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अकल दाढ़ का और कितना इंतजार

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प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) सफल चुनावी रणनीतिकार (election strategist) हों या न हों, लेकिन नि:संदेह अब वे पहले से ज्यादा समझदार हो रहे हैं। या फिर यह भी कह सकते हैं कि उनकी अकल दाढ़ में अब अंकुर आना शुरू हो गए हैं। पीके की राजनीतिक रणनीतिक क्षमताओं पर सवालिया निशान (Question mark on political strategic capabilities) लगाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। चुनाव प्रबंधक (election manager) के रूप में उनका काम कुछ मामलों में बहुत कारगर रहा है लेकिन वे स्थापित ब्रांड (established brand) बेचकर ही इस क्षेत्र में अपने नाम का सिक्का चला पाएं  है। पहले इस बात की व्याख्या कर देना ही बेहतर होगा। प्रशांत किशोर के लिए कहा जा सकता है कि उनकी सफलता के सफर का सूत्र ‘जिधर बम, उधर हम’ वाली थ्योरी ही रही। 2014 में जिस समय भाजपा की जीत का श्रेय (Credit for BJP’s victory) उन्हें दिया गया, तब प्रशांत किशोर ऐसे दल के साथ जुड़े हुए थे, जिसकी संगठनात्मक क्षमता तथा ताकत का न तब देश में कोई सानी था और न ही अब भी है। उनकी रणनीति पिछले बिहार विधानसभा चुनाव (bihar assembly election) में लालू (Laloo), नितीश (Nitish) और कांग्रेस महागठबंधन (Congress Grand Alliance) के लिए भी सफल रही जिसमें लालू के जातिगत गणित और नितीश कुमार (Nitish Kumar) की सुशासन वाली छवि का बड़ा योगदान था। लेकिन इस बार नितीश और भाजपा (BJP) की सरकार बनने में PK जनता दल को भाजपा से बढ़त तो नहीं दिलवा पाए। पंजाब (Punjab) में कांग्रेस की सरकार (Congress government) को अकाली दल (Akali Dal) और भाजपा के लचर गठबंधन ने खुद ही ताकत प्रदान की थी। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC) की बीते विधानसभा चुनाव की सफलता दरअसल ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की लोकप्रियता और तृणमूल कांग्रेस की जमीनी ताकत की वजह से मिली। नि:संदेह इनमें से हर जीत में प्रशांत किशोर एक फैक्टर थे, लेकिन मुख्य फैक्टर वह ताकत ही रही, जो जीतने वालों के पास पहले से ही मौजूद थी और विरोधी वहां अशक्त हो चुके थे।

मूल प्रसंग पर आएं। प्रशांत  किशोर ने राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को आगाह करने के अंदाज में कहा है कि भाजपा को हारने की गलतफहमी से वह बचें, क्योंकि यह पार्टी दशकों तक कहीं दूर जाने वाली नहीं है। ये ‘दूर जाने’ वाली बात सत्ता से दूर होने का प्रतीक मानी जा सकती है। देश में इस समय शक्तिशाली विपक्ष के नाम पर जो शून्य बना हुआ है, वह भाजपा के लिए और भी अच्छे दिनों के संकेत प्रदान करता है। यहीं से प्रशांत किशोर की अकल दाढ़ वाला तत्व आकार लेता है। उनका कहना है कि भले ही मोदी (Modi) सत्ता से चले जाएं, लेकिन भाजपा कायम रहेगी। स्पष्ट है कि किशोर इस बात को समझ गए हैं कि भाजपा का संगठन किसी मोदी के बगैर भी अपनी जड़ों को सत्ता में विस्तारित करने की क्षमता रखता है। ये कहना बेमानी भी नहीं है। मध्यप्रदेश (Madhya pradesh) में कोई सोच भी नहीं सकता था कि शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) अभूतपूर्व रूप से सफल मुख्यमंत्री होंगे। संगठन ने शिवराज की संभावनाओं को अपने हुनर से तराशकर ऐसा कर दिखाया। आज भाजपा पूरी ताकत से देश के सबसे शक्तिशाली नेता नरेंद्र मोदी (Powerful leader Narendra Modi) के पीछे खड़ी है और कल यदि यही पंक्ति किसी अन्य नेता के लिए खड़ी हो गयी तो वह भी मोदी की ही तरह चमत्कारी बन जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

इस तथ्य को समझकर ही प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी को यह सलाह दी होगी कि वह गलतफहमी की धूल झाड़-पोंछकर हकीकत का सामना करें। कांग्रेस में तो वैसे अब किसी नयी रोशनी की उम्मीद नजर नहीं आती। राहुल गांधी अपनी समझ के आगे किसी की बात समझने को तैयार ही नहीं हैं। इसलिए यह सोचना मुश्किल है कि कांग्रेस में प्रशांत किशोर की बात को गंभीरता से लेकर कोई कदम उठाए जाएंगे। यह जरूर हो सकता है कि किशोर की इस भविष्यवाणी से भाजपा-विरोधी शेष दल और अधिक मायूस महसूस करने लगें।

आगे की बात को एक अपवाद के जरिए समझा जा सकता है। प्रशांत किशोर उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) के बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ थे। वह चुनाव, जिसमें यह पार्टी दो अंकों वाली संख्या तक भी नहीं पहुंच सकी। जीतने वाले तमाम दलों से जुगलबंदी के अभ्यस्त हो चुके PK के लिए हार का यह अपवाद उनकी इमेज के साथ किसी अपमान से कम नहीं रहा होगा। संभव है कि इस हार के बाद प्रशांत किशोर को यह एहसास हो गया हो कि कांग्रेस में उनकी क्षमताओं को इस्तेमाल करने का सलीका नहीं है। इसी विचार के कंट्रास्ट के रूप में वह यह भी समझ गए होंगे कि भाजपा क्यों शक्तिशाली है और कम से कम किन कारणों से वह आने वाले लंबे समय तक अपनी शक्ति को यूं ही कायम रख सकेगी। इन कारणों में एक अहम फैक्टर तो प्रशांत किशोर  भी स्वीकारेंगे कि भाजपा का किसी परिवार की बपौती न होना, उसकी शक्ति का बहुत बड़ा आधार है।

ममता बनर्जी का अभिषेक बनर्जी (Abhishek Banerjee) के लिए स्नेह, लालू यादव (Lalu Yadav) का पुत्र मोह, समाजवादी पार्टी (SP) पर यादव परिवार (Yadav family) का वर्चस्व, राष्ट्रवादी कांग्रेस (NCP) पर शरद पवार (Sharad Pawar) परिवार का कब्जा, शिवसेना में ठाकरे की बपौती, बसपा में बहनजी संस्कृति की लगातार मजबूत की जा रही बेड़ी और इस सबसे ऊपर कांग्रेस में गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) की चरण वंदना निश्चित ही भाजपा की शक्ति बढ़ाने का बड़ा आधार बन चुके हैं। देश में भाजपा के बाद शायद कम्युनिस्ट पार्टियां ही हैं, जो वंशवाद के दंश से मुक्त हैं। यह अलग बाद है कि देश में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं है और वो भारत में पूरी तरह असफल एक विचारधारा है। इन सभी दलों के लिए प्रशांत किशोर (PK) का ताजा बयान भले ही कडुवाहट से भरा हो, लेकिन इसके मर्म को समझकर ये सभी दल अपने आप को उस लड़ाई के लिए तैयार कर सकते हैं, जिसमें कभी न कभी, कहीं न कहीं भाजपा शायद ऐसी कमजोर दिखे कि उसे उसके जैसी संगठन क्षमता वाला ही कोई दल मात दे सके। किशोर की अकाल दाढ़ तो आ गयी है, अब भाजपा के शेष विरोधियों को इस दाढ़ के लिए पता नहीं और कितना इंतजार करना होगा।

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