मोदी सरकार (Modi government) के दूसरे कार्यकाल के तीन साल और कुल मिलाकर आठ साल सोमवार को पूरे हो गए हैं। केंद्र में मोदी के आठ साल पूरे होने का अवसर अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य के आकलन का उपयुक्त मौका है। लेकिन यह इससे भी बड़ा अवसर है मोदी के इस कार्यकाल को जवाबदेही के मापदंड पर परखने का। जवाहर लाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) की मृत्यु के बाद देश में कई दिन तक लोग बातचीत में यही फिक्र करते थे कि अब देश कैसे चलेगा? लेकिन देश को चलना था और ऐसा हुआ भी। आपातकाल (emergency) के दौरान जगह-जगह इस चिंता की चिताएं धधकने लगी थीं कि यह दौर कभी खत्म भी होगा या नहीं? राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) के कार्यकाल में राम जन्मभूमि (Ram Janmabhoomi) का ताला खुलने और मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं (Muslim divorced women) के हक का दरवाजा बंद कर दिए जाने से भी आने वाले समय को लेकर संभावना से लेकर आशंकाओं तक के दौर जम कर चले।
वीपी सिंह (VP Singh) के समय मंडल आयोग के विवाद में झुलसे देश में यह सिहरन साफ महसूस की जा रही थी कि राजनीतिक हितों के लिए देश को जातीय संघर्ष में झोंकने की साजिशों का आखिर और कितना बुरा हश्र होगा? PM की कुर्सी पर एक साल तक भी तशरीफ न रख पाने वाले एचडी देवेगौड़ा (HD Deve Gowda) तथा इंद्र कुमार गुजराल (Inder Kumar Gujral) के ऐसे कार्यकाल ने नया सवाल उठाया था। वह यह कि गठबंधन की राजनीति कहीं देश को ठगबंधन की तरफ तो नहीं लिए जा रही है? अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) की पाकिस्तान (Pakistan) के साथ ‘बस डिप्लोमेसी (bus diplomacy)’ के कारगिल (Kargil) में जिस तरह परखच्चे उड़ाए गए, उससे यह विचार प्रक्रिया आरंभ हुई थी कि वाजपेयी के स्वभाव एवं व्यक्तित्व के अनुरूप वाली सदाशयता की नीति के पलड़े में पाकिस्तान या किसी अन्य दुश्मन देश के ईमान को और अधिक तौला जाना चाहिए? रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रहे डॉ. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) बोलने और करने, दोनों ही लिहाज से इतने ‘रिजर्व’ स्वभाव के बना दिए गए थे कि आर्थिक सुधारों के शोर के बीच भी टेलीकॉम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, कोयला घोटाला आदि ने यह खौफ पैदा कर दिया था कि कठपुतली के इस खेल का अंजाम कैसा होगा?
और आठ साल से अब नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) हैं। याद आती है दिसंबर, 2012 की एक सर्द शाम। मौसम के इस असर से सर्वथा विचलित अपार जनसमूह पूरी गर्मजोशी के साथ गांधीनगर (Gandhinagar) में नरेंद्र मोदी की जयकार कर रहा था। मोदी ने एक बार फिर गुजरात का चुनाव जीतकर देश-भर में अपनी धाक जमा दी थी। वह भीड़ के सामने आये। जयघोष के बीच जब उन्होंने गुजरात (Gujrat) को लेकर बात शुरू की तो जनसमूह में ‘दिल्ली-दिल्ली’ के नारे गूंजने लगे। यानी वह विशाल समूह मोदी को PM पद की तरफ कदम बढ़ाने के लिए कह रहा था। मुझे लगता है कि अपनी सरकार के आठ साल पूरे होने पर मोदी को दिल्ली में इस तरह के किसी समूह के सामने आना चाहिए। यह आकलन करना चाहिए कि बीते आठ वर्ष के मुकाबले आज ‘मोदी-मोदी’ के नारों में पहले जितनी ताकत रह गयी है या नहीं। अब ये उस जनता का मामला है, जो मोदी की अपराजेय छवि के बीच देश में ढेर सारी समस्याओं से दो चार हो रही है। मोदी भले ही अपराजेय हैं लेकिन उनकी लोकप्रियता के ही दौर में उनकी पार्टी ने कई राज्यों में मोदी की अगुवाई में ही चुनाव हारे हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि सफल प्रधानमंत्री होने का यह पैमाना हो कि हर बार और हर स्थान पर आपकी पार्टी ही जीते। राज्यों में स्थानीय मुद्दे ही मतदाता को ज्यादा प्रभावित करते हैं। लेकिन इन सभी चुनावों में मोदी फैक्टर बहुत बड़ा रहा। इसलिए संभव है कि नोटबंदी (notabandi) के अपेक्षित नतीजे न आने और GST की एक समान व्यवस्था के मकड़जाल में बदल जाने से मतदाता केंद्र की सरकार के भी नाखुश हुआ हो। तो फिर मोदी के लिए यह भी फिक्र की बात होना चाहिए कि उनके अन्य उल्लेखनीय कामों की सफलता पर अर्थ जगत की अनर्थकारी विफलताएं भारी पड़ गयी हैं। मोदी की बहुत बड़ी कमजोरी तीन कृषि कानूनों (three agricultural laws) को लेकर सामने आयी। सरकार ने सारी कोशिशें कर लीं, लेकिन पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पहले-पहले जिस तरह सरकार को इन कानूनों पर यू-टर्न लेना पड़ा, उससे साफ है कि अब मोदी के लिए यह स्वीकारने का समय आ गया है कि ‘इंडिया इज मोदी एंड मोदी इज इंडिया’ वाले मुगालते से उन्हें परहेज करना होगा। अच्छा है कि ऐसा कोई नारा उनके किसी भक्त ने अब तक उछाला नहीं हैं।
यह बात उस समय और वजनदार साबित हो जाती है, जब यह दिख रहा है कि जबरदस्त जनसमर्थन के बाद भी मोदी आज तक सीएए की व्यवस्था लागू नहीं कर सके हैं। शायद वह भी भांप चुके हैं कि उन्हें अपने कई निर्णयों को बहुमत के दायरे से बाहर निकालकर ‘बहुत अधिक बहुमत’ वाली श्रेणी ने लाना होगा। मोदी के दौर में देश के राजनीतिक विमर्श की प्रक्रिया बहुत अलग हो गयी है। सोशल मीडिया (social media) या मीडिया में यह साफ दिखता है कि यह दौर या तो मोदी के घनघोर समर्थन या फिर इसी श्रेणी के विरोध में विभक्त हो कर रह गया है। देश के इतिहास में किसी और प्रधानमंत्री को लेकर परस्पर इतनी आक्रामक स्थिति पहले कभी नहीं बनी। तब ‘पीएम अच्छे तो हैं, लेकिन…’ और ‘पीएम बुरे तो हैं, लेकिन…’ के जरिये प्रशंसा तथा निंदा में विपरीत भाव की गुंजाइश हमेशा रहती थी। ये बदला माहौल मोदी के लिए समर्थन तथा विरोध के बीच के वह बहुत अधिक चौड़ी खाई पैदा कर चुका है, जिससे पार जाना उनकी बड़ी चुनौती है। इस चुनौती में वह कितना सफल होंगे, यह 2024 में पता चल जाएगा।
मोदी के कार्यकाल में देश बदला तो वाकई है। इसे नकारना मुश्किल है। अनुच्छेद 370 (Article 370) का खात्मा वाकई किसी 56 इंच वाले सीने के ही बूते का काम था। शाहबानो कांड (Shah Bano Case) के समय तुष्टिकरण की राजनीति के चलते संविधान की आत्मा को जिस तरह छलनी किया गया, उस जख्म को मोदी ही तीन तलाक संबंधी कानून के जरिये भर सके हैं। उन्होंने ही यह अहसास फिर से जीवित किया कि भारत अब 1947 के कबायली और 1962 के चीन हमले वाले दौर की कमजोरी से मुक्त हो चुका है। देश के चमचमाते और रफ़्तार से भरे राजमार्गों से लेकर चारधाम यात्रा के रास्तों की बदली तस्वीर मोदी के राज में ही संभव हो सकी है। काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर (Kashi-Viswanath Corridor), राम मंदिर के निर्माण का आरंभ, ‘वन्दे भारत’ की पूर्ण होने के नजदीक पहुंच चुकी प्रक्रिया और ‘गतिमान’ की अद्भुत गति ने सुखद परिवर्तन के अनेक अध्याय इस देश को प्रदान किये हैं। ‘मेड इन इंडिया’ (made in India) से और आगे ‘मेक इन इंडिया’ की प्रगति आज विश्व-भर में देश को नयी पहचान दिलाने का माध्यम बनी है। डोनाल्ड ट्रम्प (Donald Trump) से लेकर जो बाइडेन का अमेरिका (America) जहां हमसे दोस्ती के लिए लालायित है, वहीं डोकलाम के जख्मों से अब तक कराह रहा चीन भी परिवर्तित भारत का लोहा मानने को मजबूर हो गया है। विकासशील तो छोटी बात है, आज दुनिया के तमाम विकसित देश भी भारत को वह सम्मानजनक ओहदा प्रदान कर रहे हैं, जो इससे पहले इतना तो कभी भी नहीं हुआ।
फिर भी विषम किस्म के विषय तो हैं। महंगाई के मोर्चे पर मोदी सरकार घोर तरीके से विफल दिख रही है। आर्थिक असमानता की खाई बढ़ती जा रही है। मोदी और सरकार की तमाम ईमानदार इमेज के बीच भ्रष्टाचार पर पूरी तरह नियंत्रण सरकार के काबू से बाहर है। पेट्रोल और डीजल (petrol-diesel) के दाम भले ही अंतर्राष्ट्रीय कारकों से प्रभावित होते हैं, लेकिन इनकी कीमतों को लेकर मचे हाहाकार का संपूर्ण समाधान तलाशने की स्थिति में यह सरकार नहीं दिखती है। निरंतर बढ़ती बेरोजगारी को पकोड़ा तलने के लिए लगाई जाने वाली आग में डालकर खाक किया जाना नामुमकिन हो चला है। मोदी 2024 का भी चुनाव भले ही जीत लेंगे। इसमें फिलहाल शक की गुंजाईश नहीं हैं। फिर भी वर्तमान हालातों में मोदी के सामने दो ही रास्ते बचते हैं। या तो वे विफलताओं को खुले दिल से स्वीकार लें। या फिर सफल होकर दिखाएं। दोनों ही रास्ते उस जवाबदेही की जरूरत को और गाढ़ा कर रहे हैं, जिसकी बात शुरूआत में की गयी थी।