बात नब्बे का दशक पूरा होने के आसपास की है। भोपाल में एक नामी वकील साहब से परिचय हुआ। वह धुआंधार अंग्रेजी (English) बोलते थे। उन दिनों यह मांग जोर पकड़ रही थी कि अदालती कामकाज में हिंदी (Hindi) का इस्तेमाल अनिवार्य किया जाए। यानी अदालतों से अंग्रेजी खदेड़ दी जाए। वकील साहब भारी परेशानी में थे। कहते थे कि यदि ऐसा हुआ तो वह वकालत नहीं कर सकेंगे। लेकिन वह जीवन-पर्यन्त इसी पेशे में रहे। खुद मैंने अदालत में उन्हें हिंदी में बहस करते सुना। हर उस मौके पर, जब उनके विरोध में कोई ऐसा वकील सामने था, जो हिंदी में ही अपना काम करता था।
मैंने वह दौर भी देखा, जब एक साहब ने राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में आलेख लिखकर इस बात पर ‘चिंता’ जताई थी कि हॉलीवुड की फिल्मों को हिंदी में डब किया जा रहा है। वह इस बात से फिक्रमंद थे कि ऐसा किए जाने से मूल अंग्रेजी संवादों का मजा जाता रहेगा। पता नहीं वो साहब अब कहां हैं, लेकिन छविग्रहों से लेकर टीवी (TV) पर डब की गयी फिल्मों (films) की दीवानगी में कहीं कोई कमी नहीं दिखती है।
ऐसा इसलिए कि मामला उस हिंदी का है, जिसमें हम सभी की जड़ों बसी हुई है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह हमारी मातृभाषा है, बल्कि इसलिए भी कि हिंदी की सहजता, सरलता और स्वीकार्यता का भाव उसके मूल में छिपा हुआ है। इसलिए जब मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) ने मेडिकल की पढ़ाई (medical studies) हिंदी (hindi) में कराने का फैसला लिया है तो उसे किसी जटिल प्रयोग की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। आजादी के पचहत्तर साल बाद कम से कम एक अच्छी शुरूआत हुई है। बधाई के पात्र प्रदेश के युवा चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग (Medical Education Minister Vishwas Sarang) भी हैं। जिस विश्वास के साथ उन्होंने इस दिशा में बड़े प्रयास को शुरू किया, मानना चाहिए कि यह प्रयास लक्ष्य तक भी पहुंचेगा। CM शिवराज सिंह चौहान और विश्वास सारंग ने राष्ट्रभाषा (national language) को एक नया गौरव प्रदान करने की दिशा में कदम उठाया है। यह उस वर्ग के शैक्षणिक उन्नयन के लिए बहुत बड़ी पहल है, जो सिर्फ इस कारण अपनी प्रतिभा के बाद भी पिछड़ जाने को विवश रहता आया है कि उसे एक विदेशी भाषा (foreign language) का ज्ञान नहीं है।
हिंदी को लेकर बहुत बड़ा हिन्दुस्तानी वर्ग ही एक सकुचाहट से घिरा रहता आया है। उन माता-पिता की संख्या बहुत बढ़ गयी है, जो गर्व से कहते हैं कि उनका बच्चा हिंदी बोलने और लिखने में कमजोर है। वह समूह तो अपरंपार गति से बढ़ चुका है, जो किसी भारतीय के गलत अंग्रेजी बोलने पर उसकी हंसी उड़ाता है और किसी विदेशी की टूटी-फूटी हिंदी से हो रही राष्ट्रभाषा की दुर्गति को गर्व के भाव से स्वीकारता है। इन सबके बीच शिवराज सरकार के इस निर्णय का इस विश्वास के साथ भी स्वागत किया जा सकता है कि इसकी सफलता हमारी मातृभाषा के लिए ऐसी विडंबनाओं के निदान में सहायक होगी।
दशकों तक कोई इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि भारतीय टेलीविजन (Indian television) पर क्रिकेट की कमेंट्री केवल हिंदी में होगी। अब ऐसे मैच खूब होते हैं और कोई भी दर्शक इस बात की शिकायत नहीं करता कि मैच का आंखों देखा हाल उसे केवल हिंदी में क्यों सुनाया जा रहा है? ऐसे उदाहरणों के आलोक में शिवराज के इस निर्णय को हिंदी थोपने जैसा कतई नहीं कहा जा सकता। यह व्यवस्था केवल उनके लिए है, जो Medical की पढ़ाई हिंदी भाषा में करने की सुविधा चाहते हैं। फिर जिस तरह हिंदी ने उसके लिए जटिल माने जा रहे क्षेत्रों में पहले भी सुरक्षित एवं सम्मानजनक जगह बनाई है, उसके चलते यह उम्मीद की जा सकती है कि शिवराज का यह प्रयोग अंतत: देश के समस्त हिंदी-भाषी राज्यों के लिए एक मिसाल बन जाए। यह भी संभव है कि इस निर्णय के बाद मध्यप्रदेश मेडिकल पढ़ाई के लिहाज से हिंदी-भाषी अन्य राज्यों के छात्र-छात्रों का बड़ा हब बन जाए।
हिंदी बाहुल्य वाले क्षेत्रों में बड़े से बड़ा अंग्रेजीदां डॉक्टर भी तब सफल हो पाता है, जब वह किसी ठेठ हिंदी वाले मरीज से ‘वॉमिट’ की जगह ‘उल्टी’ और ‘फीवर’ की जगह ‘बुखार’ वाली भाषा का प्रयोग करता है। अत्याधुनिक अस्पतालों की भी आज यह आवश्यकता है कि वह अपने यहां ‘प्रसूति कक्ष’ लिखें और ‘जच्चा-बच्चा वार्ड’ बोलने वाले स्टाफ की सेवाएं लें। फिर यह तथ्य भी गौरतलब है कि कोरोना (Corona) की वैश्विक बीमारी को भारतीय चिकित्सा (Indian medical) के ‘सीरप’ की बजाय ‘काढ़े’ और ‘एक्सरसाइज’ की जगह ‘प्राणायाम’ वाले तथ्य ने ही मात देकर सारी दुनिया में अपनी धाक स्थापित की है। ऐसे में यदि Hindi के प्रयोग के साथ मेडिकल की प्रतिभाएं आगे आएंगी तो न सिर्फ इससे राष्ट्रभाषा का गौरव बढ़ेगा, बल्कि पारंपरिक भारतीय ज्ञान का भी चिकित्सा सेवाओं में और अधिक प्रयोग सुनिश्चित किया जा सकेगा।