नब्बे के दशक की घटनाएं याद आती हैं। तब राजधानी में आ कर पत्रकारिता के आरंभ का समय था। पत्रकारिता में भीड बढ़ने लगी थी। हर दूसरे वाहन के आगे किसी शासन-प्रदत्त शक्ति का आभास देता हुआ हिंदी और अंग्रेजी में ‘प्रेस’ का अंकन। खबर के नाम पर अर्द्ध सत्य की भरमार। लेकिन इसके बीच भी मुख्यधारा की पत्रकारिता में खबरों का शासन-प्रशासन पर असर होते देखा था। फिर समाचार माध्यमों की भी एक लंबी कतार लगते देखी। ढेर सारे अखबार और उनके साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया और फिर अब डिजीटल मीडिया का भी दौर। जाहिर है इस बढ़ती भीड़ के बीच खबरों का असर कम होते देखा। कभी साप्ताहिक अखबारों में अधूरी छपी और शेष अगले अंक में प्रकाशित करने के वादे के समाचारों का मतलब समझते हुए लोग जाहिर है ऐसी चटखारेदार खबरों को गंभीरता से नहीं लेते थे। लेकिन मुख्यधारा की खबरों का तत्काल असर प्रशासन पर होते देखा है। लेकिन मीडिया की बढ़ती भीड़ ने इस असर को भी हाशिए पर डाल दिया। शासन-प्रशासन आजकल संवेदनशील खबरों पर भी तत्काल कोई कदम नहीं उठाता है।
इस वातावरण के बीच पत्रकारिता को सही अर्थ में करना चुनौती से कम नहीं है। फिर भी अब जाकर लगता है कि जो होना चाहिए था, वह अब शायद होने लगे। निर्देश के रूप में ही सही, उसका आरंभ तो हो गया है। जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह कहते हैं कि अखबार की किसी भी खबर को नजरअंदाज न किया जाए, तब यह लगता है कि किसी स्तर पर आवाज की सुनवाई सुनिश्चित करने का प्रयास तो किया जा रहा है। यह काम नि:संदेह कठिन है। क्योंकि जिन्हें इस व्यवस्था को सुनिश्चित करना है, उनके लिए यह निश्चित करना बड़ी जिम्मेदारी है कि किसे सच माना जाए और किसे खारिज करने का जोखिम उठाया जाए। फिर भी तंत्र तो तंत्र है। यह आशा की जाना गलत नहीं है है कि वह समाचार के नाम पर षड़यंत्र को भांपकर उसे नजरअंदाज करने का काम सफलतापूर्वक कर लेगा।
खुद सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले कहा है कि राज्य हेट स्पीच के मामले में समाचार पत्र में आये विवरण को भी संज्ञान में लेकर उस पर कार्यवाही कर सकते हैं। अदालत ने तो बल्कि यह कहा कि ‘राज्यों को इस पर कार्यवाही करना ही चाहिए।’ जब न्यायपालिका भी समाचारों के लिए इतनी गंभीरता दिखा रही है तो इस दिशा में शिवराज की हिदायत भी समीचीन ही कही जाएगी। कम से कम यह उन समाचार पत्रों हेतु संजीवनी साबित होगी, जिनके स्वर केवल इसलिए नक्कारखाने में तूती बन जाते हैं कि वह छोटे प्रकाशनों की श्रेणी में आते हैं। फिर इसे समाचार वाले मूल तत्व ‘सम-आचार’ की श्रेणी में रखकर प्रत्येक सूचना को महत्व प्रदान करने का माध्यम भी माना जा सकता है।
कई विषयों में दोहराव के बाद भी समसामयिकता का पुट अन्तर्निहित रहता है। क्योंकि बात विषय के विष को जड़ से समाप्त करने की होती है। इसलिए शिवराज सिंह चौहान जब दोहराते हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीरो टॉलरैंस की नीति कायम रहेगी तो यह समझना भी होगा कि वह इस कदाचार को समूल नष्ट करने के लिहाज से इस बात को एक बार फिर जोर देकर कह रहे हैं। भ्रष्टाचार कोरोना की तरह हो गया है, जिसकी आती-जाती लहरों पर किसी का वश नहीं चलता है। लेकिन शिवराज वाले तेवर से कम से कम उस एंटी-डॉट की उम्मीद तो जागती है, जो यह बताती है कि इस संक्रमण के प्रसार को रोकने की दिशा में काम चल रहे हैं। मुख्यमंत्री के इन प्रयासों की उपादेयता यह सोच कर महसूस की जा सकती है कि ‘वह जो हो रहा है’ और ‘जो हो रहा है’, इन दो के बीच की कड़ी को जोड़ने के लिए प्रयासों में कमी नहीं आने दे रहे हैं।