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‘मुंह खोलो, जहर ढोलो’ वाला प्रदूषण

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दिल्ली में प्रदूषण (pollution in delhi) पर सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) ने प्रदूषण के बहाने मीडिया (Media) खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया (electronic media) को लेकर लाजवाब टिप्पणी (Comment) की है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा है कि टीवी के न्यूज चैनलों (TV news channels) पर होने वाली डिबेट (debate) बाकी सभी चीजों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रदूषण फैला रही है। सचमुच ऐसा ही हो रहा है। जिस बहस में पहले वैचारिक मतभेद (ideological differences) का कलरव सुनाई देता था, उसमें अब घनघोर रूप से मतभेदों के कोलाहल के अलावा और कुछ सुनाई नहीं देता है। बात एक-दूसरे को अपशब्द कहने और धमकी देने से बढ़कर हाथापाई तक पहुंच चुकी है।

समाजवादी पार्टी (SP) के अनुराग भदौरिया (Anurag Bhadoria) द्वारा भाजपा (BJP) के गौरव भाटिया (Gaurav Bhatia) पर किये गए हमले का शर्मनाक मामला सबको याद ही होगा। अब तो स्थिति यह हो गयी है कि सुप्रीम कोर्ट को टीवी चैनलों के स्टूडियों में शुरू हुए इस चलन के आगे दिल्ली का दमघोंटू प्रदूषण ( pollution of delhi) भी कमतर लगने लगा है। लोकतंत्र के चौथे खंभे (Fourth Pillar of Democracy) को किसी नस्ल विशेष की आदत के अनुरूप हर कोई आता-जाता जिस तरह टांग उठाकर गीला करने लगा है। यह वास्तव में शोचनीय स्थिति का ही प्रतीक है। Supreme Court की तल्ख टिप्पणी कहीं से भी गलत नहीं लगती है। इसके दोषी आखिर हैं तो मीडिया के ही लोग।

आखिर बहस क्या होती है? अपनी-अपनी बात को सही साबित करना और सामने वाले के तर्कों,कुतर्कों को खारिज करना। लेकिन TV की बहस में अब तर्क (logic) की तो जैसे गुंजाईश ही नहीं रहने दी गयी है। मामला ‘मुंह खोलो और जहर ढोलो’ वाला होकर रह गया है। कोई मर्यादा नहीं। जो है तो केवल TRP और सुर्खियां पाने के अमर्यादित जतन। स्टूडियो में आसीन एंकर (anchor) खुद को दीवाने-खास (royal court) के सबसे बड़े आसन (throne) पर सवार मान कर आचरण करते हैं। उनका तरीका वीभत्स हो चला है। बहस का विषय बताने के बाद वह किसी पेनलिस्ट (panelist) से ‘बोलिये’ कहते हैं। इसके बाद जिस तरह से चर्चा आगे बढ़ती है, उससे यह सुनिश्चित करने की इच्छा होने लगती है कि एंकर ने कहीं ‘बोलो’ की बजाय ‘बको’ तो नहीं कहा था!

जरा देर ही में मामला लड़ाई के लिए खुले छोड़े गए सांडों या मुर्गों जैसा हो जाता है। मजे की बात यह कि एंकर भले ही बार-बार ‘कृपया इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल न करें’ कहने की औपचारिकता निभाते हैं। लेकिन वे बोलने के लिए सबसे अधिक समय उसको ही देते हैं, जो सर्वाधिक अमर्यादित तरीके की बात कर रहा/रही हो। आखिर इससे ही तो TRPमिलती है। अलबत्ता, ये एंकर उस समय वाकई बुरा कहने वालों की बोलती बंद कर देते हैं, जब उन्हें यह समझ आता है कि आपस में लड़ते सांडों में से किसी एक के सींग ने उनके चैनल को ही घायल कर दिया हो। तब एक झटके में संबंधित व्यक्ति का माइक बंद करने से लेकर उसे स्क्रीन या बहस से बाहर करने का काम तत्काल कर दिया जाता है।

यदि ये चैनल वाकई बहस की शुचिता के पक्षधर हैं तो फिर वे बदतमीज किस्म के किसी पैनलिस्ट (panelist) को क्यों बार-बार बहस में शामिल होने का मौका देते हैं? क्यों यह होता है कि जो जितना बेहया आचरण करे, उसे उतनी ही अधिक बहस में शामिल होने का मौका दे दिया जाए? ऐसा इसलिए कि ऐसे लोग और इस किस्म का आचरण ही बहस को देखने वालों की संख्या में वृद्धि का पैमाना बन गया है। और दर्शक, क्या पता वह भी इन बातों में ही आनंद लेता है या अब उकता गया है। बहस की सार्थकता या उसके आधार पर कोई जानकारी हासिल करने का उसका कोई मतलब हल होता है या नहीं।

या फिर वो लालायित भाव से इन बहसों को वैसे ही मासूम बनकर देखता है, जिस तरह वह ओटीटी प्लेटफॉर्म (OTT Platform) पर नग्नता (nudity) और गाली गलौच से भरी फिल्मों को निहारता है। इस निर्ल्लज अवधारणा के साथ कि जब सेंसर (censor board of india)ही ऐसी फिल्मों पर रोक नहीं लगा रहा तो फिर उसे इस तरह की चीजें देखने के लिए कैसे गलत कहा जा सकता है। बाकी दर्शक की अपनी सोच और मर्यादा तो रह ही नहीं गयी हैं। वह बेचारा उस दिन का इंतजार कर रहा है, जब टीवी चैनलों की बहस के लिए भी कोई सेंसर बोर्ड बने जो टीवी चैनलों की बहस को ‘केवल वयस्कों के लिए’ या ‘अनिर्बन्धित लोक प्रदर्शन के लिए’ वाले सर्टिफिकेट (certificate) दे। वास्तव में उस निरीह दर्शक पर तरस आता है, जिसे यह भी नहीं पता कि किसी सेंसरशिप (censorship) से पहले ही वह महज रिमोट (remote) का एक बटन दबाकर भी ऐसे प्रदूषण से स्वयं तथा अपने परिवार की रक्षा सुनिश्चित कर सकता है।

जो दर्शक ऐसा कर रहे हैं, उनकी समझ के रिमोट पर गर्व (Proud) किया जा सकता है। खासकर, ऐसे लोगों की तुलना में जो टीवी की ऐसी बहस से बचने के लिए रिमोट के सही इस्तेमाल जितनी जहमत भी नहीं उठा पा रहे हैं। बहस के नाम पर कलंकित आचरणों (stigmatized practices) के इस क्रम को टीआरपी की चाशनी में धंसी मक्खी(A fly caught in the syrup of TRP) की तरह हम खुद ही आत्मघाती (Suicide) तरीके से बढ़ावा दे रहे हैं। केवल एक महीने ऐसी बहस के समय अपने टीवी का चैनल बदल दीजिए। ज्यों ही टीआरपी का घोडा (TRP’s horse) लड़खड़ायेगा, चैनल वाले खुद ही सुधरने पर विवश हो जाएंगे। और नहीं तो उस दिन का इंतजार कीजिये, जब शायद आप TV पर यह बहस भी देखें कि क्यों नहीं ऐसे कार्यक्रमों में विशुद्ध रूप से गाली-गलौच करने की भी अनुमति दे दी जाए। तैयार रहिए ऐसा होने के लिए और इंतजार कीजिये कि शायद कभी सुप्रीम कोर्ट ही आपको यह महान सूत्र भी बताये कि ऐसी बहस से आप और आने वाली पूरी पीढ़ी भयानक रूप से मानसिक एवं वैचारिक रूप से प्रदूषण की शिकार हो रही है।

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