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मिश्रा के मामले में इस अंतर को समझते हैं सभी

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निहितार्थ: इसे पब्लिसिटी स्टंट (publicity stunt) कहना शायद ठीक नहीं होगा। अलबत्ता इस सबको खालिस रूप से दूसरों की खातिर जान पर खेल जाने वाली बात भी नहीं माना जा सकता है। तो एक बीच का रास्ता बचता है। यह मान लें कि खतरे का अंदाज नहीं लगाया जा सका और जब संकट ने अपनी गंभीरता का परिचय दिया तो प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा (Home Minister Narottam Mishra) ने धीरज नहीं खोया। जिनकी जान बचाने गए थे उनके साथ-साथ अपनी जान की भी हिफाजत कर ली। काफी संयत तरीके से।

दतिया के पास कोठरा गांव में कल जो दृश्य दिखा, उसे लेकर अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं। इनमें से कुछ नजरिये से प्रेरित भी हैं। गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा अपने इलाके में बाढ़ पीड़ितों के बीच थे। रेस्क्यू आपरेशन (rescue operation) के दौरान स्थिति यह हुई कि खुद मंत्रीजी को भी एयर लिफ्ट करना पड़ गया। इसका वीडियो वायरल हो रहा है। समाचार सुर्खियों में है। कोई कह रहा है कि मंत्री को खुद का रेस्क्यू करवाना पड़ा। किसी का मत है कि मिश्रा दूसरों को सुरक्षित बचाने के बाद स्वाभाविक मानवीय स्वभाव के तहत खुद की भी रक्षा के लिए रस्सी के सहारे हेलीकॉप्टर (helicopter) पर चढ़ गए। अब इस घटना का वीडियो वायरल हो रहा ह ैतो भी मैं अपने स्तर पर इसे नियोजित प्रचार की बात नहीं मानता।

मिश्रा को एक MLA से लेकर कभी मंत्री तो एक दौर में सरकार के संकट मोचक (spin doctors) के रूप में भी नजदीक से देखा है। लगभग सभी मौकों पर प्रचार और चर्चा, दोनों खुद ही उनके हिस्से में आ जाते हैं। महकमे भी ऐसे मिले कि सुर्खियों में रहना स्वाभाविक प्रक्रिया हो जाती है। यदि किसी के पास जनसंपर्क विभाग हो तो मीडिया से उसका घिरा होना तय है। संसदीय कार्यमंत्री (parliamentary affairs minister) हो तो विधानसभा के सत्र के दौरान चर्चा में होना अस्वाभिवक नहीं है। कोरोना काल (Corona Time) में यदि आप स्वास्थ्य महकमा संभाल रहे हैं तो भी आप खबरों में प्रमुखता से दिखेंगे ही। राज्य की कानून-व्यवस्था वाला भारी-भरकम दायित्व मिले तो समाचारों में बने रहना तो एक चलन का हिस्सा हो जाता है। यह सब नरोत्तम के साथ हुआ और कल भी यही हुआ होगा। प्रचार पाने और प्रचार लेने में बड़ा अंतर होता है। इसे यूं समझिये। प्रद्युम्न सिंह तोमर (Pradyuman Singh Tomar) प्रचार लेने में सक्रिय रहते हैं। कभी नाले में उतरकर सफाई करना तो कभी खम्भे पर चढ़कर बिजली की व्यवस्था देखना, ये मूलत: किसी मन्त्री के काम का हिस्सा नहीं होता। उससे यह अपेक्षा होती है कि वह नाले में उतरने और पोल पर चढ़ने के लिए पाबन्द किये गए अमले की इस काम में कोताही न होने दे। लेकिन काम करवाने वाली यह जिम्मेदारी प्राय: आशातीत सुर्खियां पाने का सफल जतन साबित नहीं होती हैं। जबकि दूसरों का काम खुद करना (फिर वह एकाध बार का या प्रतीकात्मक मामला ही क्यों न हो) एक झटके में आपको किसी महानायक की श्रेणी में ला सकता है।

नरोत्तम ने शायद कभी भी इस तरीके का प्रदर्शन नहीं किया। वह तीखी बात कहकर बयान के जरिये अधिक कवरेज हासिल कर लेते हैं, किन्तु ये बयान वैसे अनर्गल नहीं होते, जिस तरह के विचित्र प्रयोग से कई जनप्रतिनिधि मीडिया Media() के जरिये लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींच लेते हैं। मिश्रा की वैचारिक आक्रामकता में अस्थिरता नहीं दिखती। वह उन नेताओं में से नहीं हैं, जो कैमरा शुरू होते ही आग उगलते हैं और कैमरे के बंद होते ही जो साथ खड़े किसी चिलमची से मुस्कुराते हुए ‘कहो! कैसी रही?’ वाला आत्मरति में पगा सवाल नहीं दागते। वह जानते हैं कि किस विषय पर किन तथ्यों और शब्दों के जरिये अपनी बात को अलग स्वरुप प्रदान किया जा सकता है। यह तो राजनीति के पाठ्यक्रम का अटूट हिस्सा है, जिसके लिए किसी को भी गलत नहीं कहा जा सकता। हां, कैमरे के सामने चीखने या आग उगलने वाली मुद्रा में बात पेश की जाए तो आप बिलकुल उसे ‘छपास’ या ‘प्रचार की प्यास’ से जोड़ सकते हैं, किन्तु नरोत्तम के मामले में ऐसा देखने को नहीं मिलता है।

दतिया के घटनाक्रम के लिए मैं यह तो नहीं कहूंगा (मानूंगा भी नहीं) कि मिश्रा खतरे को देखने के बावजूद लोगों की हिफाजत के लिए इतना बड़ा जोखिम उठा गए। लेकिन यह कहा जा सकता है कि मुसीबत के अचानक बढ़े स्तर के बीच भी उन्होंने अपने भीतर के साहस को स्वयं और दूसरों के लिए कम होने नहीं दिया। आपदाएं या उन जैसी कोई भी विपरीत परिस्थिति आपके उस समय के आचरण को लेकर बड़ा काम करती हैं। आपातकाल (emergency) के बाद इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने बिहार के एक दुर्गम और खतरनाक स्थान में हाथी पर पहुंचकर लोगों का दिल फिर से जीत लिया था। वहीं रामपुर से सांसद रहते हुए जयाप्रदा एक बाढ़ पीड़ित इलाके में जब फंसी तो उनके बुरी तरह रोते हुए छायाचित्रों से उनकी छवि को काफी आघात पहुंचा था। ये आम लोगों के बीच छवि बनने या बिगड़ने का बहुत बड़ा आधार बन जाता है। ऐसे में कल रस्सी के जरिये हेलीकॉप्टर तक निश्चिन्त भाव से जाते दिखे मिश्रा के लिए भी यह घटनाक्रम उनके नंबर बढ़ाने का जरिया साबित होगा या नहीं, कहना मुश्किल है। ये उस जनता का मामला है, जो अब किसी गरीब के घर खाना खाने पहुंचे किसी नेता के प्रपंच और इसी तरह के किसी भोजन को ग्रहण करते ईमानदार जनप्रतिनिधि या अफसर के सद्भाव के बीच के बारीक अंतर को समझने लगी है। जैसा मैंने पहले कहा कि प्रचार पाने और प्रचार लेने में बड़ा अंतर होता है। मिश्रा के मामले में भी आम लोग इस फर्क को बड़ी आसानी से समझ रहे हैं। सोशल मीडिया social media() को समझने का दौर निकल चुका है। लोग अब काफी समझदार हैं।

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