राजनीतिक विज्ञापन (political advertising) उसे प्रायोजित करने वाले के लिए किसी इन्वेस्टमेंट (investment) की तरह होते हैं। इसमें सबसे खास ध्यान इस बात का रखा जाता है कि संबंधित विज्ञापन में किन-किन को किस-किस तरह समायोजित किया जाना है। खासकर राजनीतिक विज्ञापनों में। किसका बड़ा चित्र लगेगा। किसे पासपोर्ट साइज में ही रखना है और किसका कद स्टाम्प साइज के फोटो बराबर ही जताया जाना है, इसका निर्धारण बड़ी सावधानी से किया जाता है। विज्ञापन में प्रदर्शित यह चित्र संबंधित नेता के राजनीतिक कद को दर्शाते हैं। आज ऐसे ही कुछ विज्ञापनों ने मेरा ध्यान खींचा। मध्यप्रदेश कांग्रेस (Madhya Pradesh Congress) एक मीडिया समूह (media group) के विशेष आयोजन पर इस तरह मेहरबान हुई कि उसके कई नेताओं ने समूह के प्रकाशन को दिल खोल कर विज्ञापन दे दिए। इन विज्ञापनों में एक बात साफ दिखी। वह यह कि कम से कम इन विज्ञापनों को देने वालों की दृष्टि में मध्यप्रदेश में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अंगुलियों पर गिने जाने जितने ही बचे हैं। कुल मिलकर ढाई नेता। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ (State Congress President Kamal Nath), पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह (Former Chief Minister Digvijay Singh) और अतिथि कलाकार के तौर पर एकाध जगह सुरेश पचौरी (Suresh Pachauri) भी इन विज्ञापनों में दिखे। बाकी इस दल में अधेड़ावस्था की दहलीज पर दस्तक दे रही पीढ़ी के नेता या तो गायब हैं या फिर वे नीचे की तरफ ‘लटके’ हुए दिखे। जैसी की परंपरा है, विज्ञापनों में सबसे ऊपर कमलनाथ और दिग्विजय को सोनिया गांधी (Sonia Gandhi), राहुल गांधी (Rahul Gandhi) आदि केंद्रीय स्तर के नेताओं के साथ विराजित किया गया है।
किसे कितना सम्मान देना है, यह सम्मान कर्ता के विवेक का विषय है। उसकी जरूरत के हिसाब से वह इसका निर्धारण करता है। इसलिए आज की चर्चा में किसी विज्ञापनदाता या उसके प्रायोजक की सोच पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। किन्तु यह प्रश्न तो सहज रूप से उठता ही है कि कांग्रेस की राज्य इकाई में ‘मेरा टेसू यहीं खड़ा’ वाली स्थिति आखिर क्यों बन गयी है? आज बीस साल से अधिक का समय बीत गया, यह दल घूम-फिर कर वही दिग्विजय या कमलनाथ के इर्द-गिर्द परिक्रमा कर रहा है। पीढ़ी बदल की कोई गुंजाईश ही नहीं दिख रही। जबकि प्रभावी नेताओं की कमी नहीं है। खुद एक विज्ञापन में नीचे की तरफ आसीन सज्जन सिंह वर्मा पार्टी में लंबी और सफल तथा संघर्ष वाली पारी खेल चुके हैं। अजय सिंह ‘राहुल’ भले ही विधानसभा के बाद लोकसभा के चुनाव में भी जनता द्वारा नकार दिए गए, किन्तु वह ऐसे नकारा भी नहीं हैं कि अब तक उन्हें पार्टी की पहली पंक्ति के दिग्गज नेताओं की फेहरिस्त में स्थान नहीं दिया जाए। कांतिलाल भूरिया (Kantilal Bhuria) वरिष्ठ हैं, किन्तु इस पार्टी में उनका इस्तेमाल केवल किसी आदिवासी चेहरे (tribal faces) के तौर पर ही हो रहा है। महत्व मिलने का समय आता है तो यकायक झाबुआ-रतलाम (Jhabua Ratlam) से भोपाल प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय (Bhopal Pradesh Congress Headquarters) की दूरी इतनी बढ़ जाती है कि भूरिया के लिए यह फासला तय करना ही नामुमकिन हो जाता है। तो भी ये वो चेहरे हैं जिन्हें लंबा समय लोगों को देखते हुए हो गया है। छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बन जाने के बाद तो लगता है कांगे्रेस में नेतृत्व को लेकर अकाल सी स्थिति है।
कांग्रेस में ऐसा हमेशा से नहीं था। अर्जुन सिंह को याद कीजिये। अपने शक्तिशाली रहने के दौर में दिवंगत सिंह ने यदि कई प्रतिद्वंद्वी पार्टीजनों को ठिकाने लगाया तो उनकी जगह नयी फौज भी खड़ी की। वह भी ताकतवर चेहरों के साथ। सिंह ने विंध्य की राजनीति के मार्ग से अपने कांटे बैरिस्टर गुलशेर अहमद (Barrister Gulsher Ahmed) को उखाड़ फेंका तो उनकी जगह अजीज कुरैशी (Aziz Qureshi) को प्रमोट किया। यानी एक वरिष्ठ अल्पसंख्यक नेता (minority leader) की कमी उन्होंने नहीं होने दी। स्वर्गीय बंसीलाल धृतलहरे (Late Bansilal Dhritalhare), झुमकलाल भेडिया (jhumklal wolf), सुभाष यादव (Subhash Yadav), इन्द्रजीत पटेल (Indrajit Patel), भगवान सिंह यादव (Bhagwan Singh Yadav), अजीत जोगी (Ajit jogi) और भी कई चेहरे हैं। युवाओं की एक पूरी विरोधी टीम को तोड़ कर अर्जुन सिंह ने अपने से जोड़ा था। पंकज संघवी, महेन्द्र सिंह चौहान, सुशील तिवारी, रमेश चौधरी, आजाद यादव और भी ढेर सारे ऐसे चेहरे जो कांग्रेस के भी विरोधी थे, वे बाद में न सिर्फ कांग्रेस के हुए बल्कि अर्जुन सिंह (Arjun Singh) की टीम के खास चेहरे बने। इन्हें स्थापित कर अर्जुन ने यदि अपना गुट मजबूत किया तो कांग्रेस को भी विभिन्न वर्गों के प्रभावी चेहरों से सुसज्जित किया। लेकिन दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद से लेकर आज तक तो यह प्रक्रिया जैसे किसी बीमार उद्योग के ठप पड़े उत्पादन जैसी हो गयी है। पीढ़ियों के बदलाव की कोई बयार ही इस दल में नहीं बह रही। खास बात यह कि राज्य से लेकर केंद्रीय राजनीति तक में इस पार्टी को यही जड़ता खाये जा रही है। परिवर्तन यदि प्रकृति का शाश्वत नियम है तो यही बात सियासी पक्ष पर भी पूरी ताकत से लागू होती है। जो दल चेहरे बदलने में चूके, वे फिर किसी दलदल में तब्दील होते चले जाते हैं। जैसा कांग्रेस के साथ पूरे देश में होता दिख रहा है।
भाजपा (BJP) को ही लीजिये। मध्यप्रदेश में यदि एक दौर कुशाभाऊ ठाकरे (Kushabhau Thackeray) की टीम ‘पटवा, लक्खी, सारंग’ वाला था तो इसी राज्य में अगला दौर शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) से लेकर उमा भारती (Uma Bharti) से लेकर वीडी शर्मा (vd sHARMA) तक आ गया है। इस श्रृंखला में और भी अनेक नाम उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किये जा सकते हैं। भाजपा ने संभावनाओं वाले चेहरों को मौका दिया। खुद को साबित करने की मोहलत दी। फिर जो सफल रहे, वो आज अग्रणी लोगों में शामिल हैं। चाहे वे केन्द्र सरकार (central government) में नरेन्द्रसिंह तोमर (Narendra Singh Tomar) हो या फिर संगठन में कैलाश विजयवर्गीय (Kailash Vijayvargiya)। एक लंबी पीढ़ी फिर आगे बढ़ने के लिए भाजपा ने निकाल दी है। यह केवल राज्य में नहीं भाजपा के केन्द्रीय संगठन में भी देखने को लगातार मिल रहा है। समयानुकूल बदलाव की इस प्रक्रिया ने ही भाजपा को वह मजबूती प्रदान की है, कि यह पार्टी आज देश में सबसे मजबूत संगठनात्मक ढांचे के रूप में पहचानी जाती है। कांग्रेस के बाद यह दूसरा दल है जिसने पूरे बहुमत को हासिल कर लगातार दूसरी बार सरकार चलाने का जनादेश केन्द्र में हासिल किया है।
यह सभी जानते हैं कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के बदलाव को क्यों जानबूझकर रोक कर रखा गया है। मौजूदा प्रभावी चेहरे किसी नकुल नाथ (Nakul Nath) और किसी जयवर्द्धन सिंह (Jaivardhan Singh) के इतना सक्षम होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वरिष्ठता क्रम में उन्हें बाकी सभी को सुपरसीड करते हुए राज्य में पार्टी पर ‘थोप’ दिया जाए। कांग्रेस में स्वाभाविक और संघर्षशील नेतृत्व की बजाय विरासत में नेतृत्व सौंपने की एक लंबी परम्परा हो गई है। मुझे दिवंगत कलाविद पुपुल जयकर (Artist Pupul Jayakar) की सहसा याद आ गयी। उस दौर में दिग्विजय सिंह की सरकार थी। भोपाल में बना कला केंद्र भारत भवन (Bharat Bhawan) तब राजनीति की कलाकारी के केंद्र में बदल दिया गया था। भारत भवन की स्वायत्तता को लेकर विचार की प्रक्रिया दिग्विजय के कहने पर ही शुरू की गई। जल्दी ही यह समझ आ गया कि जो लोग इस विमर्श के पुरोधा बने बैठे हैं, दरअसल वे खुद ही भारत भवन में अपने लिए संभावनाएं तलाशने से अधिक और कुछ भी नहीं कर रहे थे। तब एक विचार प्रक्रिया के दौरान स्वर्गीय जयकर ने कुछ गुस्से में इन पुरोधाओं से इंग्लिश में कहा था ‘कृपया अपने आप को स्थाई करने की कोशिश मत कीजिये।’ न तब पुपुल जी की बात सुनी गयी थी और न आज कांग्रेस दिल्ली में बैठे अपने तेईस नेताओं की बदलाव की गुहार सुन रही है। साथ ही मध्यप्रदेश में भी इस तरह की किसी सुनवाई की कोई उम्मीद इस पार्टी के सक्षम होने के बावजूद अक्षम बना दिए गए चेहरों को रह गयी है। ये ठहराया गया पानी इस दल की मौजूदा खराब हालत की सच्ची कहानी सुना रहा है।