दिग्विजय सिंह फिर चूक कर गए। शायद ऐसा करना उनकी आदत में शामिल हो गया है। या फिर यह शायद किसी मंसूबे का हिस्सा है। अर्जुन सिंह के पिता की मृत्यु अस्वाभाविक थी। सिंह ने जब तिवारी कांग्रेस बनायी तो एक बात कही गयी। वह यह कि सिंह ने अपने पिता की चिता पर ली गयी शपथ के तहत कांग्रेस को मिटा देने की दिशा में काम शुरू कर दिया है। तो क्या ऐसी ही कोई शपथ दिग्विजय सिंह ने भी अपनी पार्टी के खिलाफ उठा रखी है? अपनी जुबानी हलचल से सिंह एक बार फिर अपनी ही पार्टी को छीछालेदर वाली स्थिति में ला चुके हैं।
दिग्विजय ने भाजपा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए एक बात बोली। कहा कि जिन सिंधिया को कांग्रेस में ‘महाराज’ का दर्जा हासिल था, वही अब बीजेपी में जाने के बाद ‘भाईसाहब’ बनकर रह गए हैं। मामला संबोधन में बदलाव का है। बदलाव की उस महत्वपूर्ण प्रक्रिया का भी है, जो बीजेपी ने सफलतापूर्वक अपनाने का काम शुरू कर दिया है। कांग्रेस में सिंधिया महाराज सहित श्रीमंत कहे गए। उनके पिता दिवंगत माधवराव सिंधिया को भी पार्टी ने यही दर्जा दिया। बीजेपी ने ज्योतिरादित्य की स्वर्गीय दादी को हमेशा ही राजमाता का दर्जा दिया। शिवराज के एक मंत्री (विजय शाह) और इसी पद को संभालने के बाद परलोक सिधार चुके (तुकोजीराव पवार) अपने नाम के साथ क्रमश: ‘कुंवर’ और ‘श्रीमंत’ लगाते रहे। शिवराज सरकार की एक और मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया के आगे भी ‘श्रीमंत’ का इस्तेमाल होता रहा है किन्तु इस पार्टी ने इन लोगों को संबोधन के मामले में राजमाता जैसा महत्व देने में कोई दिलचस्पी नहीं ली। दिग्विजय और उनके विधायक अनुज लक्ष्मण सिंह आज भी समर्थकों के बीच क्रमश: ‘बड़े राजा साब’ और ‘छोटे राजा साब’ के तौर पर स्वीकार्य हैं। अर्जुन सिंह की ताकत वाले दौर में उनके लिए ‘कुंवर साहब’ का विश्लेषण इस्तेमाल करना घनघोर चाटुकारिता होने के बावजूद चलन का हिस्सा बना रहा था।
तो बाद पहले उस बदलाव की, जिसके तहत भाजपा ने विजयाराजे सिंधिया के बाद राजे-रजवाड़ों को किसी शाही सम्मान से नवाजने का चलन कम कर दिया है। लेकिन कांग्रेस में यह प्रक्रिया अब भी जारी है। जिस पार्टी ने देशी रियासतों की मक्कारी से परे जाकर आजादी की लड़ाई लड़ी, आज उसी दल में सोनिया गांधी किसी भारतीय रियासत की महारानी बनी दिखती हैं। आखिर इक्कीस बाईस साल हो गए कांग्रेस को उनकी छत्रछाया में। उसी रियासत में राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा की हैसियत भी शाही खानदान के वंशजों से कम नहीं नजर आती है। जिन इंदिरा गांधी ने राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स खत्म कर उनकी अकड़ ठिकाने लगा दी थी, उन्हीं इंदिरा के वंशज अब कांग्रेस में शाही परिवार जैसी गलत परंपरा की बुनियाद को और मजबूत कर रहे हैं। तो क्या आज की कांग्रेस सचमुच वही पार्टी है, जिसने गुलाम देश में महलों की आरामगाहों से परे जाकर मैदानी संघर्ष के जरिये अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का हमेशा से ही दावा किया है?
ऐसे हालात में ज्योतिरादित्य के लिए यही श्रेयस्कर और समयानुकूल रहा कि वह महाराज की बजाय भाईसाहब बन गए। क्योंकि किसी भी शाही पदवी को अब देश की जनता पचा नहीं पा रही है। सोशल मीडिया पर देख लीजिये। किसी भी पूर्व राजे-रजवाड़े के जरा भी अतीत का गुब्बारा बनने पर उनकी हवा निकालने के लिए लोग टूट पड़ते हैं। जनता की इस नब्ज को भाजपा भांप चुकी हैं। इसलिए उसने राजमाता के निधन के बाद एक नयी रणनीति के तहत खुद को ब्लू ब्लड वाले परिवारों के असर से मुक्त रखने का काम शुरू कर दिया था। अफसोस कि कांग्रेस ऐसा न कर सकी है और शायद कर भी नहीं पाएगी। वैचारिक जड़ता और अपनी ऐतिहासिक गलतियों की बेड़ियों को काट फेंकने में उसके कर्ताधर्ताओं की कोई रूचि ही नहीं दिखती है। सोनिया का युग जाएगा तो दीवाने-खास और दीवाने-आम के कारकून राहुल या प्रियंका का दरबार सजाने में जुट जाएंगे। यह समय बीतने के बाद रयान वाड्रा के लिए जय-जयकार लगाने की तैयारी पूरी कर दी जाएगी। अब जो लोग इतने अहम कामों में मगन हों, उनसे और किसी सुधार की उम्मीद करना बेमानी ही है।