18.4 C
Bhopal

वाकई जरूरत है बौद्धिक क्षत्रियों की

प्रमुख खबरे

इसमें कोई शक नहीं कि देश में जिन राजनीतिक दलों के पास वाकई प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं, उनमें वामपंथी और दक्षिण पंथी यानि कम्युनिस्ट और भाजपा को ही शामिल किया जा सकता है। दुनिया में जब साम्यवाद पैर पसार रहा था, तब और अब जब दुनिया से साम्यवाद की लगभग विदाई हो गई है, तब भी, भारत में वामपंथी अपनी कोई खास राजनीतिक जमीन तैयार नहीं कर पाएं। दूसरी तरफ हम देख रहे हैं भारत में दक्षिणपंथ की यात्रा। इसके राजनीतिक सफर की शुरूआत 1952 से ही मान लें तो, आज साढ़े छह दशक की अपनी यात्रा में भाजपा कहां पहुंच गई। साम्यवाद की समानता से ज्यादा लोगों में राष्ट्रीय स्वाभिमान, राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, राष्ट्र का पुर्नउत्थान जैसे मुद्दे ज्यादा अपील कर गए। दक्षिणपंथ की राजनीतिक सफलता को देख कर कह सकते हैं कि इस देश में जमीन उसी की मजबूत हो सकती है, जिसे अपनी जमीन की समझ हो। एक विदेशी विचारधारा बंगाल, त्रिपुरा, केरल से ज्यादा पैर नहीं पसार सकी। और केरल को छोड़ दें तो उसका बोरिया बिस्तर लगभग बंधा ही मान लेना चाहिए।

देश में वामपंथ के हिस्से सिकुड़न ही आयी है। पश्चिम बंगाल में बोरिया-बिस्तर सिमटा ही था कि कॉमरेडों को त्रिपुरा ने भी चलता कर दिया। ले-देकर केरल में गठबंधन की बैसाखी पर झूलते हुए इस दल का सत्ता वाली राजनीति का अवशेष दिख रहा है। लेकिन अपने वैचारिक षड़यंत्रों के लिए भाई लोगों ने खाद-पानी का बंदोबस्त कभी भी कम नहीं होने नहीं दिया। फिर भले ही उसके लिए कभी कांग्रेस तो कभी उन दलों की जी-हुजूरी ही क्यों न करनी पड़ गयी, जो वामपंथी विचारधारा से कतई इत्तेफाक नहीं रखते हैं। एक शुरूआती दौर को छोड़ दें तो कांग्रेस की तो कभी कोई स्पष्ट विचारधारा देश ने देखी ही नहीं। स्वतंत्रता आंदोलन में आजादी पर ही पर पूरा जोर था इसलिए पूरा देश एकजूट होकर कांग्रेस के नेतृत्व में खड़ा हुआ। आजादी के बाद जब कांग्रेस ने सत्ता संभाली तो वो गांधी की विचारधारा पर भी देश को आगे नहीं बढ़ा पाई। नेहरू जी का कल्पनालोक उलझा हुआ था। तो बाद में कांग्रेस को हमेशा विचारधारा की खाद कम्युनिस्टों ने ही दी। बदले में उन्होंने देश के तमाम वैचारिक संस्थानों पर कब्जा जमाया। अब क्योंकि उनका सबसे बड़ी विरोधी विचारधारा सत्ता में हैं तो उन्हें सूझ नहीं रहा करें तो क्या करें।

देश ने कम्युनिस्टों के गले में मोदी को ऐसा फंसाया है कि उनसे न उगलते बन रहा है और न निगलते। लिहाजा, इस पंथ की कई शाखाएं भी खरपतवार की तरह फैलती जा रही हैं। अर्बन नक्सल की अवधारणा को गौरवमयी लबादा पहनाना इसी का एक हिस्सा है। लाल सलाम का काला-घिनौना सच यह भी है कि इसका उद्देश्य बहुधा हिन्दू मान्यताओं और दर्शन सहित हिन्दुस्तानियत के खिलाफ भी जहर का संचार करने वाला हो चुका है। गौर से देखिये। बीते करीब छह साल में देश में जितनी घटनाओं के पीछे राष्ट्र-विरोध की बू आयी, उन सभी को वामपंथियों ने खुलकर समर्थन दिया। और जब खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है तो होता यह है कि आप अखलाक के घर भारी-भरकम राहत राशि लेकर पहुंच जाते हैं और अपने ही कार्यक्षेत्र में एक रिंकू शर्मा की नृशंस हत्या पर जैसे आपके मुंह में दही जम जाता है। इन संक्रामक तत्वों की सोहबत का ही असर है कि भगवा आतंकवाद कहना फैशन से पैशन तक लोकप्रिय हो जाता है और केरल में आतंकी संगठन आईएस के हिमायतियों की आलोचना करने को असहिष्णुता करार दे दिया जाता है।

आखिर भागवत की बात से सहमति क्यों न हो? एक महिला विधिवत संन्यास लेती है। खुद जीते-जी अपने मृत्योपरांत वाले संस्कार कर देती है। और उस महिला को ही ‘सेक्सी संन्यासिनी’ तमगा पहना दिया जाता है। तो सचमुच उन बौद्धिक क्षत्रियों की जरूरत है, जो ऐसी मानसिकता को तथ्यपरक जवाब दे सकें। भागवत ने जो मंशा जताई, उस दिशा में यूं तो काम शुरू हो चुका है। सोशल मीडिया सहित तमाम मंचों पर अब हिन्दू और हिन्दुस्तान को लेकर आक्रामक तरीके से विरोधियों को जवाब दिया जा रहा है। आखिर देश बड़ा राजनीतिक परिवर्तन कर चुका है। पहली बार देश के बहुसंख्यकों को लगा है कि उनके ही दम पर देश में सरकारें बन सकती हैं। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। क्योंकि ऐसे लोग तिनकों की तरह बिखरे हुए हैं, जबकि उनका मुकाबला उन गिरोहबंद लोगों से है, जो अघोषित रूप से एकजुट होकर देश और हिन्दूओं के खिलाफ अपने मंसूबों को आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं। इन आताताइयों से निपटने के लिए बौद्धिक क्षत्रियों की जरूरत वाकई बहुत शिद्दत से महसूस हो रही है। (समाप्त)

- Advertisement -spot_img

More articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -spot_img

ताज़ा खबरे