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दल छोड़िये, दिल से बोलिए ‘जय आदिवासी ‘

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आप भले ही भाजपा (BJP) को उसके हिंदुत्व (Hindutva) के चलते पसंद न करें, लेकिन एक तर्क को कुतर्क बनाने से शायद आप भी बचना चाहेंगे। वह यह कि इस दल को हिंदुत्व की इसकी थ्योरी के चलते चाहे जो भी कहा गया हो, लेकिन खुद भाजपा ने अपने लिए जो कहा, वह उस पर खरी उतरती दिख रही है। पचहत्तर सालों में पहली बार एक आदिवासी (tribal) और वो भी महिला देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचेंगी। भाजपा को राष्ट्रपति (President) चुनने के लिए यह तीसरा अवसर मिला है। पहले अल्पसंख्यक वर्ग से एक विख्यात वैज्ञानिक मिसाइल मैन (Scientist Missile Man) डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Dr. APJ Abdul Kalam)। फिर दलित समुदाय के रामनाथ कोविंद (Ramnath Kovind)। अब आदिवासी समाज की द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu)।

देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए इन तीन नामों के माध्यम से BJP ने यह काफी हद तक सच साबित कर दिया कि वह सामाजिक समरसता में विश्वास रखती है। फिर अलग से बहुत विस्तार के साथ यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भी सामाजिक समरसता पर ही जोर देता आ रहा है। संघ को पता है कि तमाम जातियों और वर्गों में बंटे हिन्दूओं को संगठित करने का एक ही रास्ता है और वो है सामाजिक समरसता। अब तो संघ यह भी लगभग दोहरा ही रहा है कि इस देश के मुस्लिम (Muslim) भी एक तरह से धर्म परिवर्तन के कारण बने मुस्लिम हैं और चार छह पीढ़ियों पहले वे हिन्दू ही थे। इसलिए भले ही संघ ने ऐसा अपने विरूद्ध निर्मित की गयी ‘मुस्लिम-विरोधी’ छवि को तोड़ने के लिए किया हो, लेकिन इस समरसता की दिशा में वह भी तेजी से आगे बढ़ा है। मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) ने बीते दिनों किसी भी मंदिर आंदोलन से संघ के दूर रहने की घोषणा की। उन्होंने यह अपील भी की कि ज्ञानवापी विवाद (gyanavapi controversy) को चर्चा की बजाय केवल अदालत के ऊपर छोड़ देना चाहिए। यह भी देश में समरसता की दिशा में एक कदम है।

अब अपने कहे पर अमल करने की उम्मीद तो बाकियों से भी की जा सकती है। वो तमाम राजनीतिक दल खासकर कांग्रेस (Congress), अब क्या करेंगे जो आदिवासी कल्याण के नाम पर अपनी दुकान चमकाते चले आए है, लेकिन जो खुद भाजपा के विरोधी हैं। क्या उन्हें नहीं चाहिए कि राजनीतिक मतभेद भुलाकर आत्मा की आवाज के आधार पर पहली बार चुनी जा रही एक आदिवासी महिला द्रोपदी मुर्मू के पक्ष में मतदान करें? मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में एक समय दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) के खिलाफ कांग्रेस के ही एक धड़े ने आदिवासी मुख्यमंत्री (tribal chief minister) की मुहिम चलाई थी। इस मिशन के सूत्रधार अजीत जोगी (Ajit jogi) तो अब रहे नहीं, लेकिन उनके दाएं-बाएं उस समय खड़े हुए कांग्रेस के आदिवासी नेता ही क्या अब यह मांग रखेंगे कि उनके वर्ग को CM से भी बहुत बड़ा ओहदा मिलने के पूरे अवसर हैं, लिहाजा राष्ट्रपति चुनाव में NDA की उम्मीदवार को जिताने के लिए पूरी पार्टी को आगे आना चाहिए? अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए भगवान बिरसा मुंडा (Birsa Munda) के सच्चे अनुयायी होने की बात कहने वाले भाजपा के विरोधी दल भी क्या ऐसा करने का साहस दिखा सकेंगे?

वैसे यह सच है कि चील के घर में मांस और राजनीति के गलियारों में नैतिकता की तलाश करना निरी मूर्खता ही है। इसलिए विश्लेषण में कहीं भी यह पुट नहीं आना चाहिए कि भाजपा ने खालिस आदिवासी-प्रेम के चलते मुर्मू को प्रत्याशी बनाया और उनकी जीत के भी तगड़े बंदोबस्त कर दिए हैं। नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का यह कदम राजनीतिक भी है। राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए बीजू जनता दल (BJD) के वोट जरूरी थे, इसलिए ओडिशा (Odisha) की मूल निवासी मुर्मू को आगे लाया गया है। नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) ने तत्काल समर्थन कर दिया। इस निर्णय के बाद झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Morcha) के सामने भी धर्मसंकट होगा। यदि वह यशवंत सिन्हा (Yashwant Sinha) को वोट करता है, तो इससे उसके आदिवासी-विरोधी असली रूप की घातक मान्यता प्रदान करने की वजह बन जाएगा। इसी तरह के आदिवासी हित के नाम पर चल रहे अन्य दलों के मुर्मू को समर्थन न देने का मामला भुनाने में BJP कोई कसर नहीं उठा रखेगी। कुल मिलाकर सांप-छछूंदर वाली तेजी से बनती इस स्थिति का चरम देखना काफी रोचक हो सकता है। दल छोड़िये और दिल से बोलिये ‘जय आदिवासी राष्ट्रपति प्रत्याशी की’ तब तो लगेगा कि आपकी कथनी और करनी में अंतर कुछ कम होना शुरू हो गया है ।

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