प्रकाश भटनागर
शिवाजी सावंत की कालजयी कृति ‘मृत्युंजय’ में एक प्रसंग उस समय का है, जब सूर्य पुत्र कर्ण को अर्घ्य देने के लिए सूर्य के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। सूरज की पूजा कर्ण के जीवन का अनिवार्य नियम है और इसलिए वह पूरे धीरज के साथ लंबे समय तक अपने देवता के दर्शन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस बीच हस्तिनापुर के दरबार में द्रोपदी का चीर हरण हो चुका है। शायद सूर्य नहीं चाहते थे कि उनका बेटा इस कलंकित प्रसंग का साक्षी बने।
इस अध्याय के फ्रेम में दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे देखिए। कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा को सुबह 10 बजे तक समय ही नहीं मिला कि वो नतीजों के बारे में कोई जानकारी लें। यह देखें कि किस तरह एक बार फिर दिल्ली में उनकी पार्टी का चीर हरण शुरू हो चुका है। किस तरह उसकी आशाओं का सूर्य उदित होने से पहले ही अस्त हो गया है। कर्ण को सूर्योदय का विश्वास था। इसलिए वह उस जलराशि में धैर्य के साथ खड़े रहे। लेकिन शायद श्रीमती वाड्रा को भी पक्का यकीन था कि नतीजों का गोल सूरज निकलने की जगह निराशा वाला खाली गोला ही उनके हिस्से आएगा, इसलिए उन्होंने हालात से आंख मूंदे रखना ही बेहतर समझा होगा।
अब इसी फ्रेम में भाजपा को रखिए। दिल्ली में लगातार दो बार अपनी आशाओं के सूरज पर ग्रहण लगने के बाद भी भाजपा उस प्रतिकूल बहाव वाले पानी में पूरी ताकत के साथ खड़ी रही। अंतत: 27 साल बाद उसके लिए सूर्योदय हो ही गया है। बीते दो विधानसभा चुनाव में लगातार मिली हार के बाद भी नरेंद्र मोदी सहित पार्टी के एक-एक नेता ने यहां तीसरी बार भी पूरी ताकत झोंकी। नतीजा सामने है।
ये नतीजे लगातार तीसरी बार जीरो पर ठहर गई कांग्रेस के लिए फिर फिक्र के साथ जिक्र करने का सबब बन गए हैं। आम आदमी पार्टी कोई बहुत बड़ा दल नहीं है। वह कभी भी अपनी ताकत से आगे नहीं बढ़ी। चुनांचे, उसने वही किया, जो कमजोर करते हैं। हर किस्म का प्रपंच रचा। झूठ और फरेब की सियासत को अपना मजहब बना लिया। वैकल्पिक राजनीतिक का विश्वास जगाकर उसकी हत्या की। उसने दिल्ली सहित पंजाब या गुजरात में कांग्रेस की कमजोरी के बूते ही सफलता हासिल की।
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की यह विडंबना है कि वो ठीक से बैसाखी भी नहीं बन पा रही है। कांग्रेस का सारा ध्यान अपने अतीत को भूलाकर वर्तमान में सिर्फ इस पर ठहरा हुआ है कि कैसे भी हो भाजपा या मोदी को हराया जाए। नतीजे उसे रसातल में पहुंचा रहे हंै। उत्तरप्रदेश में जब इस दल ने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया तो भी उसके पंजे को सफलता वाली भाग्य रेखाओं का सौभाग्य नहीं मिल सका। बिहार से लेकर महाराष्ट्र में भी उसने अन्य दलों का हाथ थामा और अपने हाथ में सांत्वना पुरस्कार से भी कम सीटें ही पा सकी। तो जब ये बार-बार साबित हो रहा है कि भाजपा से मुकाबले (जीतना तो बहुत दूर की बात है) के लिए कांग्रेस किसी अन्य पार्टी का साथ लेने से भी कामयाब नहीं हो सकती है, तो फिर ये दल दिल से अपनी इस हालत की तरफ ध्यान क्यों नहीं देता है? क्यों नहीं इस पार्टी को समझ आ रहा है कि खुद को मजबूत कर खुद के पांव पर खड़े हुए बगैर उसके लिए अपनी खोई ताकत को फिर से पाना नामुमकिन हो चुका है? क्या इस सच के आईने को देखने से पार्टी केवल इसलिए डर रही है कि उस आईने में आज वाले गांधी-नेहरू परिवार का काला प्रतिबिंब भी दिख जाएगा?
आज की कांग्रेस की समस्या यह भी कि वह चुनाव नहीं लड़ती, वो भाजपा से लड़ती है। जबकि भाजपा पूरे समय इलेक्शन मोड में रहती है और कांग्रेस सहित एक-एक विरोधी के खिलाफ वह किन्हीं भी हालात में मुंह नहीं मोड़ती। वरना कोई वजह ही नहीं थी कि कांग्रेस किसी समय के अपने मजबूत गढ़ वाले उत्तरप्रदेश से लेकर बिहार, मध्यप्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जर्जर भवन में तब्दील हो जाती।
अब क्या होगा? शायद यही कि दिल्ली में कांग्रेस के कुछ स्थानीय जिम्मेदारों को सियासी मृत्युदंड दे दिया जाए। लेकिन यह तो नहीं ही होगा कि दंड के वो असली भागी चिन्हित किए जाएं तो पार्टी के घोषित/अघोषित नेतृत्व के नाम पर उसे लगातार पराजय वाले दंश ही दे रहे हैं। कांग्रेस बीमार का इलाज करती है, बीमारी का नहीं और यही रीति-नीति आज वाली कांग्रेस के लिए नासूर बन चुकी है। दिल्ली में एक बार फिर इसी नासूर से मवाद बहा है और जिनके पास इस मर्ज की दवा है, वो खुद ही लुंज-पुंज हालत में बीमार हैं। यमुना का पानी भले ही जहरीला न हो, लेकिन कांग्रेस के भीतर जहर की जो नदी पूरे उन्माद के साथ बह रही है, उसे इस दल के वर्तमान कर्ताधर्ताओं के उन्माद पर चीरा लगाकर ही ठीक किया जा सकता है। जहर को जहर ही काटता है। इस दल को यदि मृत्युंजय बनना है तो अपने ऊपर से मृत्यु के कारकों को उसे खींचकर नीचे गिराना ही होगा।