कमलनाथ यही सोचकर गनीमत मना रहे होंगे कि यह सब उनके चलते हुआ लेकिन तब हुआ, जब वे वहां से सकुशल निकल गए थे। इंदौर के खालसा कॉलेज में गुरु नानक देव जी की जयंती के कार्यक्रम में सिख समाज के पंजाब से आए कीर्तनकार मनप्रीत सिंह कानपुरी आपा खो बैठे। क्योंकि उस कार्यक्रम में कमलनाथ न सिर्फ शामिल हुए, बल्कि सरोपा देकर उनका सम्मान भी किया गया। अव्वल तो कीर्तनकार ने अंदर जाने से ही मना कर दिया। बमुश्किल भीतर जाने को राजी हुए तो फिर नाराजी जताने का कोई मौका नहीं छोड़ा। कांग्रेस शासनकाल के सिख नरसंहार की मंच से याद दिलाई। बता दें कि हजारों बेगुनाह सिखों की हत्या के इस मामले में कमलनाथ पर भी आरोप लगते रहे हैं। मनप्रीत सिंह का क्रोध यहीं नहीं थमा। उन्होंने यह शपथ लेकर आयोजकों को सकते में ला दिया कि अब वह दोबारा कभी भी इंदौर की जमीन पर पांव नहीं रखेंगे।
यकीनन 1984 को लेकर सिखों की वर्तमान पीढ़ी का क्रोध कुछ कम होने लगा है। खुद पंजाब की जनता ने वर्ष 1992 और 2007 में इस दल के पक्ष में जनादेश दिया। ऐसा केवल तब हो सका, जब सिख-विरोध दंगों के एक भी आरोपी को कांग्रेस ने पंजाब के आसपास फटकने तक नहीं दिया। हालत यह रही कि बीते विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी ने नाथ को पंजाब का प्रभारी बनाया और फिर चौबीस घंटे से भी कम समय के भीतर यह निर्णय वापस ले लिया। सिख समुदाय के जख्म अब भी पूरी तरह सूखे नहीं हैं। फिर नाथ को तो मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए भी पंजाब और उत्तराखंड तक से विरोध का सामना करना पड़ गया था। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस भले ही राजनीतिक पुरस्कारों की बदौलत सिखों के एक तबके को अपनी तरफ ला सकी है, लेकिन सियासत से परे वाले इस वर्ग के लोगों का विश्वास जीतने के लिए उसे और बहुत अधिक मेहनत करना होगी।
नाथ एक बहुत बड़ी चूक कर गए। कल जिस समय राहुल गांधी गुरुद्वारे में प्रकाश पर्व की अरदास में शामिल हुए, तब कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर इसकी तस्वीरें और वीडियो डालने में कोई चूक नहीं की। जाहिर है कि यह पार्टी की सिख समुदाय के बीच स्वीकार्यता को दिखाने का एक बड़ा अवसर था, लेकिन नाथ का जिस तरह, जिन शब्दों में तथा जिस शीर्ष स्तर से विरोध हुआ, उसके कांग्रेस के सारे किये-कराये पर पानी फेर दिया है। इस समाज में कीर्तनकारों का बहुत अधिक सम्मान है और उनके मुंह से निकले स्वरों ने एक बार फिर देश-भर में यह याद दिला दिया है कि क्यों सिख समुदाय को कांग्रेस के लिए अपनी नाराजगी भूलना नहीं चाहिए।
सिख-विरोधी दंगों के बीच राजीव गांधी ने यह कहकर आरोपियों का बचाव किया था कि जब कोई बड़ा पेड़ हिलता है तो जमीन कांपती है। इस नरसंहार के लिए गंभीर आरोपों से घिरे एचकेएल भगत और माखनलाल फोतेदार अब दुनिया में नहीं रहे। सज्जन कुमार को सजा हुई। जगदीश टाइटलर पार्टी में हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। सिखों के नफरत की हद तक वाले क्रोध के शिकार बने बूटा सिंह भी स्वर्गवासी हो चुके हैं। ले देकर कमलनाथ या फिर इक्का-दुक्का कोई नेता ही ऐसे होंगे, जो सिखों के निशाने पर होने के बाद भी पार्टी में सुरक्षित हैं। फिर भी इंदौर की घटना बताती है कि यदि कांग्रेस को इस समुदाय में फिर अपनी जड़ करना है तो उसे इस काम में अपनी एक-एक बाधा को जड़ से ही खत्म करना होगा। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? क्योंकि कमलनाथ वे हैं, जिन्होंने इमरती देवी प्रकरण में राहुल गांधी की नाराजगी को धता बताते हुए माफी मांगने से साफ इंकार कर दिया था। उसके बाद भी वह ठाठ से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने हुए हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कि पूरे गांधी-नेहरू परिवार को बगावती तेवर दिखाने के बावजूद अशोक गहलोत आज भी राजस्थान में ठप्पे से शासन कर रहे हैं।