पता नहीं प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) को भारत (India) के पौराणिक, प्राचीन और आजाद भारत (Ajad bharat) के आधुनिक इतिहास का कितना ज्ञान है? उनका उत्तरप्रदेश में ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं (Ladaki hoon, Lad Sakati Loon)’ से लेकर महिलाओं (women) को चालीस फीसदी उम्मीदवार (40 percent candidates) बनाने का दांव तो समझ में आता है कि जहां कांग्रेस (Congress) के पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं, वहां वो कोई भी रणनीति प्रयोग के लिए अपना सकती है। लेकिन शुक्रवार को जब मध्यप्रदेश कांग्रेस (Madhya Pradesh Congress) की महिला इकाई ने भी ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ अभियान मध्यप्रदेश में चलाने का एलान किया तो मेरे लिए अपनी हंसी रोकना मुश्किल था।
मुझे फिल्म बंटी और बबली (Bunty and Babli) का एक हास्य दृश्य याद आ गया। एक समूह को किसी महिला का ध्यान भटकाने का काम सौंपा गया है। समूह उस महिला के घर के सामने जाकर नारेबाजी शुरू कर देता है। महिला राजनेता (women politicians) है। वह आकर नारेबाजी की वजह पूछती है तो समूह का नेता कहता है, ‘हमारी मांगें पूरी करो।’ मांगों के बारे में पूछे जाने पर वह बोलता है, ‘तानाशाही नहीं चलेगी।’ जब महिला दोबारा पूछती है कि मांग क्या है? तो वह आदमी कहता है, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो (Angrejon Bharat Chhodo)।’ अंत में वह आदमी बताता है कि गलती से गलत जगह प्रदर्शन के लिए आ गया है।
यह दृश्य देखते समय हंसना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। तो ऐसी हंसी मध्यप्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष (President of Madhya Pradesh Mahila Congress) अर्चना जायसवाल (Archana Jaiswal) का एलान सुनने के बाद स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा थी। यह अभियान कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा (Congress National General Secretary Priyanka Vadra) ने उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh assembly elections) के लिए दिया है। अब मध्यप्रदेश में इसका विस्तार किया जा रहा है। कई सवाल दिमाग में आ रहे हैं। सबसे पहला यह कि क्या देश की लड़की आज भी इतनी नासमझ है कि उसे किसी राजनीतिक दल से यह सीखना होगा कि वह लड़ भी सकती है? प्रभु हनुमान जी (prabhu hanuman ji) तो किसी ऋषि के श्राप के चलते अपनी शक्ति भूल गए थे। तब किष्किंधा कांड (kishkindha kand) में जामवंत ने प्रभु बजरंगबली को उनकी शक्तियों का स्मरण कराया था।
मगर देश की लड़कियों को तो उनकी ताकत मालूम ही है। वह लगातार इसका प्रदर्शन भी कर रही हैं। मीरा देवी चानू से लेकर हिमा दास, भावना पटेल और मिताली राज खेल जगत में इस शक्ति का वर्तमान उदाहरण हैं। निर्भया (Nirbhaya) की माताजी ने बेटी के दोषियों को फांसी पर चढ़ाकर ही दम लिया। इसके लिए उन्होंने व्यवस्था के विरूद्ध अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। किस-किस क्षेत्र का नाम लिया जाए। हर जगह देश में महिलाओं ने हालात से लड़ते हुए अपनी सफलता की अनगिनत मिसालें कायम की हैं। क्या पता प्रियंका को यह घोषणा करते हुए पश्चिम बंगाल (West Bengal) की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी (Chief Minister Mamata Banerjee) याद आर्इं या नहीं। वे अपनी दादी इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को भी भूल गर्इं लगती हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmibai of Jhansi) से लेकर शिवाजी की मां जीजा बाई (Shivaji’s mother Jija Bai) तक को कौन भूला सकता है। आजादी की लड़ाई में दुर्गा भाभी (Durga Bhabhi) के साहस कौन भूला सकता है। आदिवासी गौंड रानी दुर्गावती (Rani Durgavati) के बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है। हिन्दू पुराणों (hindu puranas) में दुर्गा से लेकर काली तक तमाम देवियां हथियारों से लैस हैं और दुष्टों का नाश करती हैं।
तो आखिर प्रियंका वाड्रा और उनकी कांग्रेस क्यों इस आत्ममुग्धता की शिकार हो रहे हैं कि दरअसल यह वह ही हैं, जिनकी वजह से देश की लड़की यह समझ सकेगी कि वह लड़ सकती है? लड़की तो लड़ ही रही है। उन राज्यों में भी जहां भाजपा (BJP) या कांग्रेस की सरकारें (Congress governments) हैं और उन जगहों पर भी यह लड़ाई जारी है, जहां किसी अन्य दल का शासन है। किसी भी सत्ता में यदि लड़कियों ने प्रगति की है तो उसी सत्ता में उसके साथ अत्याचार के मामले भी बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं। पश्चिमी जगत तो नारी शक्ति की प्रगति का परिचायक है, किंतु वहां भी स्त्री के साथ गलत होने से लेकर भेदभाव के मामले क्या बड़े पैमाने पर सामने नहीं आते हैं।
इस लिहाज से लड़की है, लड़ रही है और लड़ती भी रहेगी। कहीं स्वयं को आगे ले जाने के लिए तो कहीं स्वयं पर हो रहे अन्याय का प्रतिकार करने के लिए। कांग्रेस इस लड़ाई में आखिर क्या कर लेगी? क्या वह उन प्रियंका चतुर्वेदी (Priyanka Chaturvedi) को इस लड़ाई का चेहरा बनाएगी, जिन्हें कांग्रेस में रहते हुए पार्टी के लड़कों के हाथों इतना प्रताड़ित होना पड़ा कि वह अंतत: कांग्रेस से अलग होने पर मजबूर हो गयीं? सुष्मिता देव (sushmita dev) को कांग्रेस से किनारा क्यों करना पड़ा? दिव्या स्पंदाना को कांग्रेस की सोशल मीडिया (social media) टीम और राजनीति दोनों से क्यों पीछा छुड़ाना पड़ा? कांग्रेस को यह बताना चाहिए कि वह लड़कियों को किसके लिए लड़ना सीखना चाह रही है। खुद के लिए तो लड़की लड़ ही रही है। तो क्या अब उन्हें आगे की लड़ाई प्रियंका वाड्रा के लिए लड़नी होगी या फिर तेजी से सिमटती कांग्रेस को बचाने के लिए?
दरअसल, जब आप लड़की के लड़ने का सियासी यशोगान करते हुए उसकी शक्ति को एक स्कूटी वाली ‘बख्शीश’ के पलड़े पर तौल देते हैं, तभी यह स्पष्ट हो जाता है कि नारी की ताकत के नाम पर आप स्वयं के लिए ‘खोयी ताकत और जवानी फिर पाएं’ जैसे बचकाने टोटके आजमा रहे हैं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर श्रीमती वाड्रा ऐसा कोई कार्यक्रम लेकर सामने क्यों नहीं आयीं, जिसमे लड़की को संघर्ष करते हुए खुद को इतना सक्षम बनता दिखाया जाए कि उसे अपनी पढाई या एक स्कूटी (Scooty) के लिए किसी राजनीतिक दल के रहमो-करम पर निर्भर रहना न पड़ जाए? यह बेमानी अपेक्षा तो लानत के साथ हरेक राजनीतिक दल से की जा सकती है। मतदाता को इस तरह से लुभाने में कोई भी पीछे नहीं रहता है। लेकिन फिलहाल यह बात कांग्रेस (Congress) के लिए विशेष तौर पर इस वजह से कही जा रही है कि उसकी नेता श्रीमती वाड्रा इस लड़ने के नाम पर स्वयं को गरजता दिखाने की कोशिश कर रही हैं। संक्षेप में यही कि लड़की खुद लड़ना जानती है और लड़ भी रही है। विपरीत धारा में बहने के उसके माद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनाने जैसी हल्की बात नहीं की जाना चाहिए। यह नसीहत सिर्फ कांग्रेस नहीं, बल्कि हरेक राजनीतिक दल के लिए है।