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कुलीनों के कुनबे में ऐसी कलह

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दीपक जोशी के साथ कांग्रेस कार्यालय होकर आई स्वर्गीय कैलाश जोशी की तस्वीर का तो पता नहीं लेकिन जोशी जी की आत्मा को हुए कष्ट का अंदाज लगाया जा सकता है। जनसंघ से भाजपा तक के सफर में कैलाश जोशी ने भी सब कुछ भोगा है। पार्टी में मिले महत्व को भी उन्होंने देखा है और उपेक्षा को भी। लेकिन शायद ही कभी अपने विचार परिवार से बाहर जाने का उन्हें ख्याल आया हो। भाजपा में ऐसे ढेरों नेता हैं जिन्होंने पार्टी में महत्व भी पाया है और उपेक्षा भी।

मुझे 2013 वाला भोपाल का जंबूरी मैदान याद आ रहा है। भाजपा से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित हुए नरेंद्र मोदी ने यहां पार्टी के विशाल कार्यकर्ता सम्मेलन को संबोधित किया था। यह वह समय था, जब पार्टी बदलाव की बड़ी प्रक्रिया से गुजर रही थी। उसका असर भी दिखा। भविष्य को लेकर अनिश्चय के कुहासे के बीच जंबूरी पर सब बिखरा-बिखरा दिखा। लालकृष्ण आडवाणी की मोदी के लिए साफ़ नाराजगी। सुषमा स्वराज का अलग-थलग होने वाला भाव। तब साफ दिख रहा था कि भाजपा परिवार में सब-कुछ ठीक नहीं था। तब वो पार्टी का राष्ट्रीय परिदृश्य था। अब मामला प्रदेश का है।

क्या मध्यप्रदेश भाजपा में एक बार फिर ऐसी ही स्थिति है? दीपक जोशी कांग्रेस में चले गए हैं। भंवरसिंह शेखावत, सत्यनारायण सत्तन अलग नाराजगी जाहिर कर रहे हैं। ये दोनों भी खांटी जनसंघी नेता हैं। दीपक जोशी छात्र नेता रहे, युवा मोर्चा के प्रदेशाध्यक्ष रहे, प्रदेश संगठन में पदाधिकारी रहे, तीन बार विधायक रहे और शिवराज सरकार में शिक्षा मंत्री का दायित्व भी संभाल चुके हैं। बावजूद इसके वह बहुत प्रभावशाली नेता नहीं रहे हैं। इसके बाद भी भाजपा ने जब उन्हें मनाने की जी-तोड़ कोशिश की तो इस बात के लिए पार्टी की प्रशंसा की जाना चाहिए। क्योंकि उसने अपने स्तर पर, अपने यहां ज्योतिरादित्य सिंधिया वाले कांग्रेस जैसे प्रसंग को रोकने का कम से कम प्रयास तो किया। वरना तो उधर सिंधिया ने कहा कि वह अपनी पार्टी के खिलाफ सड़क पर उतर जाएंगे और उधर तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दो टूक अंदाज में ‘तो उतर जाएं’ कहकर बगावत को वह हवा दी, जिसकी आंधी में अंततः उनकी सरकार का तंबू उखड़ गया था। जोशी के लिए भाजपा की चिंता इसलिये भी तारीफ़ के काबिल है कि ऐसा कर पार्टी ने कैलाश जोशी जी के लिए अपने सम्मान को पूरी श्रद्धा से साथ प्रकट किया। जोशी राजनीति के संत थे। संघ से लेकर जनसंघ, जनता पार्टी और भाजपा के लिए आजीवन वह समर्पित रहे। ऐसे निष्काम कर्मयोगी के बेटे को पिता के मुकाबले बहुत छोटे कद का होने के बाद भी भाजपा ने अपने साथ जोड़े रखने के पुरजोर प्रयास किये। लेकिन अब संगठन ब्लेकमैल होने से तो रहा।

लेकिन बाकी का क्या? जोशी तो गए, मगर पार्टी में रहते हुए ही जो लोग तथ्यात्मक रूप से कई सत्य की तरफ इशारा कर रहे हैं, उस पर क्या भाजपा के वर्तमान कर्ताधर्ता ध्यान दे पा रहे हैं ? कैलाश विजयवर्गीय जब कहते हैं कि भाजपा को भाजपा ही हरा सकती है, तो इसके पीछे छिपी चेतावनी को पार्टी को समझना होगा। याद करना होगा कि यह “भाजपा बनाम भाजपा” वाली सिर फुट्टोवल ही थी, जिसने इस दल को 1998 में सरकार बनाने की पूरी संभावनाओं के बाद भी हरा दिया था। रघुनन्दन शर्मा के दीर्घ राजनीतिक अनुभव को किसी भी सूरत में खारिज नहीं किया जा सकता। शर्मा भी कह रहे हैं कि राज्य में पार्टी के प्रभारियों की थोकबंद संख्या के चलते संगठन की स्थिति द्रौपदी जैसी हो गयी है। सचमुच ऐसा ही हो रहा है। शायद अजय जामवाल, शिवप्रकाश जायसवाल, मुरलीधर राव जैसे तमाम चेहरे स्वयं को अहं ब्रह्माऽस्मि वाले थोथे दंभ में लपेटे हुए चल रहे हैं। क्योंकि छत्तीसगढ में भी नंदकुमार साय का कांग्रेस में जाना आश्चर्य से कम नहीं है।


1998 की ही तरह लगता है वर्तमान कर्ताधर्ता इस मद में चूर हैं कि सरकार तो भाजपा की ही बननी है। गोया कि मतदाता को थक-हार कर भाजपा को ही चुनना होगा। किसी को परवाह नहीं है कि इसी अकड़ के चलते 2018 में भाजपा सत्ता से बाहर होने का एक झटका झेल चुकी है। दरअसल विजयवर्गीय और शर्मा की चिंताओं पर चिंतन करें तो एक बात साफ़ है। वह यह कि भाजपा की मजबूत जडों वाले इस राज्य में कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल और नारायण प्रसाद गुप्ता, गोविन्द सारंग जैसे उन संगठन मंत्रियों से वंचित हो चुकी है, जो आम कार्यकर्ता से लेकर ख़ास पदाधिकारियों तक के बीच पार्टी में परिवार, संस्कार और अनुशासन वाले भाव को स्थायित्व प्रदान करने में हमेशा सफल रहे। निश्चित ही भोपाल के पीर गेट वाले लकड़ी की कुर्सियों और दरियों के मुकाबले आज की भाजपा फाइव स्टार नए कार्यालय में जाने की प्रगति कर चुकी है, लेकिन यह बदलाव पार्टी को जिस तरह उसकी जड़ों से भी दूर लिए जा रहा है, वह कम से कम मौजूदा चुनावी वर्ष के लिहाज से तो भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है।

दो घटनाओं से इस परिवर्तन और उससे हो रहे क्षरण को समझा जा सकता है। वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा के प्रदेश मुख्यालय में टिकट न मिलने की आशंका से व्यथित एक पार्टीजन का धैर्य जवाब दे गया। यह मेरे सामने की बात है। वह व्यक्ति उस समय के एक बुजुर्ग नेता के पास गया। अपनी बात कहते-कहते उसकी आंख में आंसू आ गए। वरिष्ठ ने उसे चाय पिलाई। कहा कि बात उसके चुनाव जीतने की नहीं है. बात उसके क्षेत्र में भाजपा के जीतने की है। अब मामला पार्टी के लिए अंदरूनी वाला था। इसलिए मैं वहां से उठकर एक नए प्रभावी नेता के कमरे में चला गया। टिकट से वंचित वह भाजपाई कुछ ही देर में उस कमरे में आ गया। अब उसके हाव-भाव संयमित दिख रहे थे। वह उन नेताजी से बोला, “मुझे कुछ देर विचार करने की जरूरत है। क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?” नेताजी ने तत्काल ठेठ प्रोफेशनल अंदाज में जवाब दिया, “बाहर लॉबी में ढेर कुर्सियां इस हीलिए लगी हैं कि उन पर बैठकर कुछ सोचा जा सके।”

वह आदमी अपना-सा मुंह लेकर वहां से चला गया। मैं तब हैरान रहा गया, जब उन नेता ने मुझसे कहा, “टिकट नहीं मिला तो आ गया यहां रोने।” यानी वह उसकी दशा जानने के बाद भी उसे समझाने या ढाढ़स देने की बात सोच भी नहीं रहे थे। जाहिर है कि इस नए प्रभावी को भी उस समय सत्ता अपने सामने थाली में रखी हुई दिख रही थी, इसलिए मगरूर होकर वह ऐसा व्यवहार कर गुजरे। ठाकरे, खंडेलवाल और गुप्ता के बाद से ऐसे प्रोफेशनल आचरण वालों ने भाजपा को जो परिवर्तित स्वरूप प्रदान किया है, उस पर जितनी जल्दी विचार और बदलाव हो, उतना ही इस पार्टी के लिए ठीक है। ये तो नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान हैं, जो वर्ष 2013 के “परिवार में सब-कुछ ठीक न होने” जैसे हालात को काबू में ले आए, वरना तो अब जिन पर पार्टी भरोसा जता रही है, उनमें से शायद कोई भी ऐसी क्षमताओं के मामले में मोदी और चौहान के पासंग नहीं है। फिर ठाकरे, खंडेलवाल और गुप्ता से तो खैर उनकी तुलना भी नहीं की जा सकती। कुलीनों के इस कुनबे में कलह वाली यह स्थिति फिलहाल उसकी प्रतिकूलता को दर्शा रही है।

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