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मोदी जी, इन सवालों का जवाब देना ही होगा आपको

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यह जरूरी नहीं है कि हर सवाल परंपरागत और तयशुदा खांचे वाला ही हो। उसमें ‘क्या’ ‘क्यों’ और ‘कैसे’ आदि की मौजूदगी शामिल की जाए। उसके समापन स्थल पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया जाना भी अनिवार्य नहीं है। तो ऐसे लाखों अनौपचारिक सवाल भी हवा में तैर रहे हैं। कोरोना अस्पतालों में तिल-तिल मरते लोग स्वयं में सवालिया निशान बन चुके हैं। अंतिम संस्कार (Funeral) स्थलों पर दाह या दहन संस्कार के लिए भी जगह की कमी से जूझ रही आबादी भी तो सुलगते पृष्ठों की शक्ल ले चुकी है। बाजार में आक्सीजन (Oxygen) या दवा के लिए कालाबाजारियों (Black marketers) और जमाखोरों के मकड़जाल में फंसी जनता भी अंतहीन सवालों वाले गुच्छा बन चुकी है। इस सबके बीच मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी पूछ ही लिया कि कोरोना की दूसरी लहर राष्ट्रीय आपदा नहीं तो आखिर फिर और क्या है?

ये सारे घोषित और अघोषित सवाल सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) से किये जा रहे हैं। यह होना पूरी तरह स्वाभाविक है। यदि साल-भर से अधिक समय से कोरोना (Corona) है तो फिर उससे जुड़े संसाधनों की कमी का रोना क्यों होना चाहिए? हालांकि यह पूरी तरह सही है कि संक्रमण के शिकारों की संख्या में भयावह तरीके का उछाल पूरी तरह अप्रत्याशित है। यह भी सत्य से परे नहीं है कि हालत के इतना बिगड़ने के पीछे खुद देश के राजनीतिक दलों (Political parties), उनके नेताओं, चुनाव आयोग (Election commission) और जनता का भी बहुत बड़ा हाथ है। लेकिन सच तो यह भी कि देश की हुकूमत क्यों लोगों के भरोसे को कायम नहीं रख पा रही है।





मोदी ने कहा तो लोगों ने थाली और दीपक के माध्यम से कोरोना के भय को चुनौती दे डाली। लेकिन अब आगे क्या? कोरोना तो पलटकर आ चुका है? पूरे आततायी स्वरूप के साथ वह नरसंहार कर रहा है। तो पीड़ा की सियाही में डूबा प्रश्न यह कि इस सबके बावजूद सरकार कई मोर्चों पर नाकाम क्यों होती जा रही है? क्यों वैक्सीन की कीमत पूरे देश में एक नहीं हो पा रही है? क्या ऐसा है, जो आक्सीजन (Oxygen) सहित जरूरी दवाओं (Essential medicines) की जमाखोरी या कालाबाजारी करने वालों के जिस्म में लोहा उतारने से सरकार को रोक रहा है? मध्यप्रदेश (Madhya pradesh) में भाजपा की ही सरकार है. तो फिर यहां भी मोदी ऐसा क्यों नहीं करवा पा रहे कि इस आपदा में तमाम नीच फितरत के भी अवसर तलाशने वालों को छठी का दूध याद दिलवा दिया जा सके? उलटा हो यह रहा है कि आपके ही दल वाले उत्तरप्रदेश में मध्यप्रदेश के लोगों की जान बचाने के लिए जरूरी आक्सीजन को लालफीताशाही का शिकार बनाकर अटका दिया जाता है।

एक बात तो पूरी तरह सही है। कोरोना की पहली लहर थमने का जश्न मनाने में बहुत जल्दी कर दी गयी। मोदी का प्रचार तंत्र अपने नेता को इसका श्रेय दिलाने के लिए टूट पड़ा। ऐसा करने वालों की स्वाभाविक कोशिश थी कि गैर-भाजपा शासित राज्यों में भी कोरोना की मंद रफ़्तार का श्रेय वहां की सरकार की बजाय दिल्ली के खाते में ही जाए। इस सबके चलते जय-जयकार का ऐसा सिलसिला चला कि लोगों के बीच यह धारणा घर कर गयी कि कोरोना पूरी तरह खत्म हो चुका है। बस लापरवाही के इसी वायरस के संक्रमण ने सारे किये-कराये पर पानी फेर दिया।





फिर चुनावी सियासत (Election politics) तो उस तवायफ की तरह चली, जो किसी शोकसभा में भी ठुमके लगा रही हो। केंद्रीय चुनाव आयोग (Central election commission) से लेकर सभी राजनीतिक दल इस बात से अविचलित दिखे कि कोरोना के बीच में चुनाव कराये जाने के प्रलयंकारी परिणाम सामने आ सकते हैं। नतीजे आशंका के अनुरूप आये और इन आशंकाओं से निकले परिणामों को लेकर उठ रहे सवालों का जवाब किसी के भी पास नहीं दिखता है। क्या जरूरी था कि इन पांच राज्यों में अभी चुनाव कराए ही जाते? अगर पहले वर्चुअल प्रचार (irtual promotion) कर सकते थे तो चुनाव के दौरान ऐसा क्यों नहीं हो सकता था? क्या जरूरत थी बड़ी रैलियां और रोड़ शो करने की? और क्या फर्क पड़ जाता कि जो सरकार पांच साल से चल रही है वो छह महीने, साल भर और आगे नहीं चल सकती थी। इस मामले में अगर संविधान में भी संशोधन करना होता तो वो क्यों नहीं हो सकता था। और खुद चुनाव आयोग क्यों नहीं सख्ती कर सकता था। क्या पश्चिम बंगाल (West Bengal) में वाकई आठ चरण में चुनाव होना चाहिए थे? तमाम सवाल हैं और इसमें मोदी सहित तमाम राजनीतिक और सत्ता का संचालन करने वाले ब्यूरोक्रेट (Bureaucrat) तक सब शामिल हैं। जनता तो अपनी लापरवाही की करनी भुगत ही रही है।

 

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मोदी जी, इस समय देश सवालों से गूंज रहा है। यह गूंज आसमान का भी सीना छलनी कर देने वाली है। क्योंकि उसमें आह से लेकर कराह और चीत्कार तक की केवल और केवल एक वजह है, कोरोना। वह कोरोना, जिससे जुड़े अनगिनत सवालों के उत्तर देश मांग रहा है। वह कोरोना, जिसने सत्ता की ताकत सहित तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों को बौना साबित कर दिया है। लेकिन ज्यादातर प्रश्न तो जाहिर तौर पर आपको लक्ष्य कर ही पूछे जा रहे हैं। उनका जवाब आपको देना ही होगा। हालांकि आप वन-वे कम्युनिकेशन (One-way communication) में भरोसा रखने वाले शख्स हैं, जो सिर्फ अपनी कहता है। सवाल सुनता नहीं है और तो फिर उत्तर तो कहां देगा? लेकिन ये लोकतंत्र है। कई बार ऐसा होता है कि जनता ही अपने सवालों के खुद जवाब ढुंढ़ लेती है। बस, समय का इंतजार करना उसकी बड़ी मजबूरी है।

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