घोड़े की सवारी या रोलर स्केट की रफ़्तार, इनका या इन जैसी किसी भी गतिविधि का आनंद लेना हो तो पहला कदम बढ़ाने के साथ ही एक निश्चित अंतराल में दूसरा कदम भी सही दिशा में उठाना बहुत जरूरी होता है। ऐसा संतुलन कायम करने के लिए आवश्यक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के लिए भी अब दूसरा कदम उठाने के लिए समय कम रह गया है।
मोदी ने कल राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार (Rajiv Gandhi Khel Ratna Award) का नाम बदलकर उसे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद (Hockey magician Major Dhyan Chand) के नाम पर कर दिया। आप भले ही इस फैसले में राजनीति देख लें जो कि निश्चित रूप से है भी। लेकिन यह कदम बहुत अधिक गलत भी नहीं कहा जा सकता है। इसका व्यावहारिक पक्ष भी है। राजीव गांधी का निजी प्रदर्शन के तौर पर खेलों में कोई योगदान नहीं रहा। जबकि मेजर ध्यानचंद का नाम विदेशों में भी खेल की एक प्रतिभा के रूप में पहचाना गया। वो वाकई इस जगत के वो रत्न थे, जिन्हें खेल रत्न कहना गलत नहीं होगा। किन्तु अब आगे क्या? क्योंकि खेल वाले खिलाड़ी तो खुद मोदी भी नहीं हैं। तो क्या अब यह नहीं होना चाहिए कि उनके नाम पर गुजरात में बने स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स (Sports Complex) को भी ध्यानचंद के स्तर के किसी खेल सितारे के नाम पर कर दिया जाए? और कुछ नहीं तो इस राज्य की ही किसी खेल प्रतिभा को इस बहाने उपकृत कर दिया जाना चाहिए। यदि प्रधानमंत्री ऐसा करते हैं तो माना जाएगा कि उन्होंने समय रहते दूसरा कदम भी उठा लिया। वरना तो यही लगेगा कि कल वाला फैसला ध्यानचंद के सम्मान से कम और कांग्रेस (Congress) के अपमान से अधिक प्रेरित था।
और अब यह क्रम रुकना भी नहीं चाहिए। यह देश का दुर्भाग्य है कि केंद्र और राज्य की सरकारें अपनी-अपनी सियासी फसल काटने के लिहाज से नामकरण की खरपतवार को बढ़ावा देती आयी हैं। कोई भी दल इसमें पीछे नहीं रहा है। अब पूर्व में देश और तमाम प्रदेशों में कांग्रेस का ही लंबे समय तक शासन रहा, इसलिए आपको जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru), इंदिरा (Indira) या राजीव (Rajiv) के नाम पर बने कई संस्थान, महत्वपूर्ण स्मारक, इनाम से लेकर झुग्गी बस्ती तक भी देखने को मिल जाते हैं। घनघोर राजनीति में पगी इस अमूर्त प्रक्रिया का वह रूप भी देखने को मिला है, जिसमें मायावती (Mayavati) ने उत्तरप्रदेश (Uttarpradesh) में अरबों रुपये खर्च करके अपने चुनाव चिंह हाथी और खुद की ही प्रतिमा स्थापित करवा दी थी। यह संक्रमण इतना बढ़ गया है कि अब तो निजी स्वार्थ वाली दुकानें संचालित कर रहे व्यावसायिक समूह भी अपने किसी स्वयंभू पुरोधा के नाम पर सड़क का नामकरण करने के लिए दबाव बनाने लगे हैं।
होना यह चाहिए कि हरेक सार्वजनिक स्थान के नाम पर अब दोबारा विचार किया जाए। मोदी ने यदि वाकई शुरूआत की है तो फिर उनका फर्ज है कि वह तमाम पुरस्कारों में इस बात की तफ्तीश करें कि क्या उनका नामकरण वाकई किसी संबंधित प्रतिभा के आधार पर ही किया गया है? फिर इमारतों और चौक-चौराहों के बारे में भी ऐसे ही निरपेक्ष किस्म की प्रक्रिया अपनाई जाना चाहिए। ऐसा करने की मोदी से उम्मीद करना भी बेमानी नहीं है। आखिर वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री साबित हुए हैं, जिन्होंने पद्म सम्मानों की बंदरबांट को खत्म कर ऐसे कई चेहरों को सम्मान दिलवाया, जो लंबे समय से उल्लेखनीय काम करने के बाद भी सम्मान या ईनाम तो दूर, किसी पहचान तक के मोहताज थे। वैसे एक बात यह भी तय है कि जो लोग निस्वार्थ भाव से ऐसे काम करते हैं, उनमें से अधिकांश की निगाह अपने काम के बदले में किसी सरकारी पहचान/मान्यता हासिल करने की नहीं होती है। फिर भी अच्छे काम को प्रश्रय देने की प्रक्रिया राजे-रजवाड़ों के दौर से चली आ रही है और मोदी ने उसे सही मायनों में एक नयी पहचान प्रदान की है। इसलिए शेष क्षेत्रों में भी सुपात्रों को पहचान दिलाने की आशा वर्तमान व्यवस्था से की जा सकती है।
आप खुद देखिये। ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड (Dadasaheb Phalke Award)’ सुनते ही उसे हासिल करने वाले के लिए मन में आदर का भाव बढ़ जाता है। क्योंकि फाल्के ने हिन्दुस्तानी सिनेमा (Hindustani Cinema) को पितृ पुरुष की तरह आगे बढ़ाया। वहीं यदि आप किसी ‘फिल्मफेयर अवार्ड’ की बात करते हैं तो सबसे पहले आपका ध्यान उन खबरों की तरफ चला जाता है, जो इस बात की पुष्टि करती हैं कि इस सम्मान को पाने के मुकाबले उसे खरीदा जाना बहुत आसान है। धनबाद में चौराहे पर लगी कोयला खनिक की प्रतिमा आपके भीतर इस अहसास को और गाढ़ा कर देती है कि आप सचमुच देश की कोयला राजधानी में हैं। झांसी में रानी लक्ष्मी बाई (Rani Lakshmi Bai) की प्रतिमा आपको एक अपराजेय योद्धा के साहस की याद में खींच कर ले जाती है। जिन्होंने हॉलीवुड देखा है, वह बताते हैं कि पहाड़ पर स्थापित किये गए इस नाम के बड़े-बड़े दर्शन यह भाव और गहरे कर देते हैं कि आप उस जगह के पास हैं, जो दुनिया के फिल्म जगत के शिखर के रूप में स्थापित है। संत हिरदाराम नगर (Sant Hirdaram Nagar) की तरफ से भोपाल में प्रवेश करते समय आपकी नजर ‘वेलकम टू द सिटी आफ लेक (Welcome to the City of Lake) ‘ वाले शब्द की तरफ जाती है। तब उस सड़क के नीचे से बह रही बड़ी झील आपके झीलों के नगरी में होने के भान को और बढ़ा देती है। बस इसी तरह के अहसास की हरेक नामकरण के लिए सख्त आवश्यकता है। फिर चाहे बात किसी सम्मान/पुरस्कार की हो या हो किसी स्थान की।