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तो क्या अब दाऊद जैसे विकल्प भी खुल जाएंगे कांग्रेस में ?

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ये तो गजब हो गया। जो कल तक ‘ हम लेकर रहेंगे आजादी’ का नारा लगा रहे थे, वो अब नाड़ा कसकर उस कांग्रेस (congress) में आ गए हैं। आजादी के पचहत्तर वें साल में देश के एक सौ पैतींस साल पुराने राजनीतिक दल (thirty five year old political party) पर अहसान करते हुए। कांग्रेस में जो हैं, वे तो जाहिर है कांग्रेस को बचा नहीं पा रहे हैं। और देश में जिनका जनाधार कांग्रेस का पासंग भी नहीं हैं, उस वामपंथी विचारधारा (leftist ideology) के कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) कह रहे हैं कि जो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, उसे नहीं बचाया गया तो देश नहीं बचेगा। बड़े जहाज को नहीं बचाया तो छोटी-छोटी कश्तियां भी नहीं बचेंगी। तो कांग्रेस में शामिल होते हुए कन्हैया कुमार ने राहुल गांधी (Rahul gandhi) को बता दिया कि भैया तुम्हारी पार्टी तो डूबता जहाज (sinking ship) हैं और उसे बचाने का जिम्मा अब हमारा है। कन्हैया ने एक मजेदार जोक इस मौके पर और सुनाया,’मुझे भरोसा है कि कांग्रेस जो अपने आपको लोकतांत्रिक पार्टी (Democratic Party) कहती है, वो सत्ता से सवाल पूछने और लोगों के संघर्ष के लिए लड़ने में हमारा साथ देगी। ‘ कांग्रेस के लोकतांत्रिक होने पर भरोसा जता रहे कन्हैयाकुमार में भी गजब का विरोधाभास हैं। वे जिस विचारधारा से आएं हैं, उसमें लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है। दुनिया के बचे खुचे कम्युनिस्ट शासन (communist regime) को देख लें। दूसरा कन्हैया भूल गए कि जिस पार्टी का दामन उन्होंने थामा है वहां आजादी और लोकतंत्र की हवा केवल एक परिवार और उसके प्रति समर्पित चेहरों के लिए ही बहती है। उस पर तुर्रा यह कि कांग्रेस को अब कन्हैया कुमार को कंधे पर बिठा कर घुमाना है।

यूं तो कल कन्हैया कुमार ने एक अच्छी बात कही। वह यह कि कांग्रेस की बजाय वह देश को मजबूत बनाने को प्राथमिकता देंगे। अब जेएनयू (JNU) की आबोहवा और वहां की शिक्षा व्यवस्था पर मुझे पूरा भरोसा है। उसी शिक्षा के दम पर कन्हैया शायद यह समझ गए होंगे कि मुर्दे में जान डालने के प्रयास बेकार हैं। कांग्रेस को शक्ति देना अब उस प्रक्रिया से अलग नहीं है, जिसमें किसी शेर के प्राण-पखेरू उड़ने के बाद उसके जिस्म में लकड़ी तथा भूंसा भरकर उसे नुमाइश की वस्तु बना दिया जाता है। सचमुच आजादी की लड़ाई से लेकर आजाद भारत में कांग्रेस कभी एक शेर हुआ करती थी। दिवंगत इंदिरा गांधी जी (Indira Gandhi) के बाद से तो मामला भूसे और लकड़ी तक ही सिमट कर रह गया है। यह भूसा इस दल में अब किसी शरीर के एक अहम हिस्से में भरकर पार्टी की दुर्गति कर रहा है। लकड़ी की वह बैसाखी बन गयी है, जिस पर झूलते हुए देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल आज इधर से उधर अपने सहारे तलाश रहा है।

मनीष तिवारी (Manish tiwari) कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। क्योंकि अब उनके स्वतंत्र विचार हैं, इसलिए अपनी पार्टी की मौजूदा परिपाटी के तहत वे पटिये पर बिठा दिए गए हैं। तिवारी ने कन्हैया की आवभगत पर एक गौरतलब बात कही। ट्वीट (Tweet) किया, ‘अब शायद 1973 की पुस्तक ‘कम्युनिस्ट इन कांग्रेस’ के पन्ने फिर से पलटे जाएं।’ तिवारी, कांग्रेस की खराब हालत से दुखी हैं, इसलिए वे पार्टी के भीतर सुखी रहने के अधिकार से वंचित किये जा चुके हैं। उनके जैसे कुछ और भी हैं, जो सच कहने के चलते पार्टी में पूछ-परख वाला ठौर खो चुके हैं। तो अघोषित रूप से कांग्रेस में चल रहे ‘रूल आफ डायनेस्टी (rule of dynasty)’ में हम कन्हैया को कहां पाते हैं? इस पार्टी के भीतर जो घुटन का माहौल है, क्या उसमें कांग्रेसी अब कन्हैया को हवा का ताजा झौंका मान लेंगे। अब यही कन्हैया क्या अपने आप को कांग्रेस के मौजूदा ढांचे में फिट कर पाएंगे? या फिर अपने हिसाब से ढांचे को वह नया रूप देने में जुट पाएंगे? और क्या ऐसा करने लायक कोई काबलियत उनमें हैं? सवाल यह भी कांग्रेस कन्हैया को अपनी तरह ढालने की कोशिश करेगी या फिर खुद को बहते-चलते हुए कन्हैया के रंग में ढलने देगी? तो फिर ये गांधी परिवार क्या करेगा? आग और पानी के बीच आलिंगन में आगे क्या होगा, यह देखना यकीनन रोचक ही रहेगा।

वैसे तो वर्ष 2014 के बाद से कांग्रेस का वामपंथीकरण बहुत तेजी से हुआ है। मनीष तिवारी यदि 1973 की ‘कम्युनिस्ट इन कांग्रेस’ को याद कर रहे हैं तो यह इस एक बात को बहुत जोर से इंगित करता है कि कांग्रेस कभी अपनी खुद की कोई विचारधारा बना ही नहीं सकी है। आजादी के पहले अंग्रेजों (British) के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस एक जनआंदोलन (Congress a mass movement) था। या आजादी की लड़ाई का जो जनआंदोलन था, उसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी। आजादी (independence) के बाद के भारत को लेकर कांग्रेस के कोई स्पष्ट विचार नहीं थे। शायद इसलिए आजादी मिलने के बाद महात्मा गांधी ने कांग्रेस को खत्म करने की इच्छा जाहिर की थी। जाहिर है वो नहीं हुआ इसलिए सत्ता का एक स्वाभाविक लाभ कांग्रेस के खाते में गया। जवाहर लाल नेहरू और फिर बाद में इंदिरा गांधी के दौर में वामपंथी विचारकों को ही कांग्रेस से प्रश्रय मिलता रहा। इसलिए कम्युनिस्ट कभी देश में विस्तार ही नहीं पा सके। उनकी बौद्धिक अय्यारी ने उन्हें सत्ता का सुख वैसे ही उपलब्ध करा रखा था।

लेकिन अब कन्हैया कुमार के रूप में इस प्रक्रिया को इस दल के वर्तमान नेतृत्व की औपचारिक स्वीकृति भी मिल गयी है। कन्हैया ने कहा कि वह कांग्रेस के डूबते जहाज को बचाने आये हैं। यदि वह जहाज के डूबने वाली बात कह रहे हैं, तो सीधा अर्थ यह कि वह सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका के विगत करीब बीस साल से ज्यादा के नेतृत्व की अक्षमताओं की तरफ इशारा कर रहे हैं। तमाम नाकामियों और गलत फैसलों के बाद भी यदि कांग्रेस का जहाज डूबा नहीं तो इसकी वजह केवल यह है कि पार्टी आज भी अपने कुछ पुराने सकारात्मक विचारों की ॅक्सीजन पर जिंदा है। देश में उसे पहचान का संकट नहीं है और न ही समर्थकों का। उसका संकट नेतृत्व का है। जाहिर हे गांधी परिवार (Gandhi family) से इतर कोई और नेतृत्व कांग्रेस में सामने नहीं आ पा रहा है ऐसे में यदि इस जहाज की कमान कम्युनिस्ट विचारधारा (communist ideology) को सौंप दी गई तो फिर कांग्रेस का बेड़ा गर्क होना तय है।

कांग्रेस क्या कहकर कन्हैया के प्रवेश को जस्टिफाई करेगी? यदि बात समान विचारधारा वाली कही गयी तो ‘टुकड़े-टुकड़े’ और ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं’ (Afzal we are ashamed) वाले कष्टप्रद एपिसोड पर पार्टी को जवाब देना चाहिए। वैसे तो यह मुश्किल नहीं है। ह्रदय परिवर्तन के नाम पर दुर्दांत डकैत फूलन (the evil dacoit Phoolan) से लेकर राजा भैया (Raja Bhaiya), अतीक अहमद (ateek Ahmed), अबू आजमी (abu azmi),और मुख्तार अंसारी (Mukhtar Ansari) जैसे लोकतंत्र के कई कोढ़ यह देश झेल चुका है। लेकिन कन्हैया का मामला अलग है। उनके तेवर बताते हैं कि अपने खिलाफ राष्ट्रद्रोह की धारा लगने के बावजूद वह अपनी विचारधारा से अलग नहीं होंगे। इसलिए कांग्रेस उनके हृदय परिवर्तन की बात कहकर किसी मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने की गलती नहीं करेगी। फिर यह दलील तो पूरी तरह सच होते हुए भी कांग्रेस सार्वजनिक रूप से नहीं दे सकती कि उसे हर वह चेहरा सिर-माथे पर स्वीकार है, जो नरेंद्र मोदी का विरोध करता हो। फिर चाहे वह चेहरा अपने स्तर पर कितना ही विवादित क्यों न हो?

कल कांग्रेस के एक धुर समर्थक को पढ़ा। उन्होंने सोशल मीडिया (social media) पर लिखा कि कन्हैया को क्योंकि पुलिस का डर नहीं है, इसलिए वह मोदी के खिलाफ कांग्रेस की लड़ाई में महत्वपूर्ण साबित होंगे। मुझे लगा कि कल को ऐसी मूर्खता भरी दलील इस बात का आधार न बन जाए कि इस देश की पुलिस से तो दाऊद इब्राहिम भी नहीं डरता है, तो फिर क्या कन्हैया के बाद और भी ऐसे विकल्प तलाश लिए जाने की गुंजाइश बन जाएगी! कांग्रेस की वैचारिक दरिद्रता ही तो है कि इस दल को अपनी डूबती नैया बचाने के लिए धुर-विरोधी विचारधारा को गले लगना पड़ रहा है। कुशल नेतृत्व के अभाव में आउटसोर्सिंग की यह प्रक्रिया अंतत: इस दल के मूल को कुचल कर रख देगी। उसके वैचारिक अस्तित्व को मिटा देगी। यूं भी खुद के विचार के नाम पर तो इस दल में अब बहुत ही कम दम दिखता है। यदि राजनीति के विशाल कैनवास पर आपकी उपस्थिति क्षेत्रीय दलों के हाथ में हाथ डालकर फोटो खिंचवाने तक ही दिखे तो समझ लीजिये कि यह उस तस्वीर की तैयारी है, जो अंतत: माला टांगने के काम ही आती है। कांग्रेस देश से खत्म हो जाएगी, यह विचार घनघोर मूर्खता का परिचायक है। उसकी आवश्यकता तथा अस्तित्व लोकतंत्र के लिए अनिवार्य हैं। किंतु मामला उस व्यक्ति जैसा न बन जाए, जो अमर हो गया और तिल-तिल कर जीते हुए मौत की कामना करने के अलावा उसके पास और कुछ नहीं बचा था। अब भी समय है कि कांग्रेस को परिवार के चंगुल से बाहर निकाला जाए। उसके सर्वेसर्वा होने के लिए ‘नेहरू’ या ‘गांधी’ जैसे किसी उपनाम की बेड़ी को काट फेंका जाए। आज भी इस दल में उन वास्तव के क्षमतावान चेहरों की कमी नहीं है, जो कांग्रेस को उसका लुटाया गया गौरव फिर से दिलवा सकते हैं। मगर यह बात कोई समझे, तब ना। खासकर यह बात कांग्रेस के आम कार्यकर्ता और समर्थक को समझ में आना चाहिए।

कन्हैया अपने समर्थकों के बीच प्रभावी वक्ता हैं। विचारों की स्पष्टता, मुद्दों की समझ और उनकी तथ्यात्मकता के मामले में वह एक खास किस्म की विचारधारा के लिए अच्छी खुराक के आधार हैं। इस मामले में गिरिराज सिंह (Giriraj Singh) उनके आगे कुछ भी नहीं हैं। फिर भी बेगुसराय की जनता ने गिरिराज के मुकाबले कन्हैया को खारिज कर दिया। यह उस विचारधारा के चलते हुआ, जो कन्हैया ने जेएनयू में दिखाई। अब उसी विचारधारा को कांग्रेस ने गले लगाया है या वह उसके गले पड़ गयी है, इसका खुलासा बहुत जल्दी हो जाएगा।

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