मुझे राहुल गांधी से सहानुभूति है। मानहानि के मामले में अदालत ने गुरूवार को राहुल को दो साल की सजा सुनाई। और एक दिन बाद लोकसभा सचिवालय ने उनकी संसद सदस्यता समाप्त कर दी। क्या यह जल्दबाजी में उठाया गया कदम है? क्या यह मोदी और अडानी के रिश्तों को लेकर राहुल की आक्रमता का भाजपाई जवाब है? यह सोचने का आसान तरीका लगता है। एक के बाद एक कांग्रेस को कई पराजयों का स्वाद चखाने वाले राहुल गांधी से मोदी या भाजपा घबरा जाएंगे, यह संभव नहीं लगता। कांग्रेस की प्रतिक्रियाएं ऐसी ही है जिसमें वो जनता पार्टी की सरकार, 1978 का दौर और राहुल की दादी श्रीमती इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी और उसके बाद उनके प्रति उपजी सहानुभूति को याद कर रहे हैं। यह याद करने से पहले यह भूलना कठिन है कि राहुल गांधी……. इंदिरा गांधी नहीं हो सकते। और ये जो केन्द्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा है, यह कहीं की र्इंट, कहीं का रोड़ा वाली जनता पार्टी नहीं है। वो बेमेल गठबंधन था, जिसका देश में पहला प्रयोग नेताओं की आपसी गलाकाट प्रतिस्पर्घा में असफल हो गया था। यह भारतीय जनता पार्टी है, जिसका अपना एक वैचारिक स्पष्ट आधार है। जिसका एक मजबूत जमीनी संगठन है। वैचारिक आधार पर भले ही देश की एक बड़ी जनसंख्या भाजपा को पसंद नहीं करती हो, लेकिन एक बड़ा बहुमत उसके साथ है जिसने उसे केन्द्र की सत्ता में लगातार दूसरी बार स्पष्ट जनादेश दिया है।
तो इस बात पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखता है कि भाजपा हडबड़ी में है। या उसकी कोशिश राहुल गांधी या कांग्रेस को डराने की है। या फिर वो खुद राहुल गांधी से डर रही है। लगता यह है कि यह मोदी सरकार की एक सोची समझी राजनीति है। शुक्रवार को राहुल गांधी के समर्थन में मार्च करने वाले गैर-कांग्रेसी दलों की प्रतिक्रिया में इसे देखा जा सकता है। गैर कांग्रेसी नेता मन ही मन नरेंद्र मोदी और समूची भाजपा को जम कर कोस रहे होंगे। इस बात के लिए नहीं कि क्यों राहुल की संसद से सदस्यता खत्म कर दी गयी? इस कोसने में राहुल के लिए सहानुभूति वाला तत्व भी नहीं होगा। बल्कि उन्हें शिकायत इस बात की होगी कि ऐसा होने के बाद उन्हें एक बार फिर कांग्रेस (खासकर राहुल) के लिए पिछलग्गू की तरह वाली भूमिका में आने के लिए मजबूर होना पड़ गया है।
गजब दांव चला है भाजपा ने। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे ही हादसे कांग्रेस का नेतृत्व कर रहीं प्रियंका गांधी के साथ भी हुए थे। जो नतीजा निकला था, वो अप्रत्याशित था। कांग्रेस दो सीटों पर सिमट गई थी। और जो दो विधायक चुने गए। उनकी जीत में उनका खुद का अपना योगदान था। राहुल को सांसद के तौर पर अयोग्य घोषित करने का निर्णय पूरी तरह विधि-सम्मत है, यह नहीं, यह अब भी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में तय होगा। वैसे, उन्हें जेल की सजा सुनाई गयी है और इसके चलते नियमानुसार ही उनकी सांसदी खारिज की गयी है। लेकिन इसके माध्यम से जो हुआ और जो होता दिख रहा है, उस पर गौर करना काफी रोचक हो जाता है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खिलाफ विपक्षी गठबंधन कायम करने के कई आधार हैं। विपक्षी दलों के नेताओं के विरुद्ध जांच एजेंसियों की कार्यवाही इसका एक कारण हो सकती है। आयकर से लेकर प्रवर्तन निदेशालय और सीबीर्आ जैसी एजेंसियों ने जिस भी नेता के खिलाफ कदम उठाया, वह तुरंत शहीद वाली मुद्रा में इसका लाभ लेने में जुट गया। दिल्ली में मनीष सिसोदिया इसके ताजातरीन उदाहरण हैं। फिर लालू प्रसाद यादव तो स:कुटुंब इसकी बहुत बड़ी नजीर बन ही चुके हैं। लेकिन इन और इन जैसों में से किसी के साथ भी वह नहीं हुआ, जो राहुल के साथ हो गया (‘कर दिया गया’ भी कह सकते हैं)। इसके चलते हुआ यह कि राहुल शेष विपक्ष के मुकाबले सबसे बड़े ‘बिचारे’ बन गए और मन मारकर ही सही, अधिकांश विपक्ष को उनके समर्थन में कांग्रेस के बैनर तले आने को मजबूर होना पड़ गया।
आज की तारीख में यह परिदृश्य साफ है कि इस घटना के बाद आगामी आम चुनाव में मुख्य मुकाबला नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी वाला होगा और गैर एनडीए दलों के तमाम राहुल से अधिक शक्तिशाली चेहरे इसमें कव्वाली में ताली पीटने वालों की मुद्रा में ही नजर आएंगे। बाकी कांग्रेस कितनी मजबूत है और राहुल गांधी के भरोसे यह पार्टी कितना आगे जा सकती है, वह पूर्वोत्तर राज्यों के हालिया विधानसभा चुनाव में एक बार फिर स्पष्ट हो ही चुका है। राहुल को सांसद पद से हटाकर शहीद वाली मुद्रा में लाने के बाद भाजपा ने यह परिदृश्य स्पष्ट कर दिया है कि अब उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस को एक के बाद एक तीस से अधिक पराजय का स्वाद चखाने वाले गांधी से ही होगा। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी या भाजपा का मुकाबला करने वाला कांग्रेस के अलावा कोई और दूसरा राजनीतिक दल है भी नहीं।
सोनिया गांधी पुत्र मोह से ग्रस्त गांधारी हैं तो कांग्रेस के अधिकांश नेता इस मामले में अपने-अपने स्तर पर धृतराष्ट्र को भी मात देने की प्रतियोगिता में जुटे हुए हैं। ऐसे में आज वाली घटना के बाद ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, शरद पंवार, केसीआर जैसे विपक्षी दिग्गजों की उम्मीदों पर झाड़ू फिरने जैसी संभावना से कोई इंकार नहीं कर सकता है। भाजपा ने बड़े महीन तरीके से आज अपने लिए ‘प्यारा दुश्मन’ की तर्ज पर राहुल का चयन कर लिया है। यकीनन आज देश में कई लोगों की सहानुभूति राहुल गांधी के प्रति हो सकती है। लेकिन भाजपा के रणनीतिकार यह मानते हैं कि राहुल के प्रति उपजी सहानुभूति भाजपा विरोधी और राहुल के समर्थन वाले वोट में तब्दील नहीं होगी। आज शेष विपक्ष कांग्रेस के पीछे आ खड़ा हुआ है, लेकिन इसके बाद राहुल को नेता मानने की बात वह शायद ही सहन कर सकें। और कांग्रेस आज से आश्वस्त होगी कि नरेन्द्र मोदी अगर किसी से डरते हैं तो वो राहुल गांधी ही हो सकते हैं। और यही वह अवसर होगा, जब केंद्र के विरूद्ध विपक्षी एकता के प्रयास तार-तार होने लग सकते हैं। आगे का मामला और रोचक होना तय है, बाकी आज वाली घटना तो यही बता रही है कि भाजपा ने आम चुनाव के हिसाब से बहुत ही अपने दांव का एक हिस्सा चल दिया है।