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इस पीड़ा का निदान तलाशना जरूरी है….. 

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किसी कलंक को ढोना जितना अधिक घातक है, उतना ही अधिक घातक उस कलंक को धोने में किया जाने वाला विलंब होता है। फिर भी सात दशक से भी अधिक समय से ढोये जा रहे एक पाप को अब कहीं जाकर धोने की प्रक्रिया के लिए देर आयद, दुरुस्त आयद कहकर ही संतोष प्रकट किया जा सकता है। शनिवार को जब गणतंत्र दिवस समारोह (republic day celebration) के समापन में बीटिंग दि रिट्रीट (beating the retreat) की धुन बजेगी तो वाकई यह अहसास तो होगा ही कि भारत बदल रहा है।

इस साल 29 जनवरी के बीटिंग दि रिट्रीट कार्यक्रम में वह धुन नहीं बजेगी, जो अब तक इस देश एवं सेना (Army) के गौरव गान (pride anthem) के साथ किसी घुन की तरह चिपकी हुई थी। ‘अबाइड विद मी (abide with me)’ ईसाई स्तुति गीतों में शामिल है। इस लिहाज से उसे गणतंत्र समारोह के समापन में बजाने का भला क्या तुक था, किंतु जब तहों में उतरकर उत्तर तलाशने जाएंगे तो लगता है कि इस धुन को कलंक का विशेषण देना गलत नहीं हैं। गणतंत्र दिवस के तीन दिन बाद होने वाले पारंपरिक आयोजन का समापन इसी धुन से होता था। कहा जाता है कि यह चयन महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने किया था। हैरत होती है कि जिन बापू ने विदेशी शासकों (foreign rulers) को  खदेड़ने के लिए स्वदेशी  की बात कही, वही बापू देश की सेना के गौरव से जुड़े अहम विषय पर किसी विदेश धार्मिक धुन की तरफ उन्मुख हो गए थे। खैर, अब इस धुन की जगह सेना के बैरक में लौटने के प्रतीकात्मक आयोजन पर ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’ की धुन बजा करेगी।

आखिर क्यों कर ऐसा हुआ कि सेना को अब तक अपनी बैरक के मुहाने पर किसी विदेशी धुन को अपनाना पड़ा? कहीं पढ़ा हुआ एक साक्षात्कार याद आता है। किसी पत्रकार ने बापू से पूछा था कि क्यों उन्होंने संसदीय दल की मर्जी के विरुद्ध सरदार वल्लभ भाई पटेल (Sardar Vallabh Bhai Patel) की जगह जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) को प्रधानमंत्री (PM) बनवाया? गांधी का उत्तर था, ‘क्योंकि नेहरू ही कांग्रेस में इकलौते अंग्रेज थे।’ क्या ‘अबाइड विद मी’ का चयन भी किसी अंग्रेज-परस्त सोच का ही नतीजा था? रंगरेज के डब्बे में गिरकर रंग बदल जाना अलग बात है। यहां तो बात अंग्रेज के चरणों में गिरकर रंग बदल लेने वाली दिख रही है।

बापू पर इस देश में जितना अधिक लिखा गया या जो उससे भी अधिक लिखवाया गया है, उस सभी को पढ़कर इस सवाल का जवाब पाने में लंबा समय लग जाएगा, कि आखिर ‘अबाइड विद मी’ में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे थे कि गांधी जी ने इसे बीटिंग दि रिट्रीट में ‘शो स्टॉपर (shows stopper)’ जितनी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए चुना था? गनीमत है कि नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi government) ने इस धुन को लेकर बहुत आवश्यक बदलाव का मार्ग साफ कर दिया है। लेकिन ऐसा पहले क्यों नहीं किया गया?

आपातकाल (emergency) के समय देश के संविधान की आत्मा का गला घोंटा गया। बाबा साहब अंबेडकर (Babasaheb Ambedkar) की सोच के साथ अनाचार करते हुए संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द ठूंस दिया गया। यदि ये सचमुच एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा के साथ किया गया तो फिर यह क्यों नहीं  हुआ कि उसी समय ‘अबाइड विद मी’ हटा दिया गया? क्योंकि इस गीत में तो एक जगह साफ लिखा गया है कि ‘मेरी बंद आंखों के सामने तू अपना क्रूस थामे रखना’ (((Hold thou thy cross before my closing eyes) )  क्या इस तरह एक धर्म विशेष के प्रतीकों को सेना के कांधे पर विराजित रहने देना धर्मनिरपेक्षता की भावना का अपमान करने जैसा काम नहीं था?

ताज्जुब तो यह है कि धर्मनिरपेक्षता के जिन पैरोकारों को योग या वन्देमातरम में धर्म की ‘बदबू’ आ जाती है, उन्हें भी ‘अबाइड विद मी (abide with me)’ पर कोई आपत्ति नहीं हुई। ये दोमुंहा आचरण समझ से परे है। खासतौर से तब, जबकि योग और वन्देमातरम में अप्रत्यक्ष रूप से भी किसी धर्म या देवता का कोई उल्लेख नहीं है। अतीत की भूल यदि शूल की चुभन देने लगे तो फिर उसका उपचार नितांत आवश्यक हो जाता है। इस ताजा निर्णय से एक चुभन का दर्द कम हुआ है, किन्तु इस भूल के मूल में छिपे स्वार्थजन्य कारणों का सच पता न लगने की पीड़ा का भी तो निदान तलाशा जाना जरूरी है।

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