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राजनीति की हथेली पर छर्रे का यह खेल

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बिहार (Bihar) में फिर राजनीतिक बदलाव की बयार किसी आंधी में परिवर्तित हो चुकी है। इस राज्य में गंगा का विस्तार इतना अधिक है कि इस नदी में जहाज भी चलते हैं। इसी गंगा के तट पर बसे पटना में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) एक बार फिर जहाज का पंछी साबित हो गए। नीतीश के नेतृत्व वाली जनता दल यूनाइटेड (JDU) ने आज भारतीय जनता पार्टी (BJP) से नाता तोड़ लिया। अब नीतीश का दल अपने दो पुराने सहयोगियों लालू यादव (Lalu Yadav) के राष्ट्रीय जनता दल (RJD) तथा सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की कांग्रेस (Congress) से मिलकर सरकार बनाने जा रहा है।

नीतीश कुमार देश की राजनीति में वह कैप्सूल (capsules) साबित हुए हैं, जिससे पहले कभी बचपन में खेला जाता था। उस कैप्सूल के भीतर एक छर्रा रहता था। कैप्सूल हथेली पर रखते ही छर्रा अपनी फ़ितरत के अनुसार इधर से उधर लुढ़कता और नजर यह आता था कि निर्जीव कैप्सूल लुढ़क रहा है। मैंने थाली में बैंगन को लुढ़कते नहीं देखा है, इसलिए यहां छर्रे वाले उदाहरण दिया है। यह स्पष्ट कर दूं कि ‘कैप्सूल’ या ‘छर्रा’ का प्रयोग यहां केवल प्रतीकात्मक है। किसी व्यक्ति या दल से इसका कोई संबंध नहीं है। बहरहाल, यह छर्रा नीतीश के कहीं भीतर छुपा हुआ लगातार इधर से उधर होता रहता है। कुमार की खूबी यह कि वह इस हलचल को समय आने पर अगला समय आने तक के लिए थाम भी लेते हैं।

2013 तक नीतीश राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के साथ स्थिर थे। उस समय तक काफी सधी हुई चाल से उन्होंने दो काम कर लिए थे। अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल करना था और स्वयं की स्वच्छ छवि बनाना। ये छवि ही वह फैक्टर थी, जिसने नीतीश को मुख्यमंत्री के तौर पर ‘सुशासन बाबू’ वाली मजबूती प्रदान की। लेकिन 2013 में ज्यों ही भाजपा ने नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को आगे किया, नीतीश आग-बबूला हो गए। ऐसा होना इसलिए स्वाभाविक था कि कुमार को गुजरात दंगे के चलते मोदी का समर्थन कर अपने अल्पसंख्यक जनाधार को खोने का डर था। यह गुस्सा इसलिए भी स्वाभाविक था कि मोदी के नाम की घोषणा से नीतीश के सियासी एजेंडे में दरारे आने लग गयी थीं। नीतीश स्वयं को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे धकेल रहे थे और मोदी में उस समय वह जादू था कि नीतीश एक झटके में इस पथ पर नेपथ्य की सीमा तक पीछे हो गए। यह सभी को पता है कि कैसे बाद में छर्रे का रुख राष्ट्रीय जनता दल (RJD), कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (SP) की तरफ हुआ। फिर जब परिस्थितियों ने अंगड़ाई ली तो छर्रा भी अपनी नींद तोड़कर एक बार फिर एनडीए की तरफ आ गया।

अब नीतीश ने एक बार फिर इस्तीफ़ा देकर फिर लालू यादव के कुनबे से नाता जोड़ लिया है। तेजस्वी यादव के दिन फिर गए हैं और भाजपा के लिए एक बार फिर विपक्ष में बैठने के दिन आ गए हैं। लेकिन क्या नीतीश ने यह सब केवल CM बने रहने के लिए किया है? नहीं। बल्कि हुआ यह है कि आज का घटनाक्रम BJP के कट्टर विरोधी राजनीतिक दलों के लिए भी किसी सदमे से कम नहीं है। आज से एक बार फिर भाजपा (विशेषतः नरेंद्र मोदी) के विरोधी नेताओं की फेहरिस्त में नीतीश कुमार सबसे आगे आ गए हैं। इस क्रम पर डटी ममता बनर्जी (Mamata Banerjee), शरद पवार (Sharad Pawar), राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और कुछ हद तक अरविन्द केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के पास नीतीश के पीछे खड़े रहने का ही विकल्प बचा है।

नीतीश ने यह कदम ऐसे समय उठाया है, जब महाराष्ट्र (Maharashtra) में महाअगाढ़ी गठबंधन की सरकार गिरने के बाद शरद पवार कमजोर दिखने लगे हैं। पश्चिम बंगाल (West Bengal) में भर्ती घोटाले ने ममता बनर्जी को काफी हद तक बैकफुट पर ला दिया है। आबकारी नीति के मामले में अरविन्द केजरीवाल सबूत मांगना छोड़कर अपनी बेगुनाही के सबूत तलाशने में पसीना बहा रहे हैं। उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) के जरिये राष्ट्रीय राजनीति को लक्ष्य कर रहे अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) एक बार फिर विधानसभा चुनाव में हार के बाद कुछ पस्त दिख रहे हैं। कुल जमा मामला यह कि नीतीश ने अपने कद और पद के हिसाब से समीकरण बनते देख ही यह कदम उठाया है। इस टाइमिंग का एक बड़ा तथ्य यह भी लालू यादव गंभीर रूप से बीमार हैं और उनके साथ-साथ ही राबड़ी देवी से लेकर तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) पहले की तरह नीतीश को नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं रह गए हैं।

हालांकि एक बार फिर साबित हो गया है कि नीतीश समय की नब्ज को पहचानने में माहिर हैं। लेकिन उनके सामने अभी बहुत चुनौतियां हैं। इस समय भाजपा-विरोधी दलों के बीच जो बिखराव है, क्या कुमार उसे एकजुट कर सकेंगे? उनका बिहार से बाहर कोई जनाधार नहीं है। यह तथ्य है कि आज भी केंद्रीय स्तर पर मोदी को चुनौती देने की ताकत कांग्रेस के पास ही है, लेकिन यह दल भी अनिश्चय तथा गलत निर्णयों के दलदल में धंसता जा रहा है। सवाल यह कि जब अखिल भारतीय स्तर पर नीतीश को कांग्रेस की आवश्यकता होगी, तब क्या यह दल उनके नेतृत्व को स्वीकार करेगा? नीतीश विपक्ष में सबसे आगे तो आ गए हैं, लेकिन क्या विपक्ष को इस स्थिति से आगे ले जाने की क्षमता उनके भीतर है? यह चुनौती उस समय और भी बड़ी हो जाती है, जब भाजपा-विरोधी गठबंधन में उन क्षेत्रीय दलों का बड़ा असर है, जिनका अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कारण से प्रभाव है। इस अलग-अलग को साथ-साथ वाली श्रेणी में लाना कुमार के लिए आसान नहीं होगा।

बिहार में अगला विधानसभा चुनाव वर्ष 2025 में है। तब तक गंगा में बहते जहाज़ों के नीचे से काफी पानी बह चुका होगा। लेकिन नीतीश की विशाल राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाली नाव के मस्तूल पर आज नए सिरे से ताने गए पाल वर्ष 2024 वाले आम चुनाव के महासागर की दिशा में साफ़ दिखते हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि अगला आम चुनाव मोदी बनाम नीतीश के रूप में और भी अधिक ख़ास हो जाए। ये दूर की कौड़ी है। छर्रे ने इस बार फिर लंबी अंगड़ाई ली है और वह कैप्सूल को दिल्ली तक धकेलने की कोशिश कर रहा है। राजनीति की हथेली पर चल रहा यह खेल कई पेशानियों पर परेशानियों की लकीर उभारने वाला है, फिर वह पेशानी भले ही मोदी की भी क्यों न हो।

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