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सयाने स्वरों पर चाटुकारिता का शोर

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कांग्रेस (Congress) के वास्तविक हितैषी वाकई दुर्लभ की श्रेणी में हैं। इस पार्टी में जो चल रहा है, उसके चलते जल्दी ही ऐसे लोग दुर्लभतम वाली स्थिति में पहुंच जाएंगे। फिर भी दुर्लभ से दुर्लभतम के बीच वाले ये लोग इस बात की राहत महसूस कर रहे होंगे कि पार्टी के भीतर अब भी शशि थरूर (Shashi Tharoor), मनीष तिवारी (Manish Tiwari) या आनंद शर्मा (Anand
Sharma) कभी-कभी सांस लेने का साहस दिखा पाते हैं। यदि आपने बचपन में ‘अब्बू खान की बकरी’ (abboo khan ki bakari) कहानी पढ़ी होगी तो याद होगा कि उसमें बकरी ने प्राण देकर भी शेर से भिड़ने का साहस दिखाया था। राहुल गांधी (Rahul gandhi) कम से कम पार्टी के भीतर बनी चमचत्व की अंधेरी गुफा के शेर हैं। थरूर, तिवारी या शर्मा जैसे लोगों को बकरी नहीं कहा जा सकता। यहां उनके साहस की बात प्रतीकात्मक रूप से कही जा सकती है।

थरूर ने कहा है कि कांग्रेस में अध्यक्ष पद (President’s post) के निर्वाचन की प्रक्रिया में कुछ और नेता भी उम्मीदवार हो सकते हैं। मुमकिन है कि खुद थरूर भी इस फेहरिस्त में दिख जाएं। यह वास्तव में पहली नजर में किसी पार्टी के लोकतांत्रिक व्यवस्था में यकीन का शुभ लक्षण दिखता है। लेकिन मामला इतना सीधा नहीं है। जिस पार्टी में आज तक अध्यक्ष का चयन लोकतंत्र को हाशिये पर धकेल कर ही किया जाता रहा हो, वहां यह उम्मीद बेमानी है कि सांस लेते नेताओं की यह आस पूरी हो सके कि वह कुछ बड़ी तब्दीली ला सकेंगे। राष्ट्रीय अध्यक्ष (National President ) के चुनाव के लिए वोटर लिस्ट सार्वजनिक करने की मांग भी उठी है। हो भी जाएं तो फर्क नहीं पड़ता। मैंने लंबे समय तक कांग्रेस की रिपोर्टिंग की है। वहां प्रदेश प्रतिनिधि से लेकर एआईसीसी मेंबर (AICC Member) तक सब नेताओं की पसंद से कागजों पर चुने जाते हैं। जाहिर है कांग्रेस के यह वोटर पार्टी से ज्यादा अपने नेताओं के प्रति वफादार होते हैं। और कांग्रेस में अधिकांश नेताओं की वफादारी भी कांग्रेस से ज्यादा किसके प्रति है, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है।

आपातकाल के बाद से अध्यक्ष के नाम पर कांग्रेस आठ साल के अंतराल को छोड़ दें तो केवल गांधी परिवार को ही अध्यक्ष के तौर पर देखा और भुगता है। अपातकाल (emergency) के बाद हुए कांग्रेस विभाजन में कांग्रेस (ई) में फिर इंदिरा गांधी (Indira gandhi) ने अध्यक्ष पद के लिए किसी औपचारिक चुनाव की जरूरत कभी महसूस नहीं की। 31 अक्टूबर 1984 तक वे और उसके बाद मई, 91 तक राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। राजीव गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद जब तक गांधी परिवार राजनीति से दूर रहा तब तक नरसिम्ह राव (Narasimha Rao) और सीताराम केसरी (Sitaram Kesari) को यह अवसर मिला। जिस दिन सोनिया ने राजनीति में सक्रिय होने की हामी भरी तब से अब तक वे अध्यक्ष पद पर रिकार्ड तोड़ कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं। बीच में अल्पकाल के लिए राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने यह दायित्व निभाया और फिर 2019 की हार के बाद पलायन कर गए। तब से फिर सोनिया (Sonia Gandhi) ही यह दायित्व निभा रही हैं। चमचों ने अपातकाल से पहले ‘इंडिया इज इंदिरा’ कहा और फिर भाट चारण करने वालों ने इसे ‘गांधी-नेहरू इज ओनली कांग्रेस’ (Gandhi-Nehru is only Congress) में परिवर्तित कर दिया। अब कांग्रेस अध्यक्ष का पद कभी मां के पल्लू तो कभी बेटे राहुल गांधी के कुर्ते की जेब में ही कैद होकर रह गया है।

फिर इस कुएं में भांग तो बहुत निचले स्तर से ही मिलाई जाती रही है। अध्यक्ष चयन हेतु मताधिकार प्राप्त प्रतिनिधियों को चुनने के नाम पर चुन-चुनकर वह लोग लिए जाते हैं, जिनकी तवज्जो कांग्रेस तक को नहीं सिर्फ अपने नेताओं को मिलती है। पहले ऐसा हुआ है और अब भी ऐसा ही होगा। भूतकाल का यह सच भविष्य में भी लागू होगा और यहीं विडंबना थरूर जैसे स्वरों को एक झटके में नक्कारखाने में तूती वाली कमजोर स्थिति में ला देती है।

इस बात से बिलकुल सहमत हुआ जा सकता है कि आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली भाजपा में भी बहुत कुछ ऐसा ही होता है। लेकिन फिर भी यह वह दल है, जिसमें अध्यक्ष पद पर पार्टी और संघ के कर्ताधर्ताओं में रायशुमारी और सहमति बनाने का प्रयास होता है। जहां आज भी इस आग्रह को ग्राह्यता प्राप्त है कि परिवार या कुनबे की राजनीति को हावी होने नहीं दिया जाएगा। भाजपा संगठन (BJP organization) के शीर्ष नेतृत्व के लिए योग्यता रखना ही नहीं, बल्कि उसे सिद्ध करना आज भी जरूरी है। अमित शाह (Amit Shah) इसलिए अध्यक्ष नहीं बने थे कि वे नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के विश्वसनीय थे। वह इसलिए यहां तक लाए गए कि पार्टी को उनकी क्षमताओं पर भरोसा था। वह भरोसा, जो शाह ने अपने कार्यकाल में BJP को विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन बनाकर कायम रखा। देश में पार्टी के जनाधार को अद्वितीय ऊंचाई प्रदान करके स्थापित रखा।

इससे परे जब हम देखते हैं कि कांग्रेस में आज भी चालीस से अधिक चुनाव हरवाने का बायोडाटा रख रहे राहुल गांधी को ही अध्यक्ष बनाने की बात हो रही है, तो फिर साफ हो जाता है कि यह सामूहिक आत्महत्या के जरिये देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल की हत्या वाली स्थिति बन रही है। अब्बू खान की बकरी अंत में शेर के हाथ मारी जाती है। यह संघर्ष देख रही चिड़ियाएं कहती हैं कि शेर जीत गया। लेकिन एक बुजुर्ग चिड़िया कहती है, ‘यह बकरी की जीत है।’ शायद थरूर या उन जैसा कोई इसी तरह हार कर भी सयानों की नजर में जीत जाएं। फिलहाल तो केवल यही कामना की जा सकती है। इससे आगे की कामना या कल्पना आज की तारीख में निरर्थक ही है। कांग्रेस में इक्के-दुक्के सयाने स्वरों पर चाटुकारिता का शोर बहुत भारी पड़ रहा है।

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