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ये आक्रांता नहीं आक्रांत वाला मामला है 

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आक्रांता (attacker) और आक्रांत (Attacked) में मात्रा के लिहाज से बहुत महीन और अर्थ के नजरिये से काफी बड़ा अंतर होता है। आक्रांता हमलावर को कहते हैं और आक्रांत वह होता  है, जो हमले का शिकार हो। अमेरिका के अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स (The New York Times) की स्थिति भले ही हिंदुत्व (Hindutva) पर आक्रांता जैसी दिखे, लेकिन है वह आक्रांत ही। बेशक इस समाचार पत्र ने नरेंद्र मोदी सहित हिंदुत्व की बखिया उधेड़ने वाले पत्रकार की भारत में तलाश की है तो उसे हमले की तैयारी कहा जा सकता है, लेकिन मामला वैसा नहीं है, जैसा दिख रहा है। कम से कम मेरा तो यही मानना है।

न्यूयॉर्क टाइम्स बीते करीब पांच साल से एकांगी और एजेण्डामयी तरीके से दुनिया के सामने हमारे देश की तस्वीर पेश कर रहा है। अब उसे इस अभियान के लिए साउथ एशिया (South Asia) में ऐसा पत्रकार चाहिए, जो उसके इस मिशन को आगे बढ़ा सके. अखबार ने इसके लिए अपने विज्ञापन में जो कुछ लिखा है, वह सब ने पढ़ ही लिया होगा। इसलिए उसका दोहराव कोई जरूरी नहीं है। कुल जमा अर्थ यह कि इस समाचार पत्र ने भारत (India) के हालात को बुरा और उनके लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार बताने वाला पत्रकार तलाशा है। बेशक उसे बड़ी संख्या में इसके लिए सुपात्र मिल जाएंगे। उस भीड़ में जो गुजरात के दंगों (Riots of Gujarat) पर शोर मचाती है और गोधरा (Godhara) पर चुप्पी साध लेती है। जो दुनिया में देश की साख गिरने का कपोल कल्पित प्रोपेगंडा करती है और जिसे गलवान (Galwan) में पिटे चीन (China) तथा घर में घुसकर पीटे गए पाकिस्तान (Pakistan) की स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे सुयोग्य उम्मीदवार वह भी  हैं, जो देश की सेना को गरियाते हैं और उन पर पत्थर बरसाने वालों को दुलार करते हैं। जिन्हें आजादी के बाद वाले वर्षों में देश को दी गयी तमाम अकल्पनीय त्रासदियों से कोई लेना-देना नहीं है मगर उनकी जिद है कि सात साल के कार्यकाल में मोदी वह सब करें, जो छह दशक में सुनियोजित तरीके से बर्बाद किया गया है। अर्बन नक्सल(Urban Naxal), स्वयंभू किन्तु छद्म बुद्धिजीवी(Pseudo Secular), पाकिस्तान परस्त राजनेता आदि इस देश में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।

दुनिया के इतिहास में किसी ऐसे विज्ञापन का कहीं और जिक्र नहीं मिलता है। इसके बाद तो यही कसर बचती है कि आईएसआईएस (ISIS) और तालिबान (Taliban) आदि संगठन भी अपने-अपने यहां ‘एजेंडा अगेंस्ट इंडिया’ (Agenda against India) को सफल रूप प्रदान करने के लिए भर्ती के विज्ञापन निकाल दें। ये एक कल्पना मात्र है, किन्तु तय मानिये कि यदि ऐसा कोई इश्तेहार आ गया तो उसके जवाब में भी हमारे बीच से ही काफी आवेदन सामने आ जाएंगे। यह अतिशयोक्ति है, लेकिन गलत नहीं। ऊपर बताये गए समूहों में ऐसे लोगो प्रचुर मात्रा में और भरपूर क्षमता के साथ पाए जाते हैं। बस पारखी नजर चाहिए, जो फिलहाल न्यूयॉर्क टाइम्स के कर्ता-धर्ताओं के पास दिख रही है।

अब आक्रांता और आक्रांत के बीच वाले फरक को समझिये। आप मानें या न मानें, लेकिन मोदी के अब तक के कार्यकाल में भारत ने कई उन दिशाओं में सफलता हासिल की है, जो अपने आप में अभूतपूर्व है। कबायली हमले में हमारी जमीन हड़प लेने वाला  पाकिस्तान अब सारी दुनिया से गुहार लगा रहा है कि उसे भारत से बचाया जाए। सन  1962 में धोखे से हमला करने वाला चीन गलवान में हुई दुर्गति के बाद अकबकाया हुआ बैठा है। महाशक्ति अमेरिका में बराक ओबामा से लेकर डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) और अब जो बिडेन (Jo Biden) ने भी भारत को अभूतपूर्व तवज्जो और इज्जत प्रदान की है। इजराइल  (Israel) में ‘मेरे प्रिय दोस्त नरेंद्र मोदी’ वाला नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu) का दौर भले ही ख़त्म हो गया हो, किन्तु उस देश से हमारे मोदी के समय में ही बने रिश्ते आज भी मजबूत हैं। यूनाइटेड नेशंस (United Nations) ने मोदी के प्रयासों से ही योग की भारतीय पद्धति को अंतर्राष्ट्रीय दिवस (International day for Yoga) का सम्मान प्रदान किया है। फ्रांस का राफेल (Rafale) विमान हो चाहे हो मेक इन इंडिया (Make in India) की अवधारणा, भारतीय सेना के साजो-सामान तथा ताकत और यहां तक कि मारक क्षमता में भी पहले के मुकाबले बहुत अधिक वृद्धि हुई है। कश्मीर में आतंकवादी थोकबंद तरीके से मारे जा रहे हैं। घुसपैठियों को बाहर निकालने की दिशा में भी ठोस तरीके से काम शुरू हुआ है। जो लोग गलत तरीके से हमारे देश में घुसकर हमारे ही लोगों के अधिकारों और संसाधनों पर कब्जा जमाये बैठे हैं, आजादी के बाद पहली बार उनके खिलाफ शिकंजा कसा  जा रहा है।

मैं जानता हूं कि मेरी इन बातों से असहमत लोग पेट्रोल की कीमतें, नोटबंदी और जीएसटी आदि मसलों पर अपने विरोध को धार देने में जुट गए होंगे। लेकिन कोई बात नहीं। जिन्हें हर हाल में ‘मोदी हाय-हाय’ ही खेलना है, उनके पास इन  विषयों के रूप में कुछ टूटे खिलौने रहने दिए जाने चाहिए।

इन लोगों की दरअसल समस्या यह कि आज का भारत तेजी से महाशक्ति बनता जा रहा है। अब यहां की गरीबी दिखाकर विदेशों से पैसा लेना मुश्किल हो गया है। काला धन जमा करना या टैक्स आदि में गड़बड़ी करना टेढ़ी खीर हो गया है। आतंकवाद का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर अपनी राजनीतिक दुकाने चलाना कठिन हो चुका है। ये तो हुई घरेलु किस्म की मोदी-जनित कुछ तकलीफें। विदेश के पेट में दर्द की बड़ी वजह यह कि भारत-विरोधी एजेंडों को पहले की तरह सफलतापूर्वक संचालित करने का काम अब आसान  नहीं रह गया है। ऐसे असंख्य कारण हैं, जो वर्ष 2014 के बाद से भारत के भीतर और बाहर रहकर इसके खिलाफ गतिविधियां संचालित करने वालों के गले की फांस बन गए हैं। इस सबसे आक्रांत होकर ही देश के भीतर एक और जयचंद या मीर जाफर की तलाश का विज्ञापन दिया गया है। यह किसी पेड़ को कटाने के लिए इस्तेमाल की गयी कुल्हाड़ी में किसी पेड़ की ही लकड़ी का हत्था लगाने जैसा काम है। ये देश के किसी एक कलंक को कलम थमाकर बन्दर के हाथ में  उस्तरा देने की कोशिश है। और ये इस बात का प्रतीक है कि भारत के नए स्वरूप ने इसके विरोधियों पर किस कदर आक्रामक असर किया है।

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