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आओ, सिर जोड़ने से पहले सिरे जोड़ लें….

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तो आओ फिर सिर जोड़ लें। अब ये बैठक, भोजन और विश्राम वाकई मध्यप्रदेश (madhya Pradesh) में एक नया सिरदर्द हो गया है। उनकी आदत है और बाकी हैरान हैं। दो लोगों के बीच की बातें बाहर आ जाती हैं। छिपती नहीं। और यहां ये सिर जोड़ कर बैठे आधा दर्जन से ज्यादा लोग पता नहीं क्या कर रहे हैं? बाहर खबरों की तलाश में बैठे लोग सिरा भी नहीं पकड़ पा रहे हैं। बस कयास भर हैं। अजीब राजनीतिक दल (political party) है ये भाजपा। ठोस खबर बाहर आ नहीं पाती और शिगूफों की कमी नहीं पड़ रही। ये तो सीधे सीधे मीडिया की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं? क्या पक रहा है भाजपा में। ठोस किसी को कुछ पता नहीं।

अब ये बैठक, भोजन विश्राम वाले अपनी जाने, क्यों सिर जोड़ रहे हैं? उनके यहां तो ये पार्टी की रीति नीति है। लेकिन बाहर तमाम लोग फिर सिर जोड़ने में जुट गए हैं। उस बात के लिए जो फिलहाल तो बे-सिर पैर की दिख रही है। शिवराज सिंह चौहान (shivraj singh chauhan) राजभवन (Raj Bhavan) चले गए तो मेरी बिरादरी को बौद्धिक जठराग्नि ने जकड़ लिया। पिल पड़े इस ज्ञान की भूख मिटाने (hunger pangs) में कि चौहान ने राज्यपाल को जो गुलदस्ता भेंट किया, कहीं उसके भीतर वो कागज (Paper) तो नहीं छिपा हुआ था, जैसा कागज हाल ही में कर्नाटक (Karnatak) में येद्दियुरप्पा (Yeddyurappa), गुजरात (Gujrat) में विजय रुपाणी (vijay rupani) और पंजाब (Punjab) में कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt Amarinder Singh) ने वहां के राज्यपालों को सौंपा था। शिवराज दिल्ली (Delhi) गए और यहां उनकी जगह नए मुख्यमंत्री के नामों का पिटारा खुल गया। अब शिवराज 26 सितम्बर को फिर गृहमंत्री अमित शाह (Home Minister Amit Shah) से मिलेंगे। पिछले दौरे पर पार्टी अध्यक्ष जगतपाल नड्ढ़ा (Party President Jagatpal Naddha) से मिले थे। भाजपा संगठन (BJP organization) के शीर्ष नेतृत्व से जुड़े लोगों की बैठक हो गई और उसमें शिवराज भी शामिल थे। इस जानकारी के साथ ही धड़ाधड़ खुले ज्ञानोदय केंद्रों में राज्य में सत्ता परिवर्तन का अध्याय पढ़ाया जाने लगा।

ये प्रक्रिया निश्चित ही दिलचस्प है। काफी मनोरंजक भी। मध्यप्रदेश में खुले तौर पर तो भले ही कोई सियासी महाभारत (political mahabharat) न हो रही हो, किन्तु उसका काल्पनिक वृत्तांत सुनाने के लिए तमाम एडिटोरियल कक्ष (editorial room), टीवी चैनल स्टूडियो (tv channel studio) और  पत्रकारों के बैठक स्थलों पर लोगों के बीच खुद को संजय (sanjya) साबित करने की होड़ मची हुई है। वह अपने-अपने आभामंडल की चकाचौंध में आंखें मिचमिचाते लोगों को वह जो कुछ दिखा रहे हैं, जो वास्तव में है ही नहीं। कोई एक बार तो ये बता ही दें कि आखिर उसे किस परिस्थिति के चलते शिवराज की कुर्सी संकट में दिख रही है? कर्नाटक के बदलाव की परिस्थितियां सबने साफ देख ली थीं। लेकिन वहां येदुरिप्पा की जगह लिंगायत समुदाय (Lingayat community)के बोम्मई (bommai) को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया। उत्तराखंड में जल्दी बदलाव चौंकाने वाला था लेकिन वहां भी भाजपा ने जातीय और क्षेत्रीय समीकरण ध्यान में रखकर तीसरा मुख्यमंत्री चुना। गुजरात में विजय रुपाणी में भाजपा को अगला चुनाव जीतने की संभावना नजर नहीं आ रही थी और वे गुजरात के जातीय समीकरणों के विपरीत भी थे। लिहाजा एक पटेल को BJP ने मुख्यमंत्री बनाया। वो भी पहली बार के विधायक को। इसका कारण जाहिर है कि गुजरात किसी मुख्यमंत्री की तुलना में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की प्रतिष्ठा से ज्यादा जुड़ा है। लिहाजा वहां चुनाव में हारजीत मोदी-शाह (Modi-Shah) की हारजीत के तौर पर देखी जाएगी। लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा कुछ भी नहीं है। लोकप्रियता सहित सरकार अधिकार और संगठन से शिवराज के तालमेल पर कोई सवाल उठने से रहा। सिर जोड़ने के साथ यदि सिरे जोड़ेंगे तो शायद वास्तविकता के किसी नजदीकी कयास पर पहुंचा जा सकता है।

तो सिरे जोड़ कर देंखे। शिवराज पिछड़े वर्ग का बड़ा चेहरा हैं। सरकार चलाने का उनका अनुभव मध्यप्रदेश के किसी भी राजनेता में उनका सबसे ज्यादा हो चुका है। मध्यप्रदेश में लगातार चौथी बार पिछड़े वर्ग से मुख्यमंत्री चुनने के पीछे भाजपा की कोई रणनीति तो रही ही होगी, तो यह सवाल स्वाभाविक है कि उसमें क्या बदलाव आ गया। बल्कि केन्द्र और राज्य में भाजपा इसी राजनीति को और आगे बढ़ाती दिख रही है। शिवराज को बदलने का यदि ये कारण माने कि उन्हें अब लंबा समय हो गया है तो ऐसे में सवाल उठेगा क्या लोग उनसे उकता गए? तो पिछले साल हुए 28 उपचुनावों के परिणामों पर गौर करना पड़ेगा। तब भाजपा ने सिंधिया को पीछे रखकर शिवराज को आगे करके ही तो चुनाव जीत कर सरकार को स्थिरता दी थी। क्या दमोह उपचुनाव (Damoh by-election) में BJP के हारने से पार्टी इस निष्कर्ष पर पहुंच सकती है कि शिवराज में अब चुनाव जीताने की क्षमता नहीं है। तब 2018 के विधानसभा चुनाव परिणामों पर गौर करना पड़ेगा। छत्तीसगढ़ में भाजपा की एक तरफा हार हुई थी। राजस्थान (rajsthan) में हारने के साथ बहुमत के आंकड़े से भाजपा बहुत दूर रह गई थी। लेकिन मध्यप्रदेश में बस सिर्फ पांच सीटों का अंतर था भाजपा और कांग्रेस (congress) में। जाहिर है यहां भाजपा के पिछड़ने के कारण दूसरे थे जिनमें शिवराज सहित पार्टी के कई नेताओं का योगदान था। बाकी तो शिवराज की कोई आदत अब तक नहीं बदली, जनता से वे आज भी पहले ही जैसे कनेक्ट हैं।

फिर भी मान लें कि शिवराज को भाजपा बदलने जा ही रही है तो उनकी जगह कौन? मोदी सरकार (Modi government) में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर (Agriculture Minister Narendra Singh Tomar) का नाम सबसे पहले इसलिए भी लिया जा सकता है क्योंकि शिवराज भी खुद को बदलने की स्थिति में अपनी जगह उन्हें ही देखना चाहेंगे। लेकिन बगल के उत्तरप्रदेश (Uttar pradesh) में तो पहले ही एक ठाकुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के तौर पर मौजूद है। मध्यप्रदेश में ठाकुर गोविंद सिंह (Thakur Govind Singh), अर्जुन सिंह (Arjun singh) और दिग्विजय सिंह (digvijay singh) तीन ठाकुर मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन यदि आज भाजपा ऐसा कुछ करेंगी तो यह राजनीति को 360 डिग्री घुमाने जैसा होगा। फिर यह भी ध्यान रखना होगा कि भाजपा ने पिछड़े वर्ग को नेतृत्व सौंप कर जो फल चखा है उसने मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास को ही पूरा बदल दिया है। गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट, झारखंड का उदाहरण ध्यान रखते हुए यह मान लें कि भाजपा का नया नेतृत्व जाति की राजनीति को ज्यादा महत्व नहीं देता लेकिन इन राज्यों के नतीजे भी नेतृत्व भूलने से तो रहा। लिहाजा, जब भाजपा के पास पहले ही उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नाम पर बड़ा ठाकुर चेहरा है, तो फिर क्यों वह एक स्थापित सरकार को किसी ठकुरास की तराजू पर तौलने जाएगी?

अब बात करें, कैलाश विजयवर्गीय (Kailash Vijayvargiya) की। उनके बड़े राजनीतिक कद से कोई इनकार नहीं कर सकता, किंतु उन्हें यदि मुख्यमंत्री बनाया जाना होता तो पार्टी यह काम काफी पहले कर चुकी होती। संगठन के लिए उनकी मेहनत को शिवराज सिंह चौहान से कम तो नहीं आंका जा सकता है। फिर बात करें नरोत्तम मिश्रा की। प्रदेश में भाजपा की चौथी पारी के पीछे निश्चित ही नरोत्तम मिश्रा (Narottam Mishra) की प्रमुख भूमिका रही। कमलनाथ सरकार (Kamal Nath Government) को गिराने में वे शुरू से ही सक्रिय भूमिका में रहे। वह भी मुख्यमंत्री पद के लिहाज से योग्य हैं, किंतु यदि भाजपा को उन पर दांव लगाना होता तो चौथी पारी की शुरूआत में ही ऐसा हो गया होता। अब शिवराज के पहले सत्तारोहण को ध्यान में रखकर प्रदेशाध्यक्ष  विष्णुदत्त शर्मा (State President Vishnudutt Sharma)के नाम पर गौर कर लें। उनका कुछ होना होता तो अब तक हो चुका होता, अब शायद उनका इंतजार लंबा होता जा रहा है। अब भला प्रदेश की राजनीतिक नर्सरी में ऐसे कौन से नवांकुर फूट रहे हैं, जिनके चलते हर दिन एक पौधा लगा रहे शिवराज की लहलहाती बगिया को उजाड़ने जैसी संभावना बन रही है? उत्तराखंड और गुजरात को ध्यान में रखते हुए पहली बार के किस विधायक के बारे में हम विचार करें जो मंत्री भी नहीं है तो भाजपा में ऐसे दो चार नाम ध्यान में ला सकते हैं। ये दो तीन नाम जो ध्यान में आएं हैं, इनमें पिछड़े भी हैं। इसके अलावा नए और संघ के नजदीकी लोगों में अरविंद भदौरिया (Arvind Bhadauria) और मोहन यादव  (Mohan Yadav) जैसे नामों को याद कर सकते हैं। अब ये सब कयासबाजी करते समय मध्यप्रदेश के मामले में भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व हो या प्रदेश का, ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) के फेक्टर को तो भूल ही नहीं सकते हैं।

ज्योतिरादित्य सिंधिया अब मोदी सरकार में मंत्री हैं और भाजपाई भी हो चुके हैं। बावजूद इसके प्रदेश में अब किसी भी बड़े परिवर्तन में क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया को माइनस में रखकर चला जा सकता है? मौजूदा सरकार सिंधिया की वजह से बनी है। केंद्र में मंत्री बनने के बाद सिंधिया की मध्यप्रदेश में स-शरीर सक्रियता भी बढ़ती दिख रही है। लेकिन अब यहां सरकार और संगठन, दोनों में वह अहम फैसलों की आवश्यक कड़ी बन चुके हैं। इनमें भी सरकार तो प्राथमिकता में है ही। तो क्या सिंधिया, तोमर सहित विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्रा या वीडी शर्मा के नाम पर कभी भी सहमत होंगे? राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं है लेकिन ताजा हालात में तो जवाब शायद नहीं ही होगा। और संभावना यह भी तो है कि क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया ही भविष्य में शिवराज की जगह लेंगे। लंबे समय की तो कौन जाने लेकिन अगर तुरत फुरत कुछ होना हो तो शिवराज के जो विकल्प हम देख रहे हैं, उन सहित पूरी भाजपा भी सिंधिया की जगह शिवराज को ही प्राथमिकता देना पसंद करें। ये स्थिति कमोवेश ऐसी ही होगी, जब शिवराज पहली बार CM बने थे और उमा भारती (Uma bharti) के भय ने पूरी पार्टी को उनके पीछे एकजूट कर दिया था। तो इस सारे किंतु-परंतु के बीच फिर यही सवाल उठ रहा है कि शिवराज किस नजरिये से असुरक्षितों वाली श्रेणी में गिने जा रहे हैं? वो ‘तीसरी कसम’ का गाना है ना,  चिठिया हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोय। तो हम भी शिवराज के भाग्य को बांचने की स्थिति में नहीं हैं। जब तक किस्मत है, तब तक वह CM रहेंगे। भाग्य के मामले में तो फिर शिवराज भी मोदी से कम कहां हैं? फिलहाल तो किस्मत के बिगड़ने जैसी किसी सूरत की परछाई भी मुख्यमंत्री के आसपास नहीं दिख रही है।

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