देश की मौजूदा राजनीति और खासकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) को ध्यान में रखकर होने वाली विपक्षी दलों की राजनीति पर अकबर इलाहाबादी (Akbar Allahabadi) का यह शेर मोजूं है। ‘वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता, हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम। ‘ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव (Assembly elections in five states) के नतीजों के बाद विपक्षी दल (opposition party) अपनी दिशा को लेकर भ्रमित नजर आ रहे हैं। उदाहरण देखिएं, राजस्थान में अशोक गहलोत (Ashok Gehlot in Rajasthan) के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार (Congress government) ने रमजान (ramzan) के दौरान मुस्लिम बस्तियों (Muslim settlements) में बिजली कटौती (power cut) तो दूर, वहां बिजली के रख-रखाव पर तक रोक लगा दी है। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल (Arvind Kejriwal in Delhi) की आम आदमी पार्टी सरकार (AAP Government) ने भी ramzan के पवित्र महीने के लिए मुस्लिम वर्ग के कर्मचारियों को काम से रोजाना दो घंटे की छूट प्रदान की है। दोनों ही दल वह हैं, जो पांच राज्य, खासकर उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh assembly elections) के बीच खुद को हिन्दुओं का हितैषी बताने की होड़ में जुटे हुए थे। अब उनके इस पुन: मूषक भव: के भाव का खास तथ्य यह कि नवरात्र के लिए हिन्दू आबादी (Hindu population) सहित कर्मचारियों की दोनों ही राज्यों में ऐसी कोई चिंता नहीं की गयी है। नवरात्रि पर हिन्दू भी पूजा, पाठ, व्रत-उपवास रखते हैं। तुष्टिकरण के पुष्टिकरण की इस प्रक्रिया के बीच ही मध्यप्रदेश में कमलनाथ (Kamal Nath in Madhya Pradesh) ने कांग्रेस की राज्य इकाई (state unit of congress) को सलाह दी है कि इस वर्ष रामनवमी तथा हनुमान जयंती (Ram Navami and Hanuman Jayanti) के अवसर पर हनुमान चालीसा सहित सुंदरकांड का पाठ एवं रामलीला के आयोजन किये जाएं। वे खुद छिंदवाड़ा में ऐसे आयोजन में शामिल होंगे। नाथ के खास लोगों में शामिल कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद (Congress MLA Arif Masood) ने इस पर आपत्ति जताई है। मसूद ने कहा है कि यदि नाथ यह चाहते हैं तो फिर उन्हें रमजान के दौरान मुस्लिम धर्म (muslim religion) से जुड़े धार्मिक आयोजन भी करने चाहिए। गौरतलब है कि आजकल रमजान के दिनों में होने वाली इफ्तार पार्टियां ठंडी पड़ी हैं।
मध्यप्रदेश कांग्रेस (Madhya Pradesh Congress) के वह नेता अब नेपथ्य में धकेले जा चुके हैं, जो एक समय ईद (Eid) के दिन प्रदेश मुख्यालय (PCC) पर बकरा लेकर उसकी कुबार्नी देने पहुंच गए थे। लेकिन अपनी-अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए इस तरह के प्रयास कभी भी पीछे नहीं धकेले जाएंगे। आखिर इस सबका मकसद क्या है? यह सर्वविदित तथ्य है कि देश के जिस भी चुनाव में कांग्रेस सहित किसी अन्य दल के मुकाबले भाजपा मजबूत होगी, वहां कमोबेश सारे मुस्लिम मत भाजपा का विकल्प बनने में सक्षम दिख रही पार्टी को ही मिलेंगे। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी (SP) स्वयं को ऐसे विकल्प के रूप में सामने लाई और नतीजा यह कि मुस्लिम मतों में भागीदारी का दम भर कर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस (Congress) और आप (AAP) सहित BSP, एआईएमआईएम (AIMIM) सहित अन्य पार्टियों को वहां शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ गया। जब देश भर में भाजपा के खिलाफ मुस्लिम मतों का यह एजेंडा (agenda of Muslim votes against BJP) सेट हो ही गया है तो फिर क्या जरूरत रह जाती है कि अगले साल होने वाले राजस्थान के विधानसभा चुनाव के लिए गहलोत मुस्लिम बस्तियों के करंट की चिंता करें और कमलनाथ उस करंट से बचने की कोशिश में जुट जाएं, जो हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के रूप में भाजपा-विरोधी दलों को यहां-वहां निरन्तर रूप से लगता आ रहा है? राजस्थान में तो फिर भी थोड़ा बहुत असर बसपा सहित कुछ दलों का है लेकिन आप वहां इतनी असरकारक नहीं है कि कांग्रेस को उससे घबराहट होनी चाहिए।
दरअसल यह उदाहरण बताते हैं कि अपनी लाख प्रगति के बाद भी मुस्लिम समाज उन राजनीतिक दलों की साजिश से बच नहीं पा रहा है, जो उसे वोट बैंक बनाये रखने में ही अपना भला समझते हैं। महाराष्ट्र (Maharashtra) में तो अब शिवसेना (Shiv Sena) भी ऐसे ही दलों में शामिल होकर मुस्लिमों के दिलों में जगह बनाने के लिए इसी तरह की सियासत को अपना चुकी है। गहलोत और केजरीवाल के फिर से अपनी पुरानी राजनीति में लौटने को मुस्लिम मतों की एकता की शक्ति से जोड़कर भी देखा जा सकता है। यूपी में भले ही समाजवादी पार्टी चुनाव नहीं जीत सकी, लेकिन एकमुश्त मुस्लिम वोटों की वजह से इस दल के वोट प्रतिशत तथा सीटों की संख्या में जो वृद्धि हुई है, उसे देखते ही Rajasthan के अगले साल के चुनाव के लिए गहलोत ने यह दांव चला है। दिल्ली में भले ही विधानसभा चुनाव होने में अभी लगभग तीन साल का समय बचा हो, लेकिन पंजाब के बाद अपनी पार्टी के देश के अन्य हिस्सों में मजहबी आधार को मजबूत करने के लिए केजरीवाल भी इसी राह पर फिर से चल पड़े हैं। वही राह, जिस पर चलकर कभी उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ की गयी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ (‘Surgical strike’ against Pakistan) पर संदेह जताया था और कभी ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म (‘Kashmir Files’ movie) में उभरे कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandits) के दर्द पर नमक छिड़कने की धृष्टता की थी। अब जबकि तुष्टिकरण का यह परनाला एक बार फिर बह निकला है, तब आप जल्दी ही पाएंगे कि गुजरात सहित हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh), छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh), मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) और कर्नाटक (Karnataka) में भी धर्म की राजनीति के कुछ समय से सोये नजर आ रहे सोते फिर फूट पड़ेंगे। इस तरह की राजनीति में भाजपा की अपनी मौज है। जिस भी जगह उसके विरोधी दलों द्वारा तुष्टिकरण का दांव खेला जाता है, वहां खुद-ब-खुद हिन्दू मत (Hindu religion) एकजुट होने लगा है। पिछले तीन दशक में हिन्दूओं का जो प्रतिक्रियात्मक उभार सामने आया है, वो इसका उदाहरण है। इसके अलावा विपक्ष यदि हिन्दूओं को जातियों में बांटने का खेल करेगा तो भाजपा जाहिर है लोगों को जाति से हटकर हिन्दू बनाने की कोशिशों में जुटेगी ही। उत्तरप्रदेश इसका सबसे ताजा और बड़ा उदाहरण है, जहां योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की डूबती नैया को इसी एकजुटता ने किनारे लगा दिया।
राजस्थान और दिल्ली के घटनाक्रम इस बात की पुष्टि करते हैं कि पांच राज्यों के चुनाव में हिन्दूओं को जाति के नाम पर तोड़ने और बहलाने का प्रयास किया गया था, जिसके असफल होते ही भाजपा-विरोधी दल (anti-BJP party) फिर अपने पुराने एजेंडे पर लौट आये हैं। अब शायद फिर से पश्चिम बंगाल में मुहर्रम के मौके पर दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगा दी जाए। एक बार फिर कोई इस गर्व का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करने लगे कि उसके मौलाना मुलायम कहे जाने वाले पिता ने अयोध्या में कारसेवकों की जान लेने के आदेश दिए थे। हम शायद फिर उस मौन को मुखर होते देखें, जिसने कहा था कि इस देश के संसाधनों तथा प्रगति पर पहला हक मुस्लिमों का है। और हम वह भी देखेंगे, जो इस सबकी प्रतिक्रिया में हुआ और जिसने देश की राजनीति को किसी गंदे नाले में बदल दिया था। राजनीति का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन धर्म की राजनीति कितनी आडंबर वाली हो सकती है, इसकी भयावह पदचाप एक बार फिर डराने लगी है। इसके लिए अकेले भाजपा को दोष देने वालों को यह भी सोचना ही चाहिए।