दमोह (Damoh) के विधानसभा उपचुनाव (Assembly by-election) में BJP हार गयी। यह नतीजा सबके सामने है। लेकिन इस नतीजे के पीछे भी बहुत कुछ छिपा हुआ है। राज्य की सरकार से लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) की सेहत पर इस परिणाम का कोई बहुत खास असर नहीं होगा। बीते साल के 28 सीटों के विधानसभा उपचुनाव में 19 जगह फतह हासिल करके शिवराज सरकार (Shivraj government) मजबूत और स्थिर हो गई। सरकार में रहते हुए पहले भी शिवराज के कार्यकाल में ही बीजेपी ने कुछ चुनाव पहले भी हारे हैं। फिर भी एक सीट का उपचुनाव यदि सत्तारूढ़ दल (ruling party) हार जाए, वो फिर चौंकने वाली बात तो होती ही है। भाजपा सत्ता में रहते हुए ही झाबुआ सहित मुंगावली (Mungawali), अशोकनगर (Ashoknagar) और चित्रकूट (Chitrakoot) जैसी जगहों के उपचुनाव हार चुकी है। मगर दमोह इसलिए खास है कि यहां की पराजय कई फैक्टर्स की तरफ बीजेपी को गंभीरता से इशारे कर रही है,यह बीजेपी की मजबूरी थी कि उसे राहुल लोधी (Rahul Lodhi) को ही दमोह से टिकट देना था। लेकिन विवशता की यह श्रृंखला कुछ और भी बड़ी है। लोधी के लिए यह कहा जा रहा है कि खुद उन्होंने भी मजबूरी में ही अपनी विधायकी को दांव पर लगाया। पंद्रह महीने के कमलनाथ सरकार (Kamal Nath Government) के कार्यकाल में लोधी के माथे अनंत तोहमतें आईं। इनमें सबसे ज्यादा और गंभीर आरोप क्षेत्र की जनता के साथ ठीक से पेश नहीं आने के थे। अब अपनी पार्टी की सरकार हो तो दंभ आ जाना स्वाभाविक है।
दमोह से लगे रायसेन जिले का ही मामला है। पार्टी के एक बड़े नेता BJP के टिकट पर चुनाव जीत कर मंत्री बन गए। क्षेत्र के कुछ लोग किसी काम से उनके पास गए। हुकूमत होने के गुरूर में चूर मंत्रीजी ने उस समूह को फटकार दिया। जब लोगों ने कहा कि हमने तो आपको को ही वोट दिया था, तो जवाब मिला, ‘मैं तुम लोगों को नहीं जानता। अगली बार से मेरे पास मत पाना और न ही मुझे वोट देना।’ उसके अगले चुनाव में जब वह नेता उसी समूह वाले इलाके में वोट लेने गए तो वहां से लोगों ने उन्हें भी उलटे पांव लौटा दिया था।
खैर, नाथ की सरकार बनी तो कांग्रेस के विधायक होने के नाते लोधी के भीतर भी अहंकार पनप ही गया होगा। फिर जब वह सरकार जाती रही तो लोधी के लिए यह स्पष्ट हो गया कि विपक्ष (Opposition) में रहकर उनके लिए दमोह से दोबारा चुनाव जीतना तो और भी कठिन होगा। लिहाजा वे भाजपा में आ गए। मगर मतदाता ने हिसाब चुकता कर ही दिया। माहौल यहां ‘लोधी बनाम आल’ का होता जा रहा था लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाया। खुद राहुल अपने ही बूथ पर चुनाव हार गए। लिहाजा जातिगत गणित उनके काम नहीं आ सका। फिर भी इससे और बड़ा तथ्य यह भी कि लोधी ‘हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहां ये दम था’ के शिकार हुए हैं। इसमें भी बड़ी हद तक एक सचाई है। उनके इस आरोप पर आंख मूंदकर भले ही भरोसा नहीं किया जा सकता हो कि जयंत मलैया (Jayant Malaiya) और सिद्धार्थ मलैया (Siddharth Malaiya) ने मिलकर उन्हें पराजित करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पुत्र मोह में डूबकर धृतराष्ट्र बने मलैया और दर्योधन की तरह सनक से भरे सिद्धार्थ कलयुग की इस महाभारत में फिलहाल तो जीते हुए दिख रहे हैं। मामला क्योंकि BJP का है, इसलिए जल्दी ही इन दोनों के खिलाफ संगठनात्मक कार्यवाही जैसी बात भी हो सकती है। मगर कहा गया ना कि सौतन बेवा हो रही हो तो खुद के पति की मौत का भी अफसोस नहीं रहता। वही मलैया पिता-पुत्र ने जोखिम भरी बगावत करके जता दिया हो सकता है।
अभी लोधी को अपनों के लूटने वाले मामले की चर्चा पूरी नहीं हुई है। इसी श्रेणी में अगला नाम आता है दमोह से भाजपा सांसद (BJP MP) और केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल (Prahlad Patel) का। पटेल यकीनन केंद्र में मंत्री होने और अपने लोधी समुदाय के बड़े नेता होने का राहुल को लाभ दिलवा सकते थे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि मलैया परिवार के लिए पटेल की विवादास्पद बयानबाजी (Controversial rhetoric) ने जैन मतदाताओं की बहुत बड़ी स्थानीय आबादी को BJP से नाराज कर दिया। पटेल ने मलैया परिवार को नाम लिए बगैर पूतना तक कह डाला था। जिसका न भाजपा को लाभ मिला और न ही राहुल को।
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यदि इस पराजय की धार शिवराज सिंह चौहान की तरफ की जा रही है तो ऐसा करना सिरे से गलत नहीं होगा। फिर भी न टाले जा सकने वाले कई कारणों की रोशनी में भी इसकी समीक्षा की जाना चाहिए। शिवराज ने चुनाव में जमकर दौड़-धूप की। मलैया परिवार को मनाने के लिए भी उनके प्रयास किसी से छिपे नहीं रहे। तमाम जनसभाओं के माध्यम से भी शिवराज ने दमोह के लिए विकास योजनाओं की झड़ी लगा दी थी। फिर इस चुनाव का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि चुनाव का सारा प्रबंधन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अपने हाथ में ले रखा था। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा और सह संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा (Hitanand Sharma) पूरे समय दमोह में डेरा डाले रहे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रचार के आखिरी दौर में प्रदेश में कोरोना (Corona) के व्यापक होते प्रसार के कारण दमोह से दूरी बनानी पड़ी। इसका खामियाजा भी भाजपा के खाते में गया। जब निर्णायक जोर लगाने का समय आया, तब तक दमोह सहित पूरे प्रदेश में कोरोना की दूसरी वेव मौत बनकर टूट चुकी थी। जाहिर था कि शिवराज को उपचुनाव जीतने के मोह की बजाय प्रदेश भर की फिक्र में ज्यादा समय लगाना था। यदि मुख्यमंत्री बाद तक भी दमोह में समय दे पाते रहते तो परिस्थितियां भाजपा के पक्ष में बनने की पूरी उम्मीद थी। मगर ऐसा नहीं हो सका। अब ये हालात के चलते हुआ हो या इसके किस्मत का खेल कहें। और या फिर सचमुच ही सच्ची कोशिशों का असर कि कांग्रेस यह चुनाव बहुत सम्मानजनक तरीके से जीत गयी, कमलनाथ को इसके लिए बधाई। और राहुल लोधी के लिए जो अब केवल संवेदना ही व्यक्त की जा सकती है।