प्रत्येक बात याद नहीं है। जो भूला नहीं है, उनमें यह कि मामला राजीव गांधी के समय की कांग्रेस का था। पार्टी के अधिवेशन का था। इसका स्थान दिल्ली से लगे हरियाणा का सूरजकुंड था। जो बात कभी भी नहीं भूलती, वह इस आयोजन के कवरेज से जुड़ी थी। तब बोतलबंद पानी को आम आदमी की पहुंच से दूर वाला दर्जा प्राप्त था। राष्ट्रीय स्तर की एक पत्रिका ने अधिवेशन पर विशेष सामग्री छापी। इसके अनुसार एक छोटे नेता ने अपने एक समकक्ष को लेकर बड़े पदाधिकारी से शिकायत की। बताया कि समकक्ष आयोजन के लिए आई पानी की करीब पचास बोतलों को अपनी कार में भरकर ले जा रहा है। बड़े नेता ने जवाब दिया, ‘यदि वो ऐसा कर रहा है तो आप उसे पचास और बोतलें दे दीजिए, लेकिन अब अगर आपके पास मुझे ऐसी एक भी बोतल मिल गयी तो फिर आपको मुझसे कोई नहीं बचा सकेगा।’
वो कांग्रेस के देशव्यापी स्वर्णिम काल के अवसान का समय था। आज जब छत्तीसगढ़ में इसका राष्ट्रीय अधिवेशन हो रहा है, तब यह पार्टी अपने स्वर्णिम दिनों की स्मृति के भी अवसान वाली बुरी स्थिति झेल रही है। केंद्र सहित देश के अधिकांश राज्यों में उसके सियासी ज्वार का पानी अब भाटा वाला अधोगति को प्राप्त कर उतर चुका है। बोतलबंद पानी भले ही अब घर-घर की कहानी हो गया है, मगर कांग्रेस की स्थिति नयी बोतल में पुराने पेय पदार्थ जैसी हो गयी है। वह आज के अपने लिए नाजुक हालात वाले समय में भी पुराने दिनों वाली आत्ममुग्धता में ही जी रही है। सुधार की कोई गुंजाइश लगता है कि छोड़ी ही नहीं गयी है। रायपुर में पार्टीजनों पर थोपने वाली शैली में एक बार फिर तय कर लिया गया कि सीडब्ल्यूसी के चुनाव नहीं होंगे। पार्टी में एआईसीसी के प्रतिनिधियों को लेकर भी लगभग यही दस्तूर बन चुका है।
यह पूरी तरह से सही बात है कि आंतरिक लोकतंत्र के मामले में भाजपा सहित बाकी दलों की भी यही स्थिति है। लेकिन भाजपा में समय रहते चेहरे बदल दिए जाने की परंपरा आज भी कायम है। कांग्रेस में करीब ढाई दशक बाद चेहरा-मोहरा यूं बदला कि नए चेहरे के नाम पर पुराने परिवार का मोहरा ही दिख रहा है। ऐसी जड़ स्थितियों के बीच यह सवाल लाजमी हो जाता है कि इस अधिवेशन से पार्टी क्या हासिल करेगी?
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकसभा में केवल 52 सदस्यों के चलते राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस काफी कमजोर है, किन्तु संदेह इस बात में भी नहीं कि आज भी भाजपा से सीधे मुकाबले के लिए कांग्रेस से इतर किसी सशक्त विपक्षी गठबंधन की कल्पना नहीं की जा सकती। हालात विचित्र हैं। क्योंकि जिन बड़े राज्यों से होकर केंद्र में ताकत पाने का रास्ता गुजरता है, उन लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस तीसरे या उससे भी नीचे वाले स्थान पर पहुंच चुकी है। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, बिहार, आंध्र आदि में उसकी सरकारों वाला असरकारी दौर बीते कल की बात हो गया है। तो सवाल यह कि इन राज्यों में भाजपा के मुकाबले में खड़े अन्य विपक्षी दल भला कैसे कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट होने के लिए तैयार हो सकेंगे? खासकर टीएमसी, आईएनसी, शिवसेना (उद्धव गुट) आरजेडी, जेडीयू, वायएसआर कांग्रेस, बसपा और सपा ऐसा करके अपने प्रभाव वाले राज्यों में अपनी स्थिति को कमजोर करना नहीं चाहेंगी। तो क्या कांग्रेस अधिवेशन में इस स्थिति का कोई तोड़ निकाल सकेगी?
सलमान खुर्शीद विपक्षी एकता की गेंद अन्य दलों के पाले में डाल चुके हैं। उन्होंने हाल ही में सवाल उठाया कि पहले आई लव यू कौन बोलेगा? वे इस एकता की पहल की तरफ इशारा कर रहे थे। अधिकांश भाजपा-विरोधी दल इस ‘ईलू-ईलू’ के लिए उदासीन दिख रहे हैं। जाहिर है कि रायपुर में कांग्रेस के दिग्गजों को इस विषम परिस्थिति को स्वीकार कर उसके अनुरूप ही ईमानदारी के साथ कोई निर्णायक योजना तैयार करना होगी। यह तथ्य ध्यान रखते हुए कि जो भी योजना बनेगी, वह छत्तीसगढ़ सहित मध्यप्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में इसी साल होने वाले को भी नजर में रखकर तैयार की जाना बेहद जरूरी हो गया है। क्या सचमुच कांग्रेस इन बड़ी जरूरतों के लिए इस बड़े आयोजन में जरूरी फैसले ले सकेगी?
जब सचिन पायलट कहते हैं कि रायपुर से एनडीए सरकार का रिवर्स काउंटडाउन शुरू होगा, तब उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनके अपने राज्य राजस्थान में बीते साल हुए पार्टी के चिंतन शिविर में हुए फैसलों और एकता के प्रदर्शन का क्या हश्र हुआ है? क्यों शिविर में राहुल गांधी द्वारा आंतरिक लोकतंत्र की मजबूत को लेकर चिंता जताए जाने के बावजूद आज भी स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है? किसलिए ऐसा हुआ कि शिविर को लेकर मच रहे कोलाहल के बीच सुनील जाखड़, हार्दिक पटेल और कपिल सिब्बल ने कांग्रेस को छोड़ दिया था?
ऐसा इसलिए हुआ था कि शिविर में भी चिंतन वाली स्थिति पार्टी की बजाय परिवार के लिए ही दिखी थी। यदि रायपुर में भी यही स्थिति बनती है तो फिर कांग्रेस के लिए मामला, ‘ये खेल ये हंगामे दिलचस्प तमाशे हैं। कुछ लोगों की कोशिश है कि कुछ लोग बहल जाएं’ वाला होकर ही रह जाएगा। शुरू में दोहराई गयी स्मृति में पानी की बोतलें समेट कर ले जानी वाली बात थी और रायपुर में यह देखना होगा कि कांग्रेस के लोग वहां से कोई ठोस कार्यक्रम साथ लेकर जाएंगे या फिर उनकी सारी आशाएं खारून नदी के पानी की तरह ही बहती चली जाएंगी?