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विपक्षी एकता और पर कटे पक्षी जैसी कांग्रेस

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यह दो समाचार गौर करने लायक हैं। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की सेवा में एक पेशकश की है। कहा है कि राहुल उनके निवास में रह सकते हैं। दरअसल वायनाड से गांधी की सांसदी खारिज होने के बाद उन्हें बतौर सांसद आवंटित सरकारी निवास खाली करने को कहा गया है। दिग्विजय ने इस आशय वाले ट्वीट में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का उल्लेख करते हुए यह भी कहा है कि राहुल जैसे उदार हृदय वालों के लिए तो पूरा देश ही परिवार है। काश दिग्विजय ने इस ट्वीट से पहले इधर-उधर देख लिया होता। तब शायद वह पूरे देश को राहुल का परिवार बताने वाली अपनी लाइन पर पुनर्विचार करना उचित समझते।

इसी देश के एक दर्जन से ज्यादा उन दलों ने जो दिन पहले राहुल गांधी को संसद की सदस्यता से अयोग्य घोषित होने के बाद कांग्रेस के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े नजर आ रहे थे, कर्नाटक के चुनाव की घोषणा के साथ खुद को कांग्रेस से अलग कर चुके हैं। कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े देवेगौड़ा के जनता दल सेक्यूलर ने अलग से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। आम आदमी पार्टी ने अपने अस्सी उम्मीदवारों की घोषणा कर ही दी है। मजेदार बात यह भी है कि कर्नाटक चुनाव में देश के बाकी प्रमुख क्षेत्रीय दल वहां जनता दल का प्रचार करने जाएंगे। जाहिर है विपक्षी एकता के आकार लेने से पहले ही क्षेत्रीय दलों के कुनबे ने कांग्रेस के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हैं। जिन दलों के भरोसे कांग्रेस राजनीति में अपनी खोयी ताकत को फिर से पाने के सपने देख रही थी। खास बात यह कि क्षेत्रीय दलों का कुनबा भाजपा का उतना ही घोर विरोधी है, जितना कि कांग्रेस का। फिर भी यदि मल्लिकार्जुन खड़गे के घोषित और राहुल गांधी के अघोषित नेतृत्व वाली पार्टी को एकता के किसी प्रयोग से पहल ही कर्नाटक में ‘दूध की मक्खी’ वाला ट्रीटमेंट दिया जा रहा है तो फिर एक बात तय है। वो यह कि कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता का नेतृत्व तो दूर, उसके लिए सहयोगी होने वाली हैसियत भी खो दी है। और यह शुरूआत हुई है कांग्रेसाध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के घरेलु राज्य कर्नाटक से ही।

जो पार्टियां कांग्रेस को साथ लिए बगैर लामबंद हो रही हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेक्युलर, जनता दल यूनाइटेड, आम आदमी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति, नेशनल कॉन्फ्रेंस और झारखंड मुक्ति मोर्चा प्रमुख हैं। इन सभी के एक मंच पर आने का प्रमुख आधार यह कि इन दलों को उनके प्रभाव वाले राज्यों में एक-दूसरे से कोई राजनीतिक टकराव नहीं है। इस अभियान की शुरूआत कर्नाटक से हो रही है, जहां तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी जनता दल सेक्युलर के प्रचार के लिए जाएंगी।

ममता के राज्य पश्चिम बंगाल में भाजपा ने तगड़ी पैठ बनाई है और वह वहां मुख्य विपक्षी दल है। उसकी यही स्थिति राष्ट्रीय जनता दल तथा जनता दल यूनाइटेड वाले बिहार तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा द्वारा शासित झारखंड में है। सपा के प्रभाव वाले उत्तरप्रदेश में भाजपा लगातार दो विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर चुकी है। कर्नाटक में भी उसकी सरकार है। बेशक तेलंगाना में भाजपा फिलहाल बहुत कमजोर है और कश्मीर में चुनाव के बाद ही यह पता चल पाएगा कि उसकी पूर्ववर्ती सरकार को जनता का समर्थन अब भी हासिल है या नहीं। वैसे अनुच्छेद 370 का खात्मा करने सहित कुछ अन्य कदमों के माध्यम से भाजपा घाटी में अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का प्रबंध कर चुकी है।

लेकिन इन सभी राज्यों में कांग्रेस पिछलग्गू से लेकर भारी कमजोरी वाली स्थिति की ही शिकार है। दक्षिण के राज्यों में अकेला कर्नाटक एक ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस को मजबूत माना जा सकता है। लेकिन उस पर कोढ़ में खाज वाली बात यह कि क्षेत्रीय दलों का कुनबा इन राज्यों में भाजपा सहित कांग्रेस के भी खिलाफ ही प्रचार करेगा। यानी कहा जा सकता है कि सियासी महाभारत में ये दल अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस को सुई की नोक बराबर भी जगह देने की मुद्रा में नहीं दिखेंगे। उनका यही मंसूबा भाजपा के लिए भी है, लेकिन भाजपा सभी जगह कांग्रेस के मुकाबले इतनी मजबूत है कि क्षेत्रीय विपक्षी दलों को उससे निपटने के लिए बहुत अधिक ताकत लगानी पड़ रही है और इस लड़ाई में मात भी वहीं खा रहे हैं, कांग्र्रेस तो गिनती में ही नहीं है।

एक बात और। इस गठबंधन के आकार लेने की प्रक्रिया उस समय तेज हुई है, जब राहुल गांधी को जेल की सजा सहित उनकी सांसदी छिनने का हल्ला मचा हुआ है। अपना अलग ठिकाना बनाने में जुटे ये वही दल हैं, जो संसद से लेकर सड़क तक कांग्रेस के इस संकट में उसके साथ खड़े दिख रहे हैं। लेकिन जिस तरह इन पार्टियों ने चुनाव की रणनीति बनाई है, उससे तय यही कि कांग्रेस को शेष विपक्ष की इस सहानुभूति का कोई सियासी लाभ नहीं मिलेगा।

यह बिलकुल एक चुटकुले जैसा है। लोगों ने चंदा करके मोहल्ले में स्वीमिंग पूल बनाने का फैसला किया। एक सज्जन ने तुरंत कहा कि वे इसके लिए पूरा सहयोग देंगे। जब लोग चंदा मांगने उनके घर गए तो सज्जन ने यह कहते हुए उन्हें एक बालटी पानी थमा दिया कि पूल के लिए पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। मौजूदा हालत में कांग्रेस को विपक्षी सहयोग की कहानी भी इस पानी की बाल्टी जैसी ही है। राहुल के लिए बेशक दिग्विजय सिंह के घर के दरवाजे खुले हैं, लेकिन राहुल वाली कांग्रेस के लिए शेष विपक्ष ने अपने-अपने दर की डगर बंद कर दी है, इसमें संदेह करने का कोई कारण नहीं है। विपक्षी दलों की इस एकता के बीच कांग्रेस किसी पर कटे पक्षी की तरह फड़फड़ाती ही दिखेंगी।

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