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सुन रहे हैं अरुण यादव जी!

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अरुण यादव (Arun Yadav) का नए सिरे से सियासी अरुणोदय होने से पहले ही इसकी संभावनाओं को ग्रहण लग गया। खंडवा लोकसभा सीट (Khandwa Lok Sabha seat) को लेकर जो सपने वह देख रहे थे, अब वह सभी खंड-खंड हो गए हैं। कल रविवार की दोपहर तक शेरो-शायरी के माध्यम से सोशल मीडिया (social media) पर गरज रहे यादव रवि के अस्ताचल में जाने के साथ ही स्वयं की उम्मीदों के सूरज के अस्त (setting sun) होने की भी घोषणा कर बैठे। उन्होंने कह दिया कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इतना कह देने भर से यादव की लड़ाई खत्म नहीं हुई है। बल्कि उसने और वेग पकड़ लिया है। Yadav अब कभी अपने सम्मान तो कभी अपमान के लिए अपनों से ही और ताकत के साथ लड़ने की तैयारी में निश्चित ही जुट गए होंगे।

प्रदेश अध्यक्ष पद से हटने के बाद से यादव जो जहर के घूंट पी रहे हैं, उनका कसैलापन इतनी आसानी से मिटने वाला नहीं है। तो अब हमें तैयार रहना चाहिए उपचुनाव (by-election) के बीच में कांग्रेस की तरफ से ‘सेबोटेज’ जैसे शब्द सुनने के लिए। कमलनाथ (Kamalnath) को मानना पड़ेगा। एक झटके में यादव से अगला-पिछला सारा हिसाब उन्होंने चुकता कर दिया। इन चर्चाओं पर अविश्वास का कोई आधार नहीं है कि खुद नाथ ही यादव की दावेदारी में सबसे बड़ा अड़ंगा थे। लेकिन आगे की चुनौतियां नाथ के लिए बड़ी हैं। खंडवा में यादव के विकल्प के रूप में एक ऐसा चेहरा नाथ को लाना होगा, जो कांग्रेस को इस सीट पर जीत दिलवा सके। सुरेन्द्र सिंह शेरा (Surendra Singh Shera) जमकर गरज रहे हैं। अपनी पत्नी जयश्री (Jay Shri) को खंडवा से कांग्रेस टिकट की सक्षम प्रत्याशी बता रहे हैं। लेकिन अंदरखाने की खबर ये है कि खुद शेरा का असर बुरहानपुर (Burhanpur) से बाहर न के बराबर है। फिर बात आती है सचिन बिरला की। तो उनका भी प्रभाव बड़वाह से आगे नहीं जा पा रहा है। कांग्रेस के पास कुछ और नाम भी हैं, किंतु ये निर्विवाद सत्य है कि खंडवा से पूर्व सांसद तथा इस सीट से एक से अधिक बार भाग्य आजमा चुके अरुण यादव बाकी सभी संभावनाओं से बेहतर साबित हो सकते थे। इसीलिये जब दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) ने यादव को अग्रिम शुभकामनाएं (best wishes in advance) दी, तो सभी को एकबारगी लगा कि कांग्रेस इस सीट को कुछ गंभीरता से ले रही है। लेकिन फिर मामला बिगड़ता चला गया। यादव की पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखी चिट्ठी भी उनके लिए काम नहीं आ सकी।

इन हालात ने भाजपा के लिए खंडवा में संभावनाएं और मजबूत कर दी हैं। यह तय है कि यादव अब कांग्रेस उम्मीदवार के लिए ठीक वैसी ही विशिष्ट निष्ठा रखेंगे, जैसी कांग्रेस में आमतौर पर विरोधी गुटों के लिए प्रदर्शित की जाती रही है। इन हालात का जिम्मेदार मुख्य रूप से कमलनाथ को ही ठहराया जा सकता है। तब जब आरोप लगेंगे तो हो सकता है कुछ हलके अंदाज में यह भी कह दिया जाए कि बेटे नकुल नाथ को मध्यप्रदेश (Madhya pradesh) से कांग्रेस (Congress) का इकलौता सांसद कायम रखने की बचकाना कोशिश में कमलनाथ ने खंडवा में भाजपा को वॉकओवर (Walkover to BJP) दे दिया।

चौबीस घंटे से भी कम अंतराल में कांग्रेस की आदिवासी नेता सुलोचना रावत (Tribal leader Sulochana Rawat) भाजपा (BJP) में आ जाती हैं। युवक कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष विक्रांत भूरिया जोबट सीट से चुनाव लड़ने से इंकार कर देते हैं। फिर पिछड़ा वर्ग के अरुण यादव नाटकीय तरीके से दावेदारी वापस ले लेते हैं। ये सब उस समय हो रहा है, जब प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर भाजपा ने कांग्रेस पर चौ-तरफा हमला बोल रखा है। ऐसा नहीं कि कमलनाथ इन हालात की गंभीरता को न समझते हों। किंतु शायद वह यह भी बखूबी समझ रहे होंगे कि राज्य की मौजूदा सुप्तावस्था में पड़ी कांग्रेस में यदि कोई भी अन्य चेहरा शक्तिशाली हो गया, तो यह उनके लिए खतरे की घंटी हो सकती है। और यह शक्ति यादव आसानी से हासिल कर सकते थे, बशर्ते कि उन्हें टिकट मिल जाता और बशर्ते यह भी कि वह जीत जाते। ये शर्तें इसलिए लागू हैं कि भाजपा के दोनों संभावित उम्मीदवार अर्चना चिटनीस (Archana Chitnis) तथा हर्षवर्धन सिंह (Harshvardhan Singh)काफी मजबूत नजर आ रहे हैं। वैसे यादव के शक्तिशाली हो जाने के बाद भी यह संभव नहीं था कि प्रदेश अध्यक्ष का ओहदा दोबारा उनकी गोद में आ गिरता। फिर भी यह तो हो ही सकता था कि वे उस प्रदेश संगठन में अपना दबदबा कुछ बढ़ा लेते, जिस संगठन की सारी शक्ति फिलहाल नाथ तथा दिग्विजय सिंह दबाये बैठे हैं।

बहुत संभव है कि अरुण यादव ने बीती शाम बहुत शिद्दत से दिवंगत पिता सुभाष यादव (Subhash Yadav) को एक बार फिर याद किया हो। कमलनाथ के साथ जिस लड़ाई में अरुण ने हथियार डाल दिए, दिग्विजय के साथ वैसी ही लड़ाई में सुभाष यादव वांछित जीत न मिल पाने के बावजूद लगातार डटे रहे थे। यह बात तबकि है, जब भोपाल में बनी अपेक्स बैंक की छह मंजिला इमारत भी सुभाष यादव के कद के सामने बौनी नजर आती थी। एक समय इस बैंक के चेयरमैन पद पर रहते हुए यादव के लिए भारी असुविधाजनक हालात बन गए थे। लेकिन वह जल्दी ही स्थितियों को फिर अपने पक्ष में करने में सफल रहे। तक एक राष्ट्रीय पत्रिका ने लिखा था कि कठिन परिस्थितियों के बाद भी अपेक्स बैंक में सुभाष यादव के गूंजते ठहाके बता रहे थे कि वह अपना कुछ भी न बिगड़ने की बात से आश्वस्त हैं। वह सुभाष यादव थे। यह उनके बेटे अरुण यादव हैं। हो सकता है कि जुझारू होने का भाव विरासत में न मिलता हो, लेकिन वह फितरत में तो मिल सकता है। सुन रहे हैं ना अरुण यादव जी!

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