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सच से इतना डर कैसा?

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कालीचरण महाराज (Kalicharan Maharaj) ने महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के लिए जो शब्द इस्तेमाल किए, उनका निश्चित ही विरोध किया जाना चाहिए। कालीचरण उस भारतीय संस्कृति (Indian culture) का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें वैचारिक हिंसा (Violence) को भी अनुचित माना गया है। यह वह संस्कृति है, जो किसी के प्रति असभ्य तो दूर, हलके शब्दों के प्रयोग तक को गलत मानती है। लेकिन कालीचरण के बाकी विचारों के लिए भी क्या उन्हें गलत कहा जाएगा? आप एक बहुत बड़े वर्ग के क्रोध (krodh) को नजरअंदाज नहीं कर सकते। वह वर्ग जो इतिहास पर चढ़ाये गए झूठ या आधे सच के आवरण को हटा चुका है। जिसने यह जान लिया है कि अतीत के नाम पर अब तक वह गुमराह (Misguided) ही किया जा रहा था। यह एक प्रक्रिया होती है।

कॉलेज जीवन में मैंने पंडित इलाचंद्र जोशी (Pandit Ilachandra Joshi) का उपन्यास (Novel) ‘संन्यासी (sanyasi)’ पढ़ा था। इसमें एक युवा पात्र गांधी जी को लेकर कई सवाल उठाता है। उपन्यास के उस हिस्से ने मुझे इतिहास को फिर से समझने की प्रेरणा दी। मैंने थोपे गए पाठ्यपुस्तकों के इतिहास (History) की जगह उस सौंपे गए इतिहास का अध्ययन किया, जो कई नये तथ्यों पर रोशनी डालता था। मैंने वैद्य गुरूदत्त (Vaidya Gurudutt) के उपन्यास ‘देश की हत्या (desh kee hatya)’ और ‘विश्वासघात (vishvasaghat)’ को भी पढ़ा है। इन उपन्यासों को पढ़ने पर कुछ समय देश में प्रतिबंध भी लगा था। गुरूदत्त और इलाचंद्र जोशी दोनों ऐसे उपन्यासकार थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई से लेकर देश के विभाजन (partition of the country) को नजदीक से देखा था। यानि Gandhi की आलोचना देश में कोई नई बात नहीं थी। इतिहास के एक महापुरूष और दुनिया के एक बड़े मॉसलीडर (massleader) की आलोचना आखिर क्यों नहीं हो सकती? और जब देश को आजाद हुए पचहत्तर साल बीत रहे हों, क्या तब भी आजादी की लड़ाई के घटनाक्रमों या आजादी के नायकों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहस की गुंजाईश नहीं है?

इसी दौर में मैंने बंगाल के ‘डायरेक्ट एक्शन डे (direct action day)’ के अनाचार को समझा। इन भीषण दंगों (horrific riots) पर गांधी जी की चुप्पी टूटने की टाइमिंग (Timing) पर गौर किया। मैं कारावास की सजा के नाम पर किसी सुविधा-युक्त तथा टार्चर-मुक्त जेल और कालापानी की सजा (Kalapani’s punishment) के बीच के भयावह अंतर को समझ सका। इस अध्ययन ने मुझे भगत सिंह (Bhagat Singh) की फांसी टालने में सक्षम लोगों की इस दिशा में अकर्मण्यता को जानने का मौका दिया। उससे मुझे नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhash Chandra Bose) की अपने ही देश में उपेक्षा और गुमनाम जीवन की विवशता का सार पता चल सका। मैंने पाकिस्तान (Pakistan) से आयी लाशों से भरी ट्रेनों (trains) के घृणित चित्रों के बीच बिना रक्तपात (बिना खड़ग बिना ढाल) और कथित अहिंस क्रांति (ahins kranti) से मिली स्वतंत्रता का वास्तविक चित्र देखा। महज अपने अहंकार के चलते किस तरह किसी से वैचारिक मतभेदों को उसकी जड़ तक काटने की जिद तक बढ़ाया जा सकता है, यह मैंने डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर (Dr. Babasaheb Ambedkar) एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल (Sardar Vallabh Bhai Patel) के साथ हुए व्यवहार से महसूस किया। अपने विवेक के प्रयोग से ही मेरे लिए यह संभव हो सका कि मैं सावरकर (Savarkar) की छवि पर सप्रयास लगाई गयी कालिख को अपनी आंख में सच के प्रस्फुटन के लिए किसी काजल की तरह इस्तेमाल कर सकूं। कम से कम यह देखने लायक बन सकूं कि क्यों मोहम्मद अली जिन्ना (Mohammad Ali Jinnah) के प्राण के प्यासे गोड़से को अपनी बन्दूक तथा गुस्से का रुख महात्मा गांधी की तरफ करना पड़ा।

सच से साक्षात्कार कभी-कभी असह्य पीड़ा प्रदान करता है। मुझे भी पीड़ा है कि क्यों कर किसी कद का प्रयोग कर श्री लक्ष्मचर्या जी के ‘रघुपति राघव राजा राम (Raghupati Raghav Raja Ram)’ से वह छेड़खानी की गयी, जो खलती है। क्यों कर सत्ता की शक्ति के उन्माद में बाबासाहब अंबेडकर जी के संविधान की प्रस्तावना में उनकी विचारधारा से खिलवाड़ करते हुए ‘सेक्युलर (secular)’ शब्द जोड़ दिया गया? मुझे ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम (eeshvar-allah tero nam)’ से आपत्ति नहीं है। मैं सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष होने का भी विरोधी नहीं हूं। लेकिन क्या ‘ईश्वर-अल्लाह’ वाले अपनी इस सोच के संतुलन पर खुद ही कायम रहे थे? क्यों उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द (Swami Shraddhanand) की निर्मम हत्या को सही बताते हुए हत्यारे अब्दुल रशीद का समर्थन किया था? किसलिए आज यह हो रहा है कि सेक्युलर शब्द (secular words) और इसकी अवधारणा को देश के बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ एक अभियान के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा है?

एक स्वस्थ बहस तो अब आवश्यक हो चुकी है। स्वतंत्रता (Freedom) के पहले तथा उसके बाद वाले वातावरण को लेकर चर्चा बहुत अनिवार्य हो गयी है। क्यों एक किस्म की अनिवार्यता लादी जा रही है कि आप किसी तर्क के साथ भी महात्मा गांधी के किसी कदम पर सवाल नहीं उठा सकते हैं? अब महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) तो वो महापुरूष थे जो एक तमाचे के बाद दूसरा गाल भी आगे करने की वकालत करते थे। तो उस हिसाब से यह विचित्र माहौल है। आप किसी आतंकवादी (Terrorist) को फांसी देने के सबसे बड़ी अदालत के निर्णय पर सवाल उठा सकते हैं। आपको पूरी छूट है कि आप इस देश के टुकड़े-टुकड़े होने के नारे लगाने वालों को गले लगा सकते हैं। आप दिल्ली के दंगों में एक वर्ग विशेष को ‘घर से बाहर निकल कर जवाब देने’ का प्रलयंकारी आह्वान करने के लिए स्वतंत्र हैं। आपको इस देश में तालिबान के समर्थन (support for the Taliban) की भी छूट मिली हुई है। लेकिन आपको यह हक नहीं है कि किसी तथ्यपरक तरीके से भी महात्मा गांधी की निंदा तो दूर, उनके बारे में किन्तु या परन्तु का भाव भी अपना सकें।

निश्चित ही अब ऐसे भाव खुलकर सामने आने लगे हैं। लेकिन ऐसा करने वालों की सुनियोजित तरीके से इतनी तगड़ी घेराबंदी कर दी जाती है कि जल्दी ही वह अकेले पड़ जाने लगते हैं। उन्हें आंख मूंद कर असहिष्णु या हिंदूवादी (intolerant or hinduist) कह दिया जाता है। इस हिंदूवादी शब्द का उनके खिलाफ इस्तेमाल इस शैली में किया जाता है, गोया कि हिंदूवादी होना अक्षम्य अपराध घोषित कर दिया गया हो। लेकिन उनका शायद कोई अपराध नहीं माना जाता है, जो हिंदुत्व में यकीन रखने वालों को सार्वजनिक रूप से हत्यारा (killer) बताएं और उन्हें आतंकवादियों (terrorists) के समकक्ष खड़ा कर दें। कालीचरण महाराज के शब्दों का चयन घनघोर रूप से आपत्तिजनक था, उतना ही आपत्तिजनक, जितना कि गांधी जी पर सवाल उठाने वालों या हिंदुत्व को मानने वालों के बारे में कहा जाता है। इस विभेद को समाप्त कर स्वस्थ बहस को आगे बढ़ाना होगा। आखिर सच से इतना डर कैसा?

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