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…ताकि लिखा जाए जब इतिहास कांग्रेस का

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जिस समय नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) ने पंजाब (Punjab) में कांग्रेस अध्यक्ष पद से टेक ऑफ (Take off from the post of Congress President) किया, तब सोनिया गांधी (sonia gandhi) और राहुल गांधी (rahul gandhi) का विमान नई दिल्ली में लैंड करने जा रहा था। जब राहुल गांधी बसंती पगड़ी पहनकर शहीदे-आजम भगत सिंह जी (Shaheed-Azam Bhagat Singh ji) की प्रतिमा की तरफ जा रहे थे, तब उन्हें यह मलाल भी हो रहा होगा कि जिस सिद्धू को उन्होंने अपना भक्त समझा, वह बगुला भगत निकला। ‘ठोको ताली’ वाले सिद्धू ने प्रदेश अध्यक्ष पद को ठोकर मार दी। ‘गुरू’ ने गुरूर में आकर पंजाब में कांग्रेस के गुड़गोबर का बन्दोबस्त कर दिया।

ना! गुड़गोबर वाली बात का यह अनर्थपूर्ण अर्थ मत निकालिएगा कि पंजाब में कांग्रेस सिद्धू के इस्तीफे से कमजोर होगी। यहां इस पार्टी की शक्ति का शीघ्रता से पतन तो उस ही दिन शुरू हो गया था, जब यकायक अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) को मुख्यमंत्री पद (chief minister post) से हटा दिया गया। जिन सिद्धू से खुद का मिजाज नहीं संभाला जाता है, उनसे कांग्रेस की राज्य इकाई को संभालने की बात सोचना नितांत मूर्खता का परिचायक था। राहुल गांधी तो खैर ‘आग लगी हमरी झोपड़िया में, हम गायें मल्हार’ वाले विदूषक हैं ही। हैरत तो यह कि सोनिया भी पंजाब को लेकर सिद्धू के रूप में घोर आत्मघाती निर्णय (suicidal decision) कर बैठी थीं। प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) के लिए यह कल्पना करना भी उनकी समझ के साथ अन्याय होगा कि उन्होंने सिद्धू को अध्यक्ष बनाये जाने वाले फैसले का विरोध किया होगा। उन्हें दादी की नाक वाली विरासत मिली है, दादी की बुद्धि वाली नहीं।

एक हंसने लायक बात याद आ गयी। बच्चा केंचुआ खाने की जिद करने लगा। बात मनोवैज्ञानिक (psychologist) तक पहुंची। उसने प्लेट भरकर केंचुए मंगवाए। कहा कि बच्चा पेट-भरकर उन्हें खा सकता है। बच्चा जिद पर अड़ गया कि मनोवैज्ञानिक को भी उसका साथ देना होगा। उसकी जिद मानकर मनोवैज्ञानिक ने जैसे ही किसी तरह एक केंचुआ गले के नीचे उतारा, वैसे ही बच्चा यह कहते हुए चला गया कि अब उसे भूख नहीं लग रही है। पंजाब में सिद्धू की जिद ने भी ऐसा ही किया। गांधी-नेहरू परिवार ने जहर का घूंट पीने जैसी विवशता के साथ सिद्धू की बात मान ली। अभी वह जहर ठीक से असर भी नहीं दिखा पाया था कि सिद्धू इस्तीफ़ा देकर पतली गली में निकल लिए। इधर राज्य में चुनाव सिर पर है और उधर पार्टी नेतृत्व को सिद्धू की नाराजगी से नया सिर दर्द दे दिया है। क्योंकि निर्वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष (outgoing state president) ‘ हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे’ से भी एक कदम आगे ‘न हम खेलेंगे, न खेलने देंगे’ वाले मानव बम (human bomb) जैसी घातक क्षमता का परिचय देने में कोई लिहाज नहीं रखते हैं। जिस तरह उनके इस्तीफे को पंजाब की नयी सरकार सहित पार्टी के मुख्य नेतृत्व के लिए गुस्से का प्रतीक माना जा रहा है, उससे साफ़ है कि पंजाब में कांग्रेस को अमरिंदर के साथ-साथ ही सिद्धू की नाखुशी से भी जूझना होगा।

पितृ पक्ष चल रहे हैं। उनके बीच ही पंजाब में कांग्रेस के कड़वे दिन शुरू हो गए हैं। लेकिन मामला केवल इस राज्य तक ही सीमित नहीं है। सिद्धू ने जो झन्नाटेदार झापड़ पार्टी को मारा है, उसके पंजे के निशान पार्टी नेतृत्व (party leadership) के गाल पर साफ़ दिख रहे हैं। यह वाकया गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) के रूप में कांग्रेस पर काबिज परिवार की क्षमताओं पर एक बार फिर सवाल उठा रहा है। जिन अमरिंदर ने पार्टी पर भरोसा किया, उसे एक परिवार ने दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल फेंका। ऐसा करने के बाद इसी नेतृत्व ने जिस पर विश्वास किया, वह किसी मधुमक्खी की तरह डंक मार गया। यह सोनिया, राहुल और प्रियंका के हिस्से आयी तोहमत है। कांग्रेस के उन नेताओं को आज निश्चित ही कुछ ठंडक महसूस हो रही होगी, जिन्होंने हिम्मत दिखाकर सिद्धू मामले में पार्टी नेतृत्व की गलतियों के बारे में पहले ही आगाह कर दिया था। हालांकि उनकी बात अनसुनी कर दी गयी, जिसका नतीजा सामने है।

एक बात साफ़ है। चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) ने पार्टी के नेतृत्व की तरह सिद्धू के आगे नतमस्तक होना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सिद्धू की मर्जी के खिलाफ जाकर सुखजिंदर सिंह रंधावा को गृह मंत्री बनाया। पुलिस के आला अफसरों की नियुक्ति में चन्नी ने सिद्धू की मनमानी पर अंकुश लगाया। इससे बौखलाकर ही सिद्धू आज आपा खो बैठे। कांग्रेस यही सोचकर तसल्ली कर सकती है कि शीर्ष नेतृत्व में न सही, कम से कम उससे नीचे के स्तर वाले चन्नी, अमरिंदर सिंह या मनीष तिवारी Manish Tewari() जैसे इक्के-दुक्के नेताओं में सही-गलत के बीच फर्क करने वाली समझ तो बची हुई है। चन्नी, सिंह या तिवारी कांग्रेस Tiwari Congress() में लुप्तप्राय प्रजाति के अवशेष बनकर रह जाएं, उससे पहले उनके संरक्षण का प्रयास बहुत जरूरी है। ताकि जब भी कांग्रेस का इतिहास लिखा जाए तो यह बताया जा सके कि इस दल में गांधी-नेहरू परिवार और उनकी स्तुति करने वालों के अलावा कुछ और लोग भी बोलना जानते थे।

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