जीवन के विचलित कर देने वाले कंट्रास्ट हैं ये। टीवी की स्क्रीन पर उत्तर प्रदेश (UP) के चुनाव नतीजों की खबरें चल रही हैं। एक के बाद एक जीती हुई महिला प्रत्याशियों के गर्व और आत्मविश्वास से भरे चेहरे दिख रहे हैं। देखने वाले खुश हैं. नारी सशक्तिकरण की कल्पना और गाढ़ी जो हो रही है। लेकिन फिर उसी स्क्रीन पर अलीराजपुर (Alirajpur) में पेड़ से लटकाई गयी एक महिला दिख रही है। उसके अपने भाई उसे डंडों से बुरी तरह पीट रहे हैं। वह रो रही है। चीख रही है। आसपास के समुदाय में खड़ी महिलाएं भी मौन स्वीकृति के साथ यह सब देख रही हैं। अब धार (Dhar) की बारी है। टांडा (Tanda) में गठरी-सी बनी दो बहनें दिख रही हैं।उन्हें भी परिवार के ही लोगों ने डंडों से बुरी तरह पीटा है। पेड़ पर लटकाकर पीटी गयी औरत का कसूर यह था कि वह ससुराल (Husband’s home) से बार-बार मायके (Father’s home) आ जाती है। टांडा वाली बहनों ने अपने चचेरे भाइयों से फ़ोन पर बात करने का गुनाह किया है।
तो ये दो अवसर हैं कि हम एक ख़ास किस्म का कंप्यूटर ईजाद करें। उसकी मदद से देश में नारी प्रगति वाले तमाम अध्यायों को डिलीट कर दें। क्योंकि ये ताजा मामले तो बताते हैं कि हम फिर वहीं आ गए हैं, जहां से कभी शुरूआत हुई थी। स्त्री की ताकत और सम्मान बढ़ने के तमाम दावे किसी पेड़ पर लटकी औरत या जमीन पर मवेशी की तरह पिट रही लड़कियों के आगे थोथे हो चुके लगते हैं। और ये आज की बात नहीं है। इधर हम अबला को सबला कहते हैं और उधर कोई माया त्यागी (Maya Tyagi) पति की ह्त्या तथा सामूहिक दुराचार की शिकार हो जाती है। अभी किसी क्लास रूम में राजा राममोहन राय (Raja Ram Mohan Rai) के महान अवदान का पाठ पूरा पढ़ाया भी नहीं जाता है कि उधर राजस्थान (Rajasthan) के देवराला (Deorala) में एक रूपकुंवर (Roopkunwar) के सती हो जाने की खबर आ जाती है। यहां ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो…’ की पंक्ति पूरी तरह मुंह से निकल भी नहीं पाती कि वहां कोई राजनेता बलात्कारियों के समूह को, ‘लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है’ के जरिये महिमामंडित कर गुजरता है। यहां देश की संसद बलात्कारियों को फांसी देने की वकालत करती है और दूसरी तरफ एक अन्य नेता किसी मां-बेटी से परिवार के सामने किये गए सामूहिक दुराचार को अपनी सरकार को बदनाम करने की साजिश बता देता है।
मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में कांग्रेस (Congress) शासनकाल के छुआडलिया कांड (Chhuadalia rape and murder case) से लेकर मौजूदा भाजपा (BJP) सरकार के अलीराजपुर और धार वाले घटनाक्रम ये बताते हैं कि शायद कुछ भी नहीं बदला है। हम आज भी राज्य की उस भुक्तभोगी विवाहिता की तरह हैं, जिसे दहेज़ की मांग को लेकर ससुराल वालों ने एक कमरे में कई दिन तक बंद रखा था। वह उसी कमरे में मल-मूत्र का विसर्जन करती थी। यह बदबू बाहर न जा सके, इसके लिए उस पूरे घर में हर समय अगरबत्तियां जलाई जाती थीं। हम भी तो ऐसा ही कर रहे हैं। स्त्री उत्पीड़न की नंगी सच्चाई की दुर्गन्ध को दबाने के लिए महिला सशक्तिकरण की अगरबत्तियां सुलगाकर असलियत को छिपाने का काम कर रहे हैं।
हर तरफ अपार पॉजिटिविटी का माहौल है। कोई खुश है कि निर्भया (Nirbhaya) के कातिल फांसी पर लटक गए। किसी की तसल्ली है कि फटी जीन्स पर एतराज जताने वाले नेता की सोशल मीडिया पर बखिया उधेड़ी जा चुकी है। कोई गर्व से अपने समुदाय की मूछें उमेठ रहा है कि उसने आखिरकार फिल्म के परदे पर रानी पद्मावती (Padmavati) का असली नाम इस्तेमाल होने नहीं दिया। वाह! क्या उत्सव वाला समय है, जब बोर्ड परीक्षा के इम्तेहानों के नतीजों वाली खबरें, ‘लड़कियों ने फिर पीछे छोड़ा लड़कों को’ के रूप में सामने आती हैं। कितनी महान वैचारिक क्रांति कि बॉलीवुड (Bollywood) की फिल्मों और वेब सीरीज में लेस्बियन (Lesbian) वाले रिश्ते को जगह मिलने लगी है। हुकूमत हिल जाती है, जब आंदोलनकारी महिलाओं का एक समूह अपने बाल मुंडवा लेता है और वही हुकूमतें बहल जाती हैं, जब पर्याप्त रूप से चतुर सुजान उसकी मशीनरी यह कहती है कि अलीराजपुर और धार वाले मामलों के आरोपी पकड़ लिए गए हैं। ये बहलना नहीं तो और क्या है? हालांकि विडंबना यह कि सरकार और उसका अमला भी कानूनी प्रावधानों के तहत ही तो काम कर सकता है। हम उससे ‘आंख के बदले आंख’ (An eye for an eye) वाले अमानवीय रुख की कामना भी नहीं कर सकते। क्योंकि वह गलत होगा।
लेकिन ये समय है कि एक बार फिर समाज में सुधार की पुरजोर मुहिम छेड़ी जाए। समाज के उस सड़ते अंग को काट फेंका जाए, जो आज भी औरत को अपनी मिलकियत समझकर उस पर इस तरह के अत्याचार करता है । इसके लिए हम और आप मिलकर आवाज उठाने के हक़दार हैं और जिम्मेदार भी। क्योंकि इंसानों के नाम पर ऐसे दरिंदों को हमारे बीच रहने का कोई अधिकार नहीं है।
ज्यादा से ज्यादा क्यों होगा इन आरोपियों का? उन पर हमले का आरोप लगेगा। हो सकता है कि मामला जान लेने की कोशिश तक विस्तार भी पा जाए। फिर? अलीराजपुर वाले उस पेड़ पर किसे लटकाया जाएगा? टांडा वाले डंडों और लात-घूंसों का जवाब कौन देगा?
एक महिला का स्वर आज फिर याद आ रहा है। उन्होंने मुझे फ़ोन किया था। मामला राजधानी में एक सेक्स रैकेट का था। इसमें एक पुलिस अफसर का नाम भी शामिल था। वह महिला लगभग चीखते हुए बोली थी, ‘आखिर इस आदमी का आप फोटो क्यों नहीं छापते! मैं उस बास्टर्ड का चेहरा देखना चाहती हूं।’ मुझे लगता है कि वह व्यथित स्वर आज फिर कहीं किसी से अलीराजपुर के पेड़ पर कुछ पुरुषों की लाशें लटकता देखने की इच्छा जाहिर कर रहा होगा। क्योंकि इन आरोपियों को कानून की चौहद्दी के भीतर दी जा सकने वाली सजा किसी भी सूरत में ‘संतोषजनक’ नहीं होगा। शायद कानून में कुछ विधि सम्मत तब्दीलियों से असंतोष को संतोष के करीब लाने वाला बन सके।