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चुनाव लड़ना सीखना हो तो….

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गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों की जमीन को गौर से देखिए। आपको दोनों जगह एक-एक चुनावी चादर बिछी दिखेगी। वह चादर, जो भाजपा हर समय बिछाती और ओढ़ती है। गुजरात में 27 साल लंबी होकर भयावह चुनौती का रूप ले चुकी एंटी इंकम्बेंसी जैसे इसी चादर में कहीं मुंह छिपा रही है। भाजपा ने वहां रिकॉर्ड जीत हासिल की। कांग्रेस को बीस से भी कम के आंकड़े पर रोक दिया।

हिमाचल में यह नतीजा काफी हद तो अपेक्षित था। एक बार भाजपा-एक बार कांग्रेस वहां का पैटर्न बन चुका है फिर भी भाजपा ने अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने वहां पूरी ताकत झोंक दी। यह परवाह किए बगैर कि अंजाम क्या होगा? नतीजा यह कि भाजपा चंद सीटों के अंतर से हारी। दरअसल भाजपा लड़ना जानती है और हार से मुंह फेरने की बजाय उसके भीतर जाकर गलतियों को सुधारने का भी उसका तगड़ा अभ्यास है। यह उसके धैर्य और कमजोरियों को समझने का ही परिणाम है कि किसी समय संसद में मात्र दो सीटों वाले इस दल ने बीते दो आम चुनावों में बेहद ख़ास तरीके से पूर्ण बहुमत हासिल करते हुए इतिहास रच दिया।

अब गुजरात को ही देखिए। भाजपा ने पूरी होशियारी के साथ चुनावी परिदृश्य को स्वयं और आम आदमी पार्टी के बीच में बदल दिया। अरविन्द केजरीवाल को ज्यों ही लगा कि भाजपा उनसे भयभीत है, वह उत्साह में गुजरात में पार्टी की सरकार बनने का लिखित में दावा करने की बात कहने लगे। केजरीवाल जितना जोर से बोले, भाजपा ने भी उतने ही भारी स्वर में पलटवार किए। इस सारे शोर के बीच कांग्रेस की हालत नक्कारखाने में तूती सरीखी हो गयी।

फिर वही हुआ, जो भाजपा करना चाहती थी। ‘आप’ की कोई जमीन इस राज्य में थी नहीं। वह कांग्रेस के वोटों को कुछ हद तक अपनी तरफ खींच सकी। जबकि अपने बूथ प्रबंधन की माइक्रो स्तर वाली तैयारी के चलते भाजपा ने यह सुनिश्चित कर लिया कि उसका कमिटेड वोटर बिखरने न पाए। साथ ही यह सावधानी भी सफलतापूर्वक बरती कि यदि उसका मतदाता नाराज है, तो भी उसका वोट किसी अन्य पार्टी के खाते में न जाने पाए। इसके चलते यह हुआ कि यह पार्टी गुजरात में मुख्य विपक्षी दल से कई गुना सीटों पर आगे पहुंच गयी। वह भी तब, जबकि उसने बड़ी संख्या में दिग्गजों के टिकट काटे और भीषण बगावत भी झेली। कम मतदान ने उसकी सीटो में जबरदस्त बढ़ोतरी की। सब विश्लेषण धरे रह गए।

आप निश्चित ही कह सकते हैं कि भाजपा की इस संगठनात्मक क्षमता में उसके आर्थिक प्रबंध बहुत मददगार रहे होंगे। यह स्वाभाविक भी है। चुनाव में धन बल की महती भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। सरकार में होने पर वित्तीय प्रबंध भी आसान हो जाते हैं। जब तक कांग्रेस सत्ता में रही, तब तक उसने इसका लाभ उठाया, अब भाजपा भी वही कर रही है। लेकिन भाजपा की खासियत यह रही कि उसने पैसे वाली जरूरत को संगठन की मजबूती से अधिक महत्व कभी भी प्रदान नहीं किया।

यही वजह रही कि अल्प वित्तीय संसाधनों के बीच भी कर्मठ कार्यकर्ताओं और उनके बीच जिम्मेदारी के सटीक विभाजन के द्वारा इस पार्टी ने आज स्वयं को विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन और देश में सर्वाधिक राज्यों में सरकार वाली पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया है। आज तो कांग्रेस के लिए केवल इतना कहा जा सकता है कि वह गुजरात में किसी अंडर करंट वाले चमत्कार की प्रत्याशा में जबरदस्त तरीके से करंट की शिकार हो गयी।

यकीनन हिमाचल में उसने जीत हासिल की है, लेकिन यह उसकी तैयारियों की बजाय मतदाता द्वारा लंबे समय से तय परंपरा से अधिक रूप से प्रभावित नतीजा है। कांग्रेस भले ही देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल हो, लेकिन वर्तमान हालात में कहा जा सकता है कि उसे अब भाजपा से बहुत-कुछ सीखना है।(जारी)

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