प्रशांत भूषण के लिए एक बात बेहिचक कही जा सकती है। वह अपनी सोच के पक्के हैं। दिग्गज वकीलों में शामिल भूषण ने नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्यवाही का पुरजोर विरोध कभी भी नहीं छोड़ा। वर्ष 2010 में दंतेवाड़ा में नक्सलियों द्वारा 76 पुलिसकर्मियों की हत्या पर उन्होंने साफ़ कहा कि यह उस कार्यवाही का प्रतिरोध है, जो देश में नक्सलियों के विरुद्ध की जा रही है। उन्होंने देश के परमाणु समझौते के खिलाफ विचार रखे। रोहिंग्या शरणार्थी भले ही उस समय म्यांमार और अब बांग्लादेश में सिर दर्द बन गए हों, लेकिन भूषण ने बनते कोशिश उन्हें भारत में बसाने एक लिए अदालती लड़ाई लड़ी। सरदार सरोवर बांध ने गुजरात के सूखे के लिए अभिशप्त जिलों को तर कर दिया, किन्तु भूषण ने इस परियोजना का पुरजोर विरोध किया। मुंबई आतंकी हमले के दोषी अजमल कसाब की फांसी पर भी भूषण ने मुखर रूप से तीखी नाराजगी जताई थी।
यही प्रशांत भूषण जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुए तो एक बात बगैर विवाद के मानी जा सकती है। भूषण को यह यकीन होने लगा होगा कि गांधी सहित समूची कांग्रेस अब वह हो चुकी है, जो उनकी सोच के अनुरूप आगे बढ़ रही है। कांग्रेस पर वामपंथ का असर तो जवाहरलाल नेहरू के समय से ही होने लगा था। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के धार्मिक आग्रह से नेहरू हमेशा नाखुश रहे। साथ ही वह शेख अब्दुल्ला से इतने खुश रहे कि कश्मीर को उन्होंने अनुच्छेद 370 की ज़ंजीर में जकड़ने में कोई संकोच नहीं किया। फिर आयी आज की कांग्रेस, जिसने न सिर्फ भगवान राम को काल्पनिक चरित्र बताया, बल्कि यह निर्णय तक के लिया कि तमिलनाडु में समुद्र के नीचे मौजूद राम सेतु को तोड़ दिया जाए। इस क्रम को आगे बढ़ाने में राहुल गांधी का योगदान उल्लेखनीय है। वह ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाने वालों के समर्थन में आगे आए। महिषासुर के पूजकों के आगे दंडवत हुए। उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने दिल्ली में इतिहास के भीषणतम दंगों के बीच तुष्टिकरण के लिहाज से मुफीद वर्ग के लोगों से आह्वान किया था कि वे घर से निकलकर आर-पार की लड़ाई करें। भारत जोड़ो यात्रा में हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ सदैव से ही आग उगलने वाले पादरी से राहुल की मुलाक़ात और लंबा बुद्धि-विलास इस बात का प्रतीक है कि कांग्रेस और प्रशांत भूषण वाली विचारधारा के बीच का अंतर तेजी से समाप्त हो रहा है। जब अपने लिए इतना अनुकूल वातावरण दिखे तो फिर यह कैसे संभव है कि प्रशांत भूषण रूपी घुटने पेट की तरफ न मुड़ें। इसलिए तेलंगाना की सड़कों पर भूषण और गांधी की कदमताल साफ़ बताती है कि यह वैचारिक साम्य के परस्पर सम्मान वाला मामला बन चुका है।
भूषण के साथ ही उनके प्रिय मित्रों में शामिल योगेंद्र यादव भी राहुल की यात्रा में शरीक हुए। वह सैंकड़ों किसानों की मौत और अरबों रुपए की सार्वजानिक संपत्ति को बर्बाद कर देने वाले किसान आंदोलन के अगुआ रहे। बाद में उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि आंदोलन दरअसल चुनावी स्टंट था। इसके जरिये उन्होंने ऐसी पिच तैयार की थी, जिस पर अन्य विपक्षी दल उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हरा सकें। साफ़ है कि खुद को किसान नेता कहने वाले यादव ने किसानों के साथ आंदोलन के नाम पर वह नेतागिरी कर दी, जो बेहद पेशेवर तेवर का प्रदर्शन करती है। अब यादव की भी यात्रा में सहभागिता गौरतलब है ।हो सकता है कि वह कांग्रेस का यह एहसान उतारने के लिए चले गए हों, कि तमाम टूल किट और उस जैसे गंभीर आरोपों के बावजूद कांग्रेस ने किसान आंदोलन का पूरा समर्थन किया था।
देखा जाए तो कांग्रेस की भी अपनी विवशता है। विशेषकर राहुल गांधी की स्थिति यह है कि उन्हें हर वह शख्स/संस्था अपनी तरफ खींचती है, जो भाजपा और विशेषतः नरेंद्र मोदी का अंधा विरोध करती हो। फिर चाहे ऐसे लोग या संगठन वह क्यों ही न हों, जिनका कांग्रेस से भारी विरोध रहा हो। शायद ऐसा इसलिए हुआ है कि सोनिया-राहुल वाली कांग्रेस की अपनी कोई विचारधारा रह ही नहीं गयी है। इसलिए यह दल सोच के लिहाज से आयात पर आश्रित होने को अभिशप्त हो गया है। सड़क पर कभी पुशअप्स लगाते तो कभी दौड़ते राहुल गांधी को समय निकालकर यह जरूर देखना चाहिए कि कांग्रेस जिन शीर्षासन वाली उलटबासियों तथा अपने मूल से दूर भागने वाली पार्टी बन गयी है, उसे कैसे दुरुस्त किया जा सकता है।