गुजरात की जीत के जश्न में आकंठ डूबी भाजपा के लिए अब कंठ के नीचे हृदय में झांकने का समय भी आ गया है। उसे सोचना होगा कि गुजरात में तो नरेंद्र मोदी का जादू चल गया, लेकिन हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम के चुनाव में ऐसा क्या हुआ कि मोदी के पूरे प्रयासों के बाद भी भाजपा जीत नहीं सकी? बात दिल्ली से शुरू करें। यहां भाजपा ने विधानसभा चुनावों में दस साल में लगातार तीन बार शर्मनाक तरीके से हारने के बाद इस बार एमसीडी पर कमान पर भी आप के हाथों खोना पड़ा। एमसीडी में पन्द्रह साल की सत्ता से उपजी एंटीइंकंबेंसी के बाद इस बार की हार भाजपा के लिए थोड़ी सम्मानजनक रही।
गंभीर बात यह कि इन सभी का लाभ उस आम आदमी पार्टी को मिला, जिसकी अपनी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। दरअसल ‘आप’ ने दिल्ली में जोरदार राजनीतिक वैक्यूम का लाभ उठाया। यहां कांग्रेस की प्राण-वायु तो शीला दीक्षित के प्राण त्यागने के बाद से समाप्त ही हो गयी है। इधर, भाजपा ने मदनलाल खुराना, साहब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज के बाद से स्थानीय स्तर पर किसी सक्षम नेतृत्व को खड़ा करने की कोशिश ही नहीं की। मीनाक्षी लेखी को केन्द्र में मंत्री तो बनाया गया लेकिन उनमें कोई असर पैदा हो, इसका प्रयास नहीं किया गया। डा. हर्षवर्द्धन और प्रवेश वर्मा जैसे स्थानीय नेताओं को भी हाशिए पर रख कर मनोज तिवारी को आगे बढ़ाया गया। उनके भीतर खुराना, वर्मा या स्वराज जैसा जमीन से जुड़ा होने वाला माद्दा नहीं है।
मनोज तिवारी पूर्वांचल से हैं, और दिल्ली में पूर्वांचल के मतदाता प्रभावी हैं। इसलिए क्षेत्रीय वोट जुगाड़ने की जुगत में भाजपा को उन्हें मजबूरी में कंधे पर बिठाना पड़ा। बाकी कंधे पर सवार होकर इठलाते तिवारी पार्टी के लिए कितना दर्द भरा बोझ साबित हुए हैं, यह किसी से नहीं छिपा है। भाजपा ने यह विचार ही नहीं किया कि यदि खांटी दिल्ली वाले नेतृत्व से भरी ‘आप’ के आगे सफल होना है तो फिर स्थानीय नेतृत्व को ही विकसित करना होगा। हर-हर मोदी,घर-घर मोदी जैसे नारे गुजरात और लोकसभा में पूरे देश में कारगर हो सकता है। स्थानीय स्तर के हर चुनाव में मोदी के करिश्माई चेहरे को भुनाने के लिए स्थानीय सर्व स्वीकार चेहरा भी भाजपा की जरूरत है।
पार्टी ने यही भूल हिमाचल प्रदेश में भी की। माना कि वह राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह राज्य है। यह भी मान लिया कि मोदी का चेहरा वहां के मतदाता को लुभाने में बड़ा फैक्टर साबित हो सकता था, लेकिन शांता कुमार, प्रेमकुमार धूमल और अनुराग ठाकुर जैसे स्थानीय चेहरों को दरकिनार करना भला कैसे समझदारी का प्रतीक कहा जा सकता था? जब आप अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस राज्य में भ्रष्ट छवि के धनी सुखराम तक को किसी समय गले लगा सकते हैं, तो फिर ऐसा क्या रहा, जिसने आपको पार्टी के लिए सदैव समर्पित रहे कुमार, धूमल या ठाकुर जैसे चेहरों को हाशिये पर धकेलने के लिए प्रेरित कर दिया?
यह तय है कि 2024 का रास्ता आसान करने के लिए अभी भाजपा को 2023 में कठिन परीक्षाओं से गुजरना है। अगले साल कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होना है। दक्षिण में कर्नाटक और पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा सत्ता में है। साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों में विशेषकर मध्यप्रदेश में उसके लिए बड़ी चुनौती है। सरकार बनाने के लिए जो विधायक दूसरे दल से लाए गए, उनमें से कई अब मंत्री हैं। अपनी सीट से दोबारा टिकट के लिए उनका आग्रह निरंतर होगा ही। फिर, भाजपा की कोशिश यह भी हो सकती है जयस सहित जातिगत समीकरण वाले कुछ छोटे दलों के असरदार नेताओं को पार्टी से जोड़ा जाए। गुजरात के हाल के चुनाव में आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा ने कांग्रेस का सफाया ऐसे ही किया है। तो सवाल यह भी है कि इस आयातित शक्ति के चलते भाजपा के मूल कैडर का क्या होगा? यदि उसे दरकिनार किया गया तो बगावत के सुर उठना तय है।
पुरानी भाजपा ऐसे हालात से निपटने के लिए तैयार रहती थी। संवाद तथा संपर्क के माध्यम से नाराज अपनों को अपनापन की चाशनी का रसास्वादन कराकर उन्हें मना लेती थी, लेकिन अब वह परिपाटी पार्टी के विस्तार के साथ खत्म हो गयी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में नाखुश हुए रामकृष्ण कुसमरिया, समीक्षा गुप्ता, धीरज पटेरिया जैसे बागियों को मनाने का भाजपा नेतृत्व ने कोई प्रयास ही नहीं किया गया। नतीजा कि इन चेहरों वाले पॉकेट्स में भाजपा को नुकसान हुआ और भाजपा मामूली अंतर से बहुमत से दूर रह गयी। यह गलती इतनी भारी पड़ी कि उसकी भरपाई के लिए कांग्रेस से उस भारी-भरकम टीम को अपनी तरफ लेकर सम्मानित करना पड़ गया, जो आने वाले चुनाव में पार्टी के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। ऐसे हालात से पार्टी तब ही निपट सकेगी, जब कि राज्यों के स्तर पर भी वह मजबूत लीडरशिप को सुनिश्चित कर सके।
बहुत मुमकिन है कि 2024 के आम चुनाव में मोदी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि का पार्टी को एक बार फिर लाभ दिला दें। लेकिन प्रदेशों के मामले में भाजपा को स्थानीय परिवेश वाले तगड़े चेहरों के साथ ही आगे बढ़ना होगा। पार्टी समय रहते इस बात को समझ जाए, तो उसे कई आशंकाओं को अभी से निर्मूल करने का अवसर मिल सकता है। (जारी)