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पांच राज्यों में जनादेश के मायने….

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पांच राज्यों के चुनाव परिणाम क्या 2024 के लिए संकेत हैं। चुनावी नतीजों से उत्साहित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने राजनीतिक पंड़ितों के हवाले से यह कहा जरूर है लेकिन मेरा मानना है कि ये दूर की कोड़ी है। लेकिन देश में विपक्ष के ताजा हालात और कांग्रेस (Congress) की दुर्दशा को देखते हुए इन चुनावों का यह मतलब निकालने में फिलहाल कोई हर्ज नहीं है कि 2024 भी मोदी और भाजपा (BJP) के नाम ही रहेगा। नतीजों के दूसरे दिन से ही मोदी ने गुजरात में रोड़ शो करके इसके संकेत भी दे दिए। महौल को बनाए रखने के लिए गरम लोहे (hot iron) पर चोट कैसे की जाती है, देश के बाकी राजनीतिक दलों को यह भाजपा से सीखना चाहिए। अब 2024 के पहले जितने भी राज्यों में विधानसभा के चुनाव होना है कमोवेश हर जगह भाजपा की सीधी लड़ाई कांग्रेस से ही होगी। कांग्रेस की दुर्दशा और नेतृत्व शून्यता के हालात में कांग्रेस की और आगे क्या गत हो सकती है, इसके संकेतों को पांच राज्यों के विधानसभा (Legislative Assembly of five states) में और किसी ने समझा हो या नहीं लेकिन भाजपा और मोदी ने तो समझ लिया है। इसलिए मोदी ने यह संकेत भी लगे हाथ दे दिए कि गुजरात में चुनाव तय समय से पहले हो सकते हैं।

चुनौती विहिन विपक्ष को देखकर कह सकते हैं देश के राजनीतिक शुभ-लाभों के लिहाज से 2024 की प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी है। अगले आम चुनाव (General election) में भाजपा के ही दम पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को यदि तीसरी बार भी स्पष्ट बहुमत मिल गया तो शेष विपक्षी दलों के लिए राष्ट्रीय फलक पर और लंबे समय तक अस्त और पस्त होने की नौबत आना तय है। ऐसा होने पर तृणमूल कांग्रेस (Congress), समाजवादी पार्टी (SP), बहुजन समाज पार्टी (BSP), दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियां (Regional Parties of South India), सोवियत संघ (the Soviet Union) की भांति विभिन्न टुकड़ों में बंटे जनता दल के सभी स्वरूपों और वामपंथी युगल हेतु यही विकल्प रह जाएगा कि वह अपने-अपने भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद में ही अपने प्रभाव वाले राज्यों में ही ‘जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लिया’ का जाप करते रहें। बेशक आम आदमी पार्टी इस अभिशप्त होने वाली स्थिति से मुक्त रहेगी। पंजाब (Punjab) के नतीजों से उसे अभी से लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) के लिए एक ताकत मिल गयी है। बशर्ते कि भगवंत मान (Bhagwant Man) के डगमग कदम बतौर मुख्यमंत्री सधे हुए तरीके से आगे बढ़ सके। जाहिर है इससे उत्साहित आप अब गुजरात में जोर अजमाईश करेंगी। यह लंबे समय से राज कर रही भाजपा के लिए फायदे का सौदा होगा। आम आदमी पार्टी की गुजरात में मौजूदगी कांग्रेस को और गर्त में धकेलेगी।

पांच राज्यों के नतीजों ने भाजपा-विरोधी दलों के स्वयंभू अग्रणी चेहरों के आगे लगे आइनों पर जमा गलतफहमी की धूल की कई परतों को साफ कर दिया है। राहुल गांधी की ही तरह प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) भी फिसड्डी साबित हुई हैं। उत्तरप्रदेश में ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ के दंभ भरे नारे ने कांग्रेस को शर्मनाक स्थिति में ला दिया। उत्तरप्रदेश में उसे महज दो फीसदी वोट मिला। मणिपुर को छोड़ कर शेष चार राज्यों में गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) ने चुनावों को सीधे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ दिया था। वजह साफ है। यूपी में ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ (ladaki hoon lad sakati hoon) का नारा वस्तुत: प्रियंका की इस जिद का परिचायक था कि वह बीते लोकसभा चुनाव में इस राज्य में कांग्रेस को अपने नेतृत्व में शर्मनाक हार के धब्बों को मिटा कर फेंकना चाह रही थीं। पंजाब में जीत के द्वारा यह परिवार साबित करना चाहता था कि नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) के ‘बालहठ’ की खातिर इस प्रदेश में खेले गए सियासी सरकस को सही ठहराया जा सके। शायद ठसक इस बात की भी थी कि उत्तराखंड में इसी परिवार की दम पर विजय हासिल कर हरीश रावत और उनके समर्थकों को उनके कद का अहसास दिलाया जा सके। लेकिन प्रियंका और राहुल इस तथ्य को नजरअंदाज कर गए कि वोटर उस कोटर में नहीं बैठा है, जहां गांधी-नेहरू परिवार के नाम का चुग्गा चुनने को ही जीवन के पुण्य संचयका इकलौता मार्ग मान लिया जाता है। इस तरह कांग्रेस में परिवार का अहंकार एक फिर भारी पड़ गया है।

मुगालते में रहना अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को भी महंगा पड़ा। सन 2017 के बाद करीब साढ़े चार साल तक अखिलेश इस सच से आंखें मूंदे रहे कि समाजवादी पार्टी के लिए मुस्लिम-यादव मतों (Muslim-Yadav votes) की जुगलबंदी के ही भरोसे रहने का समय गुजर चुका है। मायावती यह भ्रम पाली रहीं कि अखिलेश तथा योगी के पांच-पांच साल के बाद राज्य का मतदाता स्वत: ही इस बार बसपा के पक्ष में बहुमत का प्रबंध कर देगा। इसी तरह पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के लिए ये भुलावा बहुत ही बड़ा छलावा साबित हुआ कि कृषि कानूनों के विरोध में केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने की नौटंकी का उसे राजनीतिक लाभ मिल जाएगा। पंजाब में शीर्ष राजनीतिक दलों की निराशा से उपजे शून्य को भरने की ताकत वहां भाजपा में थी ही नहीं, इसलिए इसका फायदा स्वाभाविक रूप से आम आदमी पार्टी (AAP) को मिला। भाजपा हमेशा ही वहां अकाली दल की पिछलग्गू पार्टी बनी रही। अकालियों के अलग होने के बाद उसने कांग्रेस से अलग हुए केप्टन अमरिंदर सिंह (Captain Amarinder Singh) पर भरोसा किया। जाहिर है नतीजा सिफर ही आना था।

तो जो-जो और जहां-जहां हारे, उन-उन ने, वहां-वहां पर अपनी सोच के आगे बाकी दूसरे फैक्टर्स को महत्व देना उचित नहीं समझा। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण था, मतदाता के मन की थाह लेने में असफल रहना। इसीलिए अब सभी दलों के लिए यह प्रक्रिया दिल से जरूरी हो गयी है कि वे जनादेश के सम्मान में जुटे रहें मैदान में। जनता ने आपको जो भूमिका दी है, उसे पूरी ताकत से निभाएं बिना भला बात कैसे बनेगी। भाजपा ने पार्ट टाइम राजनीति करने वालों के लिए अब जगह नहीं छोड़ी है। ( जारी)

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