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एक धक्का और दो, दीदी का गुरूर तोड़ दो

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नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का निश्चित ही करिश्माई व्यक्तित्व हो सकता है। किन्तु भारत का यह सफलतम प्रधानमंत्री भी फिलहाल तो हथेली पर सरसों जमाने (Rome was not built in a day) की स्थिति में नहीं है। इसलिए मैं उन लोगों से ज्यादा सहमत नहीं हो पा रहा, जो पश्चिम बंगाल (West Bengal) में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की सत्ता से रुखसती और उनकी जगह भाजपा (BJP) की सरकार बनने की बात कह रहे हैं।

छत्रपति शिवाजी (Shivaji the Warrior) से जुड़ा एक किसा है। कहा गया कि मुगलों से संघर्ष के दौरान एक रात वे किसी वृद्धा के निवास पर पहुंचे। उनका वेश बदला हुआ था। उन्हें भूखा देख वृद्धा ने खिचड़ी पकाई। कई दिन से भूखे शिवाजी यकायक उस भोजन पर टूट पड़े और गरमागरम खिचड़ी से उनका हाथ जल गया। तब वृद्धा ने कहा कि शिवाजी भी यही गलती कर रहे हैं। वे मुगलो का एक कोने से सफाया करने की बजाय सीधे उनके किले में हमला कर बार-बार नाकामी झेल रहे हैं। वृद्धा की बात समझकर शिवाजी ने खिचड़ी एक कोने से खाना शुरू की और उनके हाथ भी नहीं जले।





भाजपा भी इसी समझदारी के साथ आगे बढ़ रही है। वह विरोधी दलों के सीधे अंदर घुसकर प्रहार करने की होशियारी नहीं कर रही। यह पार्टी सधे हुए कदमों से अपने लक्ष्य की तरह बढ़ रही है। देश के सत्तारूढ़ वाले सियासी फलक से वामपंथियों की विदाई भाजपा ने पूरे इत्मिनान के साथ की। लाल सलाम वाले नारे के कमजोर होने का प्रयास शुरू भाजपा ने किया था, मगर त्रिपुरा (Tripura) में कमल खिलने के रेगिस्तान में झरना फूट पड़ने जैसे चमत्कार के बाद भी भाजपा ने इस दिशा में और आगे बढ़ने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई है। मोदी ने कभी ‘कांग्रेस मुक्त भारत” (Congress Mukt Bharat) का नारा दिया था। उसके अनुरूप ही माहौल भी बन गया है। किन्तु राजनीतिक अखाड़े (Political Arena) में भाजपा आज भी कांग्रेस को ज़रा भी हलके में नहीं ले रही है। क्योंकि भाजपा वह पार्टी है, जो कभी भी आशा के अतिरेक (आत्मरति भी कह सकते हैं) के नजदीक भी जाना पसंद नहीं करती है। संसद की किसी वक्त की दो सीटों से लेकर स्पष्ट बहुमत तक के सफर में भाजपा के लिए इस मगरूरियत से बचे रहने का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC) के मूल को भाजपा ने तेजी से कमजोर किया है. पार्टी मुस्लिम घुसपैठियों, ममता के तुष्टिकरण और हिन्दू-विरोधी नीतियों को लेकर पहले ही अपने पक्ष में माहौल बना चुकी है। गये लोकसभा चुनाव में तृणमूल और भाजपा के बीच वोट तालिका में बमुश्किल तीन फीसदी का ही अंतर रह गया था। बीजेपी को तृणमूल की 22 के मुकाबले 18 सीटों पर फतह हासिल हुई थी. यानी कि ममता के राज में भाजपा ने सशक्त उपस्थिति पहले ही दर्ज करवा दी है।





मगर फिर भी विधानसभा चुनाव अलग विषय होता है। इसमें मतदाता स्थानीय मुद्दों के आधार पर वोट करता है। इसलिए यह कहना फिलहाल मुश्किल है कि बीजेपी के लिए लोकसभा जैसी ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ वाली कामयाबी आने वाले मई में भी इंतज़ार कर रही है। मगर यह तय है कि ये परिणाम ममता के लिए शर्मनाक जीत और कांग्रेस तथा वामपंथियों के लिए नहाने के दौरान कपड़े चोरी हो जाने जैसी स्थिति के ही परिचायक साबित होंगे। भाजपा को अभी शायद कुछ और इंतज़ार काना पड़े। फिलहाल तो उसके लिए ‘एक धक्का और दो, दीदी का गुरूर तोड़ दो’ वाले उत्साह से भरे संयम वाली स्थिति बनती दिख रही है।

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