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समय की धारा के बीच बदलते शिवराज…

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मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (Chief Minister Shivraj Singh Chouhan) के चौथे कार्यकाल (fourth term) के दो साल बुधवार को पूरे हो गए हैं। तीन बार लगातार और चौथी बार बस थोड़े अंतराल के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी (chief minister’s chair) पर अब शिवराज के डेढ़ दशक पूरे हो रहे हैं। कह सकते हैं कि अवधि की गणना आसान है। किंतु इस सबके बीच समय के साथ जो बदला, उसकी गणना कुछ दुरूह हो गयी है। बतौर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस पड़ाव पर आ गए हैं। वह आरंभ, जब लगता था कि घनघोर अनिश्चय ही सामने है। फिर उस अनिश्चय को निश्चित ही कुछ समय का बताने के स्वांग रचे गए। बताया और प्रचारित किया गया कि कोई एक्सीडेंटल मुख्यमंत्री (accidental chief minister) बन गया है। लेकिन आज वो पन्ने फिर से पलटें, तो साफ होता है कि वह एक्सीडेंट नहीं, बल्कि उस सकारात्मक इंसिडेंट का मामला था, जो अब सबके सामने है।

मैंने शिवराज सिंह चौहान को उस समय से देखा, जब वे प्रदेश में पहली भाजपा सरकार (BJP government) के अस्तित्व में आने के पहले भारतीय जनता युवा मोर्चा (Bharatiya Janata Yuva Morcha) के प्रदेशाध्यक्ष थे। सुंदरलाल पटवा (Sunderlal Patwa) की सरकार में सबसे लोकप्रिय युवा विधायक थे शिवराज। फिर लगातार पांच बार संसद में विदिशा (Vidisha) का प्रतिनिधित्व किया। मुझे उनमें पहली बार संभावनाओं से शिवराज तब नजर आए थे जब उन्होंने विक्रम वर्मा के विरोध में कुशाभाऊ ठाकरे (Kushabhau Thackeray) की मर्जी के खिलाफ प्रदेशाध्यक्ष के चुनाव में ताल ठोकी थी। यह चुनाव ठाकरे जी के लिए प्रतिष्ठा का था इसलिए शिवराज का हारना बड़ी बात नहीं थी। बड़ी बात यह थी कि शिवराज हारने के बाद अगले दिन ही प्रदेश भाजपा के महामंत्री बना दिए गए। होने को तो यह उनके केरियर की सबसे बड़ी गलती साबित हो सकती थी। लेकिन तब भाजपा में संगठन के असली कर्ताधर्ता ठाकरे जी जैसे निर्लिप्त लोग हुआ करते थे। जाहिर है, ठाकरे जी ने शायद शिवराज में भाजपा के दूर तक के भविष्य को पहचान लिया था।

और जिस तरह शिवराज एक मैराथन (marathon) पारी खेल रहे हैं, कह सकते हैं, उन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे की उम्मीदों को पूरा किया है। उनके CM बनने के पहले भी और बाद में भी उन्हें देखा। चौहान एक मुख्यमंत्री की तरह काम करते रहे और मैं एक पत्रकार के रूप में उस काम पर निगाहें गड़ाए रहा। परिवर्तन की कोई तयशुदा वर्तनी नहीं है, लेकिन व्याकरण के इन सभी तयशुदा ढांचों के बीच मैंने एक तत्व किसी तथ्य की भांति देखा है। शिवराज, अब पहले तीन कार्यकाल वाले नहीं हैं। और खास बात यह कि ये तब्दीली रेखांकित करने वाली है, कहीं-कहीं ही नहीं, बल्कि कई-कई तरीके से उल्लेखनीय है।

इससे मिलती-जुलती मेरी एक पोस्ट पर किसी शुभचिंतक ने मुझे उलाहना दिया था कि सरकार का तो काम ही काम करना है। मैं उन सज्जन से सहमत हूं, इस विश्वास के साथ कि मुझे नसीहत देने से पहले उन्होंने निश्चित ही इस राज्य में शिवराज के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों के काम का भी निरपेक्ष तरीके से आकलन किया ही होगा। इस आकलन के आधार पर वह भी इस बात को माने ही होंगे कि शिवराज के नवाचार सचमुच उल्लेख की परिधि में आते हैं। क्योंकि उनमें से अधिकांश ने मुख्यमंत्री पद की परिभाषा के सीमित तत्वों का पॉजिटिव (positive) तरीके परिमार्जन की हद तक अतिक्रमण किया और उसमें वह सफल भी रहे। शिवराज से पहले शायद ही कोई मुख्यमंत्री अपनी जनता से इतना कनेक्ट हुआ होगा। एक लगातार संवाद और संवाद के साथ सामाजिक सरोकारों से सरकार का जुड़ना। इतना पहले कभी नहीं हुआ।

एक सधी हुई शुरूआत कब और किस तरह अनुभव में पगी हुई बन गयी, क्या कोई भी इस टर्निंग पॉइंट (turning point) को बूझ सकता है? एक सरल मुख्यमंत्री ने जिस तरह वह गरल यानी विष आत्मसात किये, जो कतई आसान नहीं था। 1956 से ही सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के नाम सभी को पता रहे, लेकिन इन सभी के यथार्थ स्वरूप का ऐसा साक्षात्कार क्या इससे पहले कभी संभव हुआ था? ये असामाजिक तत्वों के जमींदोज किये जाते ठिकाने और उनके किसी भी पुरसाने-हाल के नजर तक न आने का वाकया मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) ने इससे पहले इतनी कंसिस्टेंसी के साथ कभी-भी नहीं देखा था। अभी राजधानी में भाजपा के एक मुखर विधायक रामेश्वर शर्मा के शहर में लगे बैनर्स पर गौर किया सकता है। इसमें शिवराज के फोटो के साथ लिखा है, ‘बहन बेटी की इज्जत से जिसने किया खिलवाड़, बुलडोजर पहुंचेगा उसके द्वार।’ ‘ बेटी की सुरक्षा (daughter’s safety) में जो बनेगा रोड़ा, मामा का बुलडोजर बनेगा हथोड़ा।’ हो सकता है इस परिवर्तन को उत्तरप्रदेश में भाजपा की ताजा सफलता से जोड़कर देखा जाए। लेकिन गौर करेंगे तो कोरोना काल (corona period) में 23 मार्च, 2020 को चौथी बार सत्ता संभालने वाले शिवराज इस बार अलग ही रंग में थे। इस बार नौकरशाही (bureaucracy) को सौम्य तरीके से आम जनता का नौकर होने का अहसास दिलाने का भाव तो अब देखने को मिल रहा है। जमीन से जुड़े शिवराज वह अमीन यानी अमानत को सहेज कर रखने वाले साबित हुए हैं, जिनके कदमों तले राज्य के एक-एक हिस्से की न मात्र धूल, अपितु वह शूल भी मिटा हुआ मिलता है, जिसके निदान के लिए काम यथार्थ रूप में किए गये हैं।

शिवराज सिंह चौहान अब निश्चित ही बदल गए हैं। यह बात और है कि इस बदलाव में किसी भी तरह के बदले के कोई भाव नहीं है। वह और मजबूत हुए हैं। उनके निर्णयों में आवश्यकतानुसार कठोरता भी समाहित हुई है। वह ‘पांव-पांव वाले भैया’ से लेकर ‘मामा’ और ‘जिंदा टाइगर’ की छवि से और भी आगे निकल गए हैं। निश्चित ही आगे का रास्ता कठिन होता जा रहा है, लेकिन शिवराज उस तरफ और अपनी ही तरह से बढ़ तो रहे हैं। अगला साल उनके लिए और अधिक चुनौतियों से भरा हुआ है। इस एक साल के इंतजार में क्या शिवराज को बीते पंद्रह साल का एक भी लम्हा सालता होगा, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। शिवराज बुरे को भूल जाते हैं। वह बुरा चाहने वालों को क्षमा कर देते हैं। फिर बढ़ जाते हैं उस तरफ, जिसे आप चाहे राजनीतिक महत्वकांक्षा कह लें, किन्तु इसके पीछे निहित भाव को बदले हुए शिवराज और बदले हुए मध्यप्रदेश के सकारात्मक स्वरुप को खारिज करना आसान नहीं है। समय की कलकल बहती धारा आने वाले कल में क्या रूप लेगी, यह भविष्य ही जाने, किन्तु इस धारा को फिलवक्त तो एक शिवधारा मिल ही गयी है। कलकल बहती धारा के बीच बदलते शिवराज शोध का विषय हैं। प्रशंसकों के लिए भी और अपने विरोधियों के लिए भी।

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