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बेचारे मल्लिकार्जुन

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मल्लिकार्जुन खड़गे को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी की तस्वीरों में जगह देने में चार सप्ताह का समय लग गया। शायद भाई लोग गहरी नींद में थे। थके हुए थे। कभी दौड़-दौड़ कर खड़गे की भोपाल में अगवानी की। फिर राहुल गांधी के साथ कदमताल की मेहनत भी सिर पर आ गयी। इसलिए थकान उतारते-उतारते वह पोस्टर और बैनर उतारना ही भूल गए, जिनमें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को जगह नहीं दी गयी थी। भला हो उस अखबार का, जिसने ऊंघते नेता गणों को झकझोरकर जगा दिया। याद दिला दिया कि पार्टी में सिर्फ गांधी-नेहरू ही नहीं, उनसे बाहर के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी सम्मान देना होता है। फिर भले ही ऐसा मन मारकर ही क्यों न करना पड़े।

ऐसा पहले भी हुआ है। दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष, दोनों थे। भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर कांग्रेस का भव्य कार्यक्रम हुआ। एक राष्ट्रीय अखबार ने खबर छापी कि कांग्रेस का इतना बड़ा आयोजन राव की तस्वीर के इस्तेमाल और नाम के उल्लेख के बगैर ही हो गया। दरअसल यह ऐसे समय हुआ, जब राव का सोनिया गांधी से छत्तीस का आंकड़ा जोरों पर चल रहा था। और खड़गे वाला घटनाक्रम ऐसे समय हुआ है, जब उनका सोनिया गांधी के प्रति बत्तीसी दिखाते हुए अपनी श्रद्धा का परिचय देने का क्रम और कर्म, दोनों ही जोरों पर चल रहे हैं। शायद इसीलिए तय पाया गया होगा कि जहां सोनिया, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा मौजूद हों, वहां क्यों खामखां बेचारे खड़गे को अस्तित्व दिखाने के लिए परेशान किया जाए। गनीमत है कि खड़गे की तस्वीर के नीचे ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष’ की बजाय ‘आगामी आदेश तक परिवार के पदेन समर्थक’ नहीं लिख दिया गया।

यह घटनाक्रम साफ़ बताता है कि दिल्ली में अध्यक्ष घोषित होने के बाद भी खड़गे पार्टी वालों के दिल में नहीं उतर सके हैं। वरना तो यह संभव नहीं था कि जिन कमलनाथ ने मुख्यमंत्री रहते हुए संजय गांधी के साथ अपनी तस्वीरों को शहर के चौराहों तक पर जगह दी हो, वह खड़गे की तस्वीरों को लगाना भूल जाएं। या फिर यह संभव है कि नाथ ने सोच रखा हो कि जब तक दिग्विजय सिंह नहीं कहेंगे, तब तक तस्वीर के लिए उनकी तासीर वही ‘परिवार’ वाली ही रहेगी।

भाजपा यदि इस घटनाक्रम के बाद खड़गे की तुलना सीताराम केसरी से कर रही है, तो यह गलत नहीं कहा जा सकता। केसरी की अध्यक्ष पद वाली केसर जैसी खुशबू केवल तब तक कायम रही, जब तक कि इस पद के समीप सोनिया गांधी की पदचाप सुनाई नहीं दी। एक बार ऐसा हुआ और केसरी एक ही बार में बाहर कर दिए गए। खड़गे भी तो इसी तरह के ‘बॉन्ड’ पर चलते नजर आ रहे हैं।

मध्यप्रदेश में जो कुछ हुआ, वह खड़गे के लिए एक बड़ा सबक हो सकता है। उन्हें यह समझना होगा कि यदि पद के साथ ही अध्यक्ष वाला कद भी पाना है तो फिर अपनी एक अलग लकीर तैयार करना होगी। फिलहाल तो वह लकीर के फकीर वाली हालत में दिख रहे हैं। उन्हें परछाई से बाहर आना होगा। हालांकि यह बहुत कठिन है। जीवन के आठवें दशक में कमर को खींच कर सीधा कर पाना आसान नहीं है। इसलिए वही आसन नियमित रखने में ही खड़गे भला महसूस कर रहे होंगे, जिसकी अपेक्षा में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया है। खड़गे के लिए यही विकल्प बचा दिखता है कि वह या तो उपनाम बदल लें, या बगैर यथोचित सम्मान केवल पदनाम से ही काम चला लें। बेचारे मल्लिकार्जुन ।

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