़ में बहुसंख्यकों को विभाजित करने की रणनीति पर काम कर रहा है।

योगी जब ‘बंटोंगे तो कटोग’ का नारा बुलंद करते हैं तो पहलगाम जैसे हिन्दुओं पर हमले मान कर चलिए मोदी, योगी और भाजपा को मजबूत ही करेंगे। हिंदुओं को उस आसन्न संकट का ज्ञान हो रहा है कि इतिहास के जिस मोड़ पर वह खड़े हैं, वहां केवल उन्हें अपना संगठन, अपनी राजनीतिक शक्ति और  एकजुटता ही बचा सकती है। हिंदू संस्कृति के अस्तित्व और बहुसंख्यकों के ताकत के उभार को दर्शाने  के लिए यह जरूरी भी है। शायद इसीलिए तमाम कमियों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी हिंदुओं के लिए मजबूरी भी बनती जा रही है।

देखिए कि किस तरह देश की इस अभूतपूर्व सामूहिक प्रक्रिया ने और भी बड़े असर दिखाए हैं।

बहुसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार पर चूं भी न करने वाले कई सियासी दल भी पहलगाम को लेकर मजबूरी में ही सही, लेकिन विरोध जता रहे हैं। चार दिन पहले तक जो लोग आतंकवादी तहव्वुर राणा की गिरफ्तारी के भारतीय गौरव को कमजोर करने के लिए पिले पड़े थे, वो आज पहलगाम को लेकर केंद्र सरकार के साथ चर्चा करने के लिए उतावले हो उठे हैं। कश्मीर के जो क्षेत्रीय क्षत्रप अनुच्छेद 370 हटने की सूरत में वहां अनाचार फैल जाने की धमकीनुमा चेतावनी देते थे, वो भी आज इस नरसंहार के बाद देश से हाथ जोड़कर माफी मांग रहे हैं।

ये भांप रहे हैं कि देश का मूड क्या है और उस मूड को निर्णायक मोड़ देकर भाजपा अपनी जड़ें और कितना गहरा करने की क्षमता से लैस हो चुकी है। एक बात काफी हद तक साफ थी। वो यह कि मुसलमान भाजपा के साथ नहीं हैं। अब एक बात पूरी तरफ साफ है कि मुसलमान भाजपा से जितना दूर हैं, पहलगाम ने बहुसंख्यकों को भाजपा के उतना ही अधिक और नजदीक ला खड़ा कर दिया है।

इनमें वह गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक भी शामिल हैं, जो देश की आज वाली आवाज को पूरी ताकत के साथ समर्थन दे रहे हैं। जो माहौल है, उसे लेकर भाजपा आगे चली तो तय मानिए कि उसके विरोधी राजनीतिक दल कम से कम डेढ़ दशक पीछे धकेल दिए जाएंगे।

क्योंकि ये साल 2014 के बाद वाला वह भारत है, जिसमें ‘मरने वालों के साथ सभी नहीं मर जाते’ जैसी बंधियाकरण ग्रस्त मानसिकता की कोई जगह नहीं है। बहुसंख्यक एकता की ताजा और अद्वितीय अभिव्यक्ति ने तुष्टिकरण की सियासत करने वालों के हलक में जो संखिया (जहरीला पत्थर)  रख दिया है, उसे उगलकर उसके असर से मुक्त होने में अब उन्हें बहुत लंबा समय लगना तय है।

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