इंदौर में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में शिवराज सिंह चौहान ने एक बात गौरतलब कही। साढ़े पंद्रह लाख करोड़ वाले निवेश के प्रस्तावों के बीच चौहान ने खुद को मध्यप्रदेश का ‘सीईओ’ बताया और कहा कि निवेशकों का एक भी पैसा बर्बाद होने नहीं दिया जाएगा। यूं तो यह पहला मौका नहीं था जब देश विदेश के कार्पोरेट्स के बीच शिवराज ने खुद को प्रदेश का सीईओ बताया हो। यह शिवराज की यूएसपी बन चुकी हैं। वह पानी की तरह हो गए हैं। जिस पात्र में डालो, वैसा ही स्वरूप। ग्रामीण इलाकों में उन्हें सुन लीजिए। ठेठ देहाती किसान उनके भीतर उतर आता है। इसी तरह सूट-बूट पहनकर देश-विदेश के दिग्गज मेहमानों को संबोधित करते शिवराज सचमुच किसी सीईओ से हटकर नहीं लगे। समिट की तैयारियों के दौर में वह किसी उस आम व्यक्ति की तरह दिखे, जो अपने घर के किसी आयोजन की सफलता के लिए दिन-रात एक कर देता है। शिवराज उसी स्वरूप में देश विदेश में जाकर निवेशकों से मिले। तगड़े होमवर्क के साथ। वहां राज्य की खूबियां गिनाईं। निवेश के संभावित फायदों की बात की। इसका असर दिखा। भारत सहित 84 देशों के कदम यदि मध्यप्रदेश की तरफ बढें तो यह विश्वास भी बढ़ता है कि समिट को आशातीत सफलता मिल सकती है। पिछले दो दशक से निवेश के लिए यह शिवराज का अपनी तरह का कोई पहला प्रयास तो था नहीं।
यह ऐसे आयोजनों का सातवां चरण रहा। इसमें एक प्रयास मध्यप्रदेश के अल्पकालीन मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ के ‘राईजिंग मध्यप्रदेश’ को जोड़ लें तो। लेकिन वो कमलनाथ की राजनीतिक असफलताओं के कारण बीच में ही डूब गया। दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में तो सड़क, बिजली और पानी को लेकर मध्यप्रदेश इतना चर्चा में था कि उस समय ऐसे प्रयासों की कोशिश भी व्यर्थ ही साबित होती। कमलनाथ के पास समय कम पड़ गया और दिग्विजय के पास संसाधन नहीं थे। दिग्विजय के समय मध्यप्रदेश में उद्योगों को तो दूर, आम जनता तक के लिए आवश्यक संसाधनों का भयावह टोटा पसरा था। न तो निवेशकों की अगवानी के लिए सड़क थी और न ही वह ‘करंट’ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था, जो उद्योग समूहों को राज्य की तरफ खींच सके। लिहाजा बात ज्यादा आगे बढ़ना नहीं थी।
लेकिन शिवराज सधे हुए कदमों से आगे बढ़े। 2005 के साल को भले ही छोड़ दिया जाए। तब साल के आखिर में भाजपा में मचे घमासान और राजनीतिक अस्थिरता के दौर में वे मुख्यमंत्री बने ही थे। उस साल के बाद से उन्होंने खरामा-खरामा राज्य को आवश्यक आधारभूत सुविधाओं से जोड़ने पर फोकस किया। चौहान के बाद के कार्यकालों में जनता ने अगर उन्हें दौहराया तो जाहिर है अद्योसंरचना के विकास, सामाजिक सरोकारों से सरकार को जोड़कर उन्होंने अपनी राजनीतिक सफलताओं की लाइन को लगातार लंबा किया है। मध्यप्रदेश में राजनीतिक स्थिरता भी निवेशकों को अगर आकर्षित कर रही है तो इसके पीछे भी शिवराज का राजनीतिक व्यक्तित्व ही है। इस सबका असर दिखने लगा है। हर तरह के बिजली उत्पादन में राज्य आज सक्षम और समृद्ध है। सड़कों का जाल ऐसा फैला है कि मुख्य और नए मार्गों सहित सुदूर देहाती इलाकों में जाने तक के लिए लंबा चक्कर लगाने की बाध्यता अब समाप्त हो गयी है। कृषि कर्मण अवार्ड की लगातार आमद जहां खेती-किसानी की समृद्धता को बताते हैं, वहीं सफाई के क्षेत्र में निरंतर मिली राष्ट्रीय स्तर की कामयाबी भी कह रही है कि राज्य के हालात में उल्लेखनीय रूप से सुधार आया है। ये सब कहता है कि हालिया इन्वेस्टर्स समिट निवेश के लिहाज से सचमुच कुछ अमिट किस्म की सुखद सौगातें राज्य को प्रदान कर सकती है।
लेकिन इनवेस्टर्स समिट के बाद शिवराज के लिए चुनौतियां खत्म नहीं हो गई हैं? चुनावी साल की इस इनवेस्टर्स समिट के बाद पहला भरोसा तो यह पैदा करना जरूरी है कि शिवराज या उनकी पार्टी वापस सत्ता में लौट रहे हैं। इसके बिना चुनावी साल में निवेश का पुख्ता आधार तय नहीं हो पाएगा। सीएम से सीईओ के बाद शिवराज आखिर और कौन-कौन सी जिम्मेदारी खुद ही उठा सकेंगे? राजनीतिक वातावरण में तैर रही अनिश्चिंताओं पर विराम भी डबल इंजन की सरकारों के कर्ताधर्ताओं को ही लगाना है। इसके अलावा आखिर मशीनरी तो वही है, जिस पर पूर्व में भी निवेशकों की सतरंगी उम्मीदों को लालफीताशाही में कैद कर उनका दम घोंट देने के आरोप लगे हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री की यह चुनौती बहुत अधिक हो जाती है कि वह व्यवस्था के इन दुराग्रहों से समिट की उम्मीदों को किस तरह बचा पाएंगे? वैसे शिवराज इस दिशा में प्रयासशील दिख रहे हैं। छोटे और मध्यम स्तर के निवेशकों के लिए सरकारी खानापूर्ति में छूट दी गयी है। उद्योगों की स्थापना के शुरूआती तीन साल तक उन्हें निरीक्षण की प्रक्रिया से मुक्ति देने की बात कही गयी है। बात फिर वही आती है कि ये सब शिवराज की मंशा के ठीक अनुरूप किस तरह किया जा सकेगा? इसलिए ये आवश्यकता अवश्यंभावी लगने लगती है कि सीएम और सीईओ के बाद शिवराज को अब एक बेहद कठोर प्रशासक के रूप में अपनी मशीनरी के कल पुर्र्जाे को कसना होगा कि निवेशकों से किए गए एक भी वायदे में ‘किंतु-परंतु’ जैसा पेंच न लगने पाए। जाहिर है कि समिट के बाद शिवराज की यहीं चुनौतियां सबसे बड़ी हैं।