उत्तरप्रदेश-अंतिम
‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं (ladaki hoon, lad sakati hoon)।’ उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में कांग्रेस (Congress) के इस नारे का भविष्य तो नहीं पता, लेकिन वर्तमान में यह नारा प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) पर खरा साबित हो रहा है। सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) स्वास्थ्य संबंधी कारणों से पहले जितनी सक्रिय नहीं हैं। राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का आलम यह है कि अब उनकी सक्रियता की आहट मात्र से कांग्रेस के सच्चे हितैषी दहल जाने लगे हैं। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की लड़ाई का दारोमदार प्रियंका पर ही आ टिका है। बाकी पार्टी की प्रदेश इकाई इतनी कमजोर है कि अकेले उसकी दम पर कांग्रेस को यहां दहाई की संख्या में सीट मिल पाने तक की उम्मीद नहीं है। समूचा दल श्रीमती वाड्रा से किसी चमत्कार की उम्मीद में कृपा बनती दिखने की आशा से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में खोने को कुछ है नहीं लिहाजा यहां प्रियंका ने चालीस फीसदी महिला उम्मीदवारों (Forty percent female candidates) को टिकट दिया। लेकिन वे ऐसा पंजाब (Punjab), गोवा (Goa) या उत्तराखंड (Uttarakhand) में नहीं कर सकी हैं। क्योंकि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की संभावनाएं है। यह बात और है कि प्रियंका की हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद गए लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में यहां कांग्रेस की सदस्य संख्या दो से घटकर एक हो गयी थी। उस अमेठी सीट (Amethi seat) पर वाड्रा के भाई राहुल हार गए, जो सीट इससे पहले तक कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी।
तो उत्तरप्रदेश का यह चुनाव कांग्रेस से अधिक नेहरू-गांधी परिवार (Nehru-Gandhi family) की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। बीते विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (SP) से गठबंधन के राहुल के फॉमूल ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया था। इसलिए इस बार प्रियंका ने कमान संभाली है। और वे यदि पार्टी के वर्तमान वोट प्रतिशत को सात से दस तक भी ले जा सकीं, तो इसे प्रियंका की बड़ी उपलब्धि माना जाएगा। कांग्रेस के पास अब इस राज्य में खोने के लिए और कुछ भी नहीं बचा है और पाने के लिए उसे जितना मजबूत होना है, उतनी मजबूती जुटाने में अभी इस दल को बहुत लंबा समय लगना तय है। हालांकि ऐसी कोई इच्छाशक्ति कांग्रेस प्रदर्शित नहीं कर पा रही है। इसलिए 1989 से लेकर वर्तमान तक के सियासी वनवास की जड़ता से उबरना निश्चित ही कांग्रेस के लिए आसान नहीं रह गया है। फिर भी एक बात के लिए इस दल की प्रशंसा करना होगी कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच भी कांग्रेस ने अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला किया और इसमें सफलता के लिए श्रीमती वाड्रा अपने स्तर पर पूरा दम भी लगा रही हैं। सवाल यह कि क्या केवल एक लड़की लड़ रही है, या उसके साथ पूरी की पूरी पार्टी भी खड़ी हुई है? अब पार्टी की तो जमीन ही नहीं बची है तो यह सवाल भी बेमानी सा है। इसलिए दस मार्च को पता चलेगा कि भविष्य की भारतीय राजनीति में प्रियंका का पोटेंशियल क्या बन पाएगा।
बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने चुनाव के एन मौके के आसपास आकर अचानक जिस तरह ताकत का प्रदर्शन किया, वह सियासी गलियारों में चर्चा की वजह बना हुआ है। मायावती (Mayawati) के समर्थक मानते हैं कि बहनजी खयाली पुलाव की कड़ाही में चम्मच चलाने में कोई रुचि नहीं रखती हैं। वह ऐसी सक्रियता तब ही दिखाती हैं, जब कोई ठोस सियासी खुराक मिलने की पुख्ता उम्मीद हो। ऐसे में पूरा समय खामोशी से बीताने के बाद एन चुनाव के मौके पर बहनजी ने अपने पत्ते खोलना शुरू किए। जिस तादाद में उन्होंने मुस्लिम उम्मीदवारों (Muslim candidates) को टिकट दिए हैं, उससे समाजवादी पार्टी में भी बैचेनी है। कांग्रेस को इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसे पता है अल्पसंख्यक उसे वोट देकर अपना वोट खराब नहीं करेंगे। चुनाव के अंतिम चरण से पहले बसपा सुप्रीमो मायावती (BSP supremo Mayawati) आत्मविश्वास से भरे जो तेवर दिखा रही हैं, उन्हें भी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता हैं। अब तक बसपा के पास बीस प्र्रतिशत वोटर सुरक्षित रहा है लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार की कमजोर तबकों को सीधा लाभ देने की जो नीतियां हैं, लोग उम्मीद लगा रहे हैँ कि वे मायावती के लिए झटका साबित हो सकती हैं।
जाति की लहरों पर सवार होकर अपना दल (Apna Dal), राष्ट्रीय लोकदल (RLD), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (Suheldev Bharatiya Samaj Party) और आल इंडिया मजलिसे-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (All India Majlise-Ittehadul Muslimeen) जैसी छोटी कश्तियां भी अलग-अलग राष्ट्रीय दलों वाले समंदर में अपने लिए संभावनाएं तलाश रहीं है। चुनाव यदि कांटे की टक्कर का होने जा रहा है तो इन छोटे राजनीतिक दलों का राजयोग भी जोर मारेगा। बाकी चुनावी संभावनाओं की तलाश किस-किस को मंजिल पर ले जाती है, यह 10 मार्च की शाम तक स्पष्ट होने लगेगा। फिलहाल तो जो समझ में आ रहा वो यह है कि उत्तर प्रदेश के इस राजनीतिक घमासान के अंतिम परिणाम को लेकर स्पष्ट तौर से कुछ भी कहना मुश्किल भरा है।