उस दिन जादूगर पीसी सरकार जूनियर भोपाल (Bhopal) में थे। मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा कि वह उस जादू की कला को सीखने की कोशिश में हैं, जिसमें जादूगर हवा में न दिखने वाली ऊंचाई तक रस्सी को सीधा खड़ा कर देता है। फिर वह खुद रस्सी पर चढ़कर गायब हो जाता है। बचपन के समय की तमाम फंतासी फिल्मों में मैंने यह जादू देखा था। वह असल में भी हो सकता है, यह मैंने जूनियर सरकार की जुबानी ही सुना। मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में भी शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) की सरकार बीते दिनों से हिंदी (Hindi) को जिस तरह नया गौरव प्रदान कर रही है, वह देखकर यही ख्याल आ रहा है कि हिंदी को हवा में तन कर खड़ी उस रस्सी के ही सहारे उतना ऊपर ले जाया जा रहा है, जहां तक फिलहाल हमारी दृष्टि नहीं पहुंच पा रही है।
हिंदी भाषा में चिकित्सा शिक्षा (medical education) की शुरूआती पढ़ाई की व्यवस्था। चिकित्सा शिक्षा में ही स्नातकोत्तर के लिए भी हिंदी पाठ्यक्रम (Hindi course) की घोषणा। सरकारी होर्डिंग और विज्ञापनों में केवल हिंदी के प्रयोग का निर्णय। चिकित्सकों को सलाह कि वह पर्चे पर आरएक्स की जगह ‘श्री हरि’ लिखें। दवाई के नाम हिंदी में ही लिखें। इस सबके बीच रविवार को बड़ा फैसला कि इंजीनियरिंग और पॉलीटेक्निक (Engineering and Polytechnic) की पढ़ाई के लिए भी राष्ट्रभाषा में पाठ्यक्रम तैयार होगा। निश्चित ही हिंदी-बाहुल्य वाले किसी राज्य में इस भाषा के लिए ऐसी क्रांतिकारी व्यवस्था एवं प्रयास स्वागत-योग्य हैं। भाषाई पहचान वाले राज्यों में भी क्षेत्रीय भाषाओं में ऐसी पहल हो तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
यह नवाचार उस वर्ग के लिए बहुत सहायक होंगे, जो प्रतिभाशाली होते हुए भी अंग्रेजी (English) में कमजोर होने के चलते चिकित्सा जगत में अपने लिए सुखद और सफल भविष्य की संभावनाएं नहीं तलाश पाते। यह भी कि इन कामों के चलते अब राज्य के देहाती इलाकों में चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार भी हो सकेगा। हिंदी को लेकर यह कार्य अंग्रेजी के समानांतर चलेंगे, इसलिए फिलहाल शिवराज सरकार इस आरोप से भी बच गयी है कि मामला किसी भाषा-विशेष को थोपने वाला है।
लेकिन चुनौतियां तो अब और बढ़ गयी हैं। सबसे पहली बात यह कि क्या राज्य से हिंदी माध्यम में चिकित्सा शिक्षा की पढ़ाई करने वालों को इसी के जरिये देश के किसी महानगर या विदेश में बतौर डॉक्टर करियर बनाने का अवसर मिल सकेगा? जरा ठीक ठाक कद वाले बड़े शहर में चले जाइए, मामूली नौकरी के लिए भी फर्राटेदार अंग्रेजी जानना वहां अनिवार्य होता है। यहां तक कि प्रदेश के ही किसी बड़े निजी सरकारी अस्पताल में काम करने के लिए इंग्लिश की अनिवार्यता को कोई सरकारी नियम शिथिल तो कर सकता है, लेकिन उस मानसिकता को नहीं बदल सकता, जो इस बात की जड़ जमा चुकी है कि अंग्रेजी नहीं तो डॉक्टर का काम भी नहीं। फिर समाज की मानसिकता को लेकर तो और बड़ा संघर्ष बाकी है। दूसरी सबसे बड़ी बात हमारी मानसिकता की है। जहां भी लोगों को सुविधाएं हासिल हैं, अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम के स्कूूल में ही लोग सगर्व पढ़ाना पसंद करते हैं। वो चाहे फिर मैं खुद हूं या फिर अगर आप इसे पढ़ रहे हैं तो खुद के बारे में भी सोच लें। और हिन्दूस्तान (Hindustan) के जितने बच्चे आज IT, मेडिकल या अन्य क्षेत्रों में दुनिया भर में अपने झंडे गाड़ रहे हैं, उस पर विचार करेंगे तो इसे भी मानना ही होगा कि इसका कारण उनका अंग्रेजी में पारंगत होना है। इसलिए जरूरी यह है कि आप चाहे अंग्रेजी में पढ़ाई करें या फिर दुनिया की किसी भी भाषा में, लेकिन आप अपनी मातृभाषा में भी पारंगत हो और उस पर गर्व भी करें। इसलिए यहां अकेला आग्रह हिन्दी का नहीं है।
देश में बाबा रामदेव (Baba Ramdev) की स्वदेशी चिकित्सा पद्धति की क्रांति के पहले तक महान भारतीय चिकित्सा ज्ञान आयुर्वेद को ‘हिंदी मीडियम छाप’ की हिकारत भरी नजरों से देखकर उससे अधिक तवज्जो होम्योपैथी और एलोपैथी को दी जाती रही। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (Indian Medical Association) के आगे भारतीय चिकित्सा पद्धति (Indian system of medicine) गुलाम मानसिकता की भेंट चढ़ा दी गयी। ऐसे देश में मेडिकल जगत से अंग्रेजी का वर्चस्व पूरी तरह खत्म कर देने की कल्पना उसी रस्सी की तरह है, जिस पर चढ़ने के बाद ‘गायब’ वाली स्थिति ही बताई जाती रही है। फिलहाल तो हिंदी को अंग्रेजी के समकक्ष जगह ही पूरी तरह सम्मान के साथ मिल जाए, यह कामना की जा सकती है। शिवराज ने वाकई एक जादू तो कर दिखाया है, अब इसमें आगे और क्या-क्या चौंकाने वाले मंजर सामने आएंगे, इसकी प्रतीक्षा करना पड़ेगी।